ऐसा लगा कि अब भारत अपना वजूद दर्शा रहा है। भले ही प्रधानमंत्री मोदी ने पुतिन का स्वागत एक पुराने दोस्त की भांति किया, लेकिन नज़र परिदृश्य में मौजूद दूसरे दोस्तों पर भी उतनी रखी। बहुध्रुवीय या गुट-निरपेक्षता का संदेश साफ़ है।
जब उठी चर्चा- कयासों की सारी धूल बैठ जाएगी और घोषणाओँ का शंखनाद हो चुका होगा और गले मिलना इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाएगा, तब हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच हुई शिखर वार्ता में एक छोटी सी यादगार इस मिलन का प्रतीक बन जाएगी -- वह फोटो, जिसमें मोदी, पुतिन को रूसी भाषा में अनुवादित भगवद गीता की एक प्रति भेंट कर रहे हैं।
आप पूछेंगे, तो क्या हुआ। लेकिन जरा गौर से देखिए। किताब लेते समय जहां रूसी राष्ट्रपति मुस्कुरा रहे हैं, कुछ-कुछ अर्ध-असमंजस अंदाज़ में, वहीं प्रधानमंत्री की नजर कहीं अधिक संयमित है और उसमें कई छिपे हुए संदेश हैं – गीता की सदियों पुरानी सभ्यतागत शिक्षाएं; कुरुक्षेत्र की रणभूमि से न्याय की खातिर लड़ी जाने वाली लड़ाई का संदेश; तीन साल से यूक्रेन में युद्धरत पुतिन की मंशा पर परोक्ष टिप्पणी; और पश्चिम हेतु संदेश, जो उत्सुकता से भारत को लाल कालीन बिछाकर उस आदमी का स्वागत करते देख रही है, जिस पर कड़ी पाबंदियां ठोक रही है, कि भारत शांति के पाले में है, न कि यूक्रेन संघर्ष में महज एक तटस्थ पक्ष।
काफी अर्से बाद, गत सप्ताह ऐसा लगा कि भारत ने अपना वजूद दर्शाया है। पिछले कुछ महीनों में ट्रंप द्वारा दी जाने वाली चोटों के परिप्रेक्ष्य में (व्यापार संबंधित, अमेरिकी राष्ट्रपति का ज़ोर-शोर से प्रचार करना कि ऑपरेशन सिंदूर को रूकवाने में उन्होंने मध्यस्था की थी, और व्हाइट हाउस में आसिम मुनीर का रेड कार्पेट वेलकम),मोदी ने अवश्य तय कर लिया होगा कि अब बहुत हुआ और वक्त है अपने अस्तित्व का अहसास कराने का। पुतिन का भारत आना काफी समय से लंबित था –पिछली बार वे चार साल पहले आए थे।
मोदी ने उनका स्वागत गर्मजोशी से करने का फैसला सिर्फ़ इसलिए नहीं किया कि ट्रंप मुनीर के साथ पींगे बढ़ा रहे हैं, या इसलिए नहीं कि भारत-अमेरिका व्यापार समझौते में लंबे समय से गतिरोध बना हुआ है, या इसलिए नहीं कि भारत-रूस के बीच 64 बिलियन डॉलर मूल्य के आपसी द्विपक्षीय व्यापार में भारत का अकेले ऊर्जा संबंधी आयात 55 बिलियन डॉलर है–बल्कि भू-राजनीति के बुनियादी सबक : ‘न तो कोई दोस्त स्थाई होता है न ही दुश्मन, स्थाई कुछ है, तो केवल स्वः हित’।
यूक्रेन संकट का बेहतरीन उदाहरण देखें। अमेरिका रूस पर प्रतिबंध लगाता जा रहा है – जिसमें भारत को ऊर्जा आपूर्ति करने वाली चार रूसी कंपनियां भी शामिल हैं – हालांकि ट्रंप व सहयोगी भी युद्ध रुकवाने को बार-बार पुतिन से मिले हैं। लेकिन रूसी राष्ट्रपति अपनी रूख पर अडिग हैं; पिछले तीन सालों उन्होंने न सिर्फ़ यूक्रेनियन लोगों से – बल्कि यूक्रेनियनों के मददगार यूरोपियन एवं अमेरिकियों से भी – डोनबास जैसे रूसी भाषी इलाकों पर कब्ज़ा करने के अधिकार के लिए लड़ाई लड़ने में गुजारे हैं। यह भू-राजनीति का दूसरा सबक है कि ताकतवर विरोधियों का सामना मुमकिन है, जब तक आपके पास ऐसा करने की ताकत हो। मोदी जानते हैं कि बड़ी ताकतों – चीनी, अमेरिकिियों और रूसियों – में यह अस्वाभाविक काबलियत है कि जब उन्हें अपनी चलानी हो तो वे उच्च नैतिक मूल्यों को तज देते हैं। उन्हें अहसास है कि भारत को उनसे सबक लेते हुए खुद एक आर्थिक ताकत बनाना होगा। लेकिन यह कैसे हो पाएगा, जब रुपया डॉलर के मुकाबले गिर रहा है।
