राजकुमार सिंह
परिवारवाद की बुनियाद पर बने और टिके क्षेत्रीय दल बदलते वक्त के साथ कैसे रिश्तों का दलदल बन जाते हैं, लोक जनशक्ति पार्टी यानी लोजपा का सत्ता संघर्ष इसका नवीनतम उदाहरण है। रामविलास पासवान के निधन के साल भर के अंदर ही लोजपा के नेतृत्व को लेकर भाई पशुपति कुमार पारस और पुत्र चिराग पासवान यानी चाचा-भतीजा के बीच संघर्ष सड़क से संसद और चुनाव आयोग तक पहुंच गया है। अतीत में ऐसे संघर्षों में अक्सर बाजी भतीजे मारते रहे हैं, लेकिन इस बार फिलहाल चाचा भारी पड़ते दिख रहे हैं। समाजवादी-लोकदली पृष्ठभूमि के बिहार के जुझारू दलित नेता रामविलास पासवान ने तब लोजपा का गठन किया था, जब गैर कांग्रेसवादी राजनीति के नाम पर बना जनता दल अपने ही क्षत्रपों के अहं और स्वार्थों के टकराव के चलते कबीलों में बंटने लगा। कांग्रेसी राजनीति के विरोध के हमेशा दो मुख्य आधार रहे: परिवारवाद और भ्रष्टाचार। भ्रष्टाचार का कोई सीधा और गंभीर आरोप तो दिवंगत रामविलास पासवान पर नहीं लगा, पर लोजपा उनके परिवार और रिश्तेदारों के दायरे से बाहर नहीं निकल पायी। एक समय था, जब लोजपा के लोकसभा में दो ही सदस्य होते थे: एक स्वयं रामविलास और दूसरे उनके छोटे भाई पशुपति कुमार पारस। गठबंधन राजनीति की बिसात के जरिये जब सांसदों-विधायकों की संख्या बढ़ी तो उसमें रिश्तेदार और उनके परिजन भी बढ़ते गये।
बेशक रामविलास पासवान की गिनती भारतीय राजनीति के ऐसे मौसम विज्ञानियों में होती रही, जो चुनाव से पहले ही हवा का रुख भांप कर पाला बदलते हुए पिछले तीन दशकों में कमोबेश हर केंद्र सरकार में मंत्री बनने में सफल रहे। इसके बावजूद रामविलास की दलित हितों और सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता पर संदेह करना उचित नहीं होगा। बिहार दिवंगत उपप्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम सरीखे दिग्गज दलित नेता की जन्मभूमि और कर्मभूमि रहा है। उनके वारिस के रूप में पहले पुत्र सुरेश और फिर पुत्री मीरा कुमार राजनीति में भी आये। मीरा कुमार कांग्रेस सरकार में केंद्र में मंत्री और लोकसभा अध्यक्ष भी रहीं। उसी बिहार में मीरा कुमार की राजनीतिक सक्रियता के बीच ही दलित नेता के रूप में अपनी ऐसी पृथक पहचान बना लेना, जो बाद में पृथक दल का भी आधार बन सके, रामविलास पासवान की राजनीतिक सजगता-सक्रियता का भी प्रमाण है। आज उन्हीं की राजनीतिक विरासत को लेकर परिवार में जंग छिड़ी है तो इसे सत्ता केंद्रित राजनीति की स्वाभाविक विद्रूप परिणति ही माना जा सकता है।
रामविलास के छोटे भाई पशुपति लंबे समय से राजनीति में हैं। बेशक उनके राजनीतिक कौशल की असली परीक्षा अभी होनी शेष है, लेकिन अनुभव निश्चय ही उनके पास है। इसके बावजूद रामविलास ने अपने राजनीतिक वारिस के रूप में पुत्र चिराग को ही चुना, जो बॉलीवुड से किस्मत आजमा कर नाकाम लौटे थे, तो इसे पुत्र मोह ही कहा जायेगा, जो परिवारवाद का सबसे संवेदनशील रिश्ता है। पिछले लोकसभा चुनाव में चिराग पहली बार संसद के लिए चुने गये। रामविलास ने अपने जीवनकाल में ही उन्हें लोजपा की कमान भी सौंप दी, लेकिन सच यही है कि चिराग की राजनीतिक चतुराई और क्षमता की असली परीक्षा अभी शेष है। पिछले साल हुए बिहार विधानसभा चुनाव में चिराग की लोजपा की भूमिका समाचार माध्यमों में सुर्खियां बटोरने तक ही सीमित रही। चिराग का दावा है कि अस्वस्थ रामविलास ने उन्हें नीतीश कुमार की पराजय सुनिश्चित करने को कहा था। जाहिर है, इस दावे की पुष्टि या खंडन करने वाला और कोई नहीं है।