समस्या है कि भारत काफी हद तक अमेरिकी बाजार पर निर्भर है, इसीलिए एक सहानुभूतियुक्त व्यापार समझौते की ज़रूरत है;निर्भरता चीनी मार्केट पर भी है, जो दुनिया के अन्य देशों से कम कीमत पर गुणवत्तापूर्ण सामान बेचता है, इसकी वजह से 100 बिलियन डॉलर के द्वि-पक्षीय व्यापार में चीन का पलड़ा बहुत भारी है;और हमारी निर्भरता सस्ती ऊर्जा जरूरतों हेतु रूसी बाजार पर भी है, जो भारतीय आर्थिकी को संबल हेतु अंतर्राष्ट्रीय कीमतों के मुकाबले कियाफती रखने में मददगार है। तो फिर, क्यों न सभी पक्षों से संवाद रखा जाए और हरेक के साथ अर्थपूर्ण रिश्ते बनाए जाएं।
इसीलिए बीते शुक्रवार को जब पुतिन का जहाज दिल्ली के पालम एयरपोर्ट पर उतरा, तो मोदी ने प्रोटोकॉल तोड़कर पुतिन की अगवानी की। दोनों नेताओं ने स्वागत कार्यक्रम में एक सांस्कृति आयोजन का आनंद लिया और फिर रात्रि भोज के लिए रवाना हुए। खास बात यह है कि किसी समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर नहीं हुए, सिर्फ सहमति पर समझ बनी है -- यह बात घबराए पश्चिमी लोकतंत्रों के लिए राहत भरी रही, खासकर यूरोपियन यूनियन के उन मुल्कों के लिए जिनके नेता अगले महीने गणतंत्र दिवस समारोहों में मुख्य अतिथि बनने जा रहा हैं। यह कि भारत रूसी गठबंधन के आगे नहीं झुकेगा, भले ही उसे सस्ते रूसी तेल की सख्त जरूरत है।
इसलिए कोई हिंदी-रूसी भाई-भाई वाली नारेबाजी नहीं हुई -- यह काफी कुछ अतीत के पुराने दिनों,अच्छे थे या बुरे, जैसा लगा, इस बात पर निर्भर करते हुए कि आप किस की तरफ हैं। इसकी बजाय, रणनीतिक बदलावों के बारे में बहुत बयानबाजी हो रही हैं, कि यह किसी अन्य से रिश्ते की कीमत पर नहीं है। स्पष्टतः, पुतिन मोदी की अमेरिकी समस्या को समझते हैं। वे जानते हैं कि भारत को अमेरिका संग एक व्यापार समझौता की जरूरत है। अगर भारत रूस के साथ अपने रिश्ते को लेकर अमेरिका की चिंता दूर कर दे, तो अगले साल ट्रंप को भारत आने के लिए भी लुभा सकता है। खासकर, अगर इस बीच यूक्रेन पर अमेरिका-रूस समझौता हो जाए तो।
इस निडर, नई मिश्रित दुनिया में, जहां बड़ी ताकतों की छाप बड़ी है, भारत जैसे देशों को मोलभाव करना, किनारे हटना, परे रहना और मध्यस्थता करना सीखना होगा। आज़ादी के बाद शुरुआती मुश्किल दिनों से भारत यही करता था, जब उसने उन ताकतों के आगे झुकने से मना किया, जो भारत को गठबंधन विशेष हेतु लुभा रहे थे। सभी पक्षों के साथ खेलने की यह काबिलियत – सिर्फ़ एक यानि अमेरिका से नहीं, जिससे भारत ने पिछले कुछ सालों में अपना ज्यादा ही दिल लगा रखा है – भारत के लिए न केवल इसलिए कामगर है कि वह एक छोटी ताकत है, बल्कि एक प्राचीन देश है। इसमें जहां उच्च एवं नैतिक आधार का उपदेश देने की काबिलियत है वहीं साम, दाम, दंड, भेद बरतने की भी, राजकाज का आम तरीका, जिसमें मान-मनौव्वल के संग प्रलोभन, दंड और विभाजन भी शामिल है।
मोदी समझते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय छवि बनानी है , तो अपनी आर्थिक ताकत दिखानी होगी। इसके लिए, पुराने वक्त में कभी दोस्त रहे, देंग शियाओ पिंग द्वारा दिए पूर्ण पूंजीवाद के नारे को दिल में रखना होगा और इसे मिश्रित अर्थव्यवस्था का केंद्रीय सिद्धांत बनाना होगा। उनका यह कथन भी:‘जब तक बिल्ली चूहे पकड़ने लायक है, उसका रंग मायने नहीं रखता,’।
यह दौरा मोदी और पुतिन, दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण है। इसने रूसी राष्ट्रपति को दुनिया को यह संदेश देने लायक बनाया कि तमाम पश्चिमी पाबंदियों के बावजूद, रूस अलग-थलग नहीं है। उन्हें मोदी का शुक्रिया अदा करना चाहिए। भारत दौरे से पुतिन ने अपने बढ़िया दोस्त, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को माओ के कथन ‘सौ फूल िखलने दो’ के जरिए यह संदेश दिया है कि बगीचे में और भी फूल खिले हुए हैं– यानि भारत।
अर्से बाद, अब ऐसा लगा कि भारत अपना वजूद दर्शा रहा है। भले ही प्रधानमंत्री मोदी ने पुतिन का स्वागत एक पुराने दोस्त की भांति किया, लेकिन नज़र परिदृश्य में मौजूद दूसरे दोस्तों पर भी उतनी रखी। बहुध्रुवीय – या गुट-निरपेक्षता – का संदेश साफ़ है।
लेखिका 'द ट्रिब्यून' की प्रधान संपादक हैं।