बेशक राजग में रहते हुए भी बिहार विधानसभा चुनाव में ज्यादातर सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने वाली लोजपा को मिले लगभग छह प्रतिशत मतों और नीतीश के जद-यू की सीटों में आयी भारी गिरावट का श्रेय चिराग ले सकते हैं, लेकिन वह खुद आज कहां खड़े हैं? दावे से तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन आंकड़े यही संकेत देते हैं कि अगर चिराग बिहार को नीतीश मुक्त कराने के लिए विधानसभा चुनाव में राजद-कांग्रेस महागठबंधन के साथ आने का साहस दिखा पाते तो शायद आज वहां की राजनीतिक तस्वीर कुछ और होती। क्या यह चिराग की राजनीतिक समझ पर सवालिया निशान नहीं है? जैसा कि शुरू में ही कहा गया है, परिवार केंद्रित राजनीतिक दलों की यही विडंबना होती है कि परिजनों की उच्च सत्ता महत्वाकांक्षाएं ही उनके लिए ग्रहण बन जाती हैं। कई बार विधायक-मंत्री-सांसद रह चुके पारस और उनके परिजनों के मन में भी सत्ता महत्वाकांक्षाएं हिलोरें मारने लगी हों, तो आश्चर्य कैसा? अभी कुछ साल पहले ही हमने उत्तर प्रदेश में भी देखा कि कैसे मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी की विरासत को लेकर उनके जीवनकाल में ही चाचा-भतीजे में खुल कर जंग चलती रही है। मुलायम के राजनीतिक सफर में छोटे भाई शिवपाल हमेशा साथ रहे। संगठनात्मक ढांचा तैयार करने और धरातल पर चुनावी बिसात बिछाने में शिवपाल की अहम भूमिका रहती थी। खुद सपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बन कर मुलायम ने शिवपाल को उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष भी बना दिया। संभव है, शिवपाल के मन में मुलायम का राजनीतिक उत्तराधिकारी बनने की महत्वाकांक्षाएं जोर मारने लगी हों, पर 2012 में जब मौका आया तो मुलायम ने मुख्यमंत्री पद पर बेटे अखिलेश की ताजपोशी करने में वक्त नहीं गंवाया। चाचा-भतीजे की जंग में मुलायम भाई के साथ होने का आभास अंत तक देते रहे, लेकिन जब मुठ्ठी खुली तो भ्रातृत्व प्रेम पर पुत्र मोह ही भारी पड़ा। मुख्यमंत्री रहते अखिलेश इस जंग में भारी पड़े, लेकिन अंतत: पार्टी और परिवार में विभाजन ने उनकी भी सत्ता से विदाई में भूमिका निभायी ही।
चाचा-भतीजे की ऐसी ही जंग हरियाणा में भी जारी है। कभी उत्तर भारत की गैर कांग्रेसी राजनीति को प्रभावित करने वाले चौधरी देवीलाल की तीसरी–चौथी पीढ़ी में छिड़े सत्ता संघर्ष ने पार्टी ही नहीं, परिवार को भी विभाजित कर दिया। एक समय ऐसा लग रहा था कि वर्ष 2005 में सत्ता से बेदखल हुआ इनेलो, बसपा से गठबंधन की बदौलत, 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के विरुद्ध हरियाणा में सत्ता का दावेदार बन सकता है, लेकिन 2018 में ही चौटाला परिवार और पार्टी में पड़ी दरार ने पूरा राजनीतिक परिदृश्य बदल दिया। ओमप्रकाश चौटाला और उनके बड़े बेटे अजय के शिक्षक भर्ती घोटाले में जेल चले जाने के बाद इनेलो की राजनीति छोटे बेटे अभय के इर्दगिर्द ही घूम रही थी। बेशक 2014 में अजय के बेटे दुष्यंत हिसार से लोकसभा के लिए चुन लिये गये थे, लेकिन कहीं-न-कहीं राजनीतिक विरासत की जंग भी छिड़ चुकी थी, जो 2018 के अंत में खुल कर सामने आ गयी। चौटाला अभय के साथ मजबूती से डटे रहे और अजय के परिवार ने अलग पार्टी जजपा बना ली। चुनावी समीकरण कुछ ऐसे बने कि पिछली बार का मुख्य विपक्षी दल इनेलो एकमात्र सीट पर सिमट गया और जजपा 10 सीटें जीत कर उसी भाजपा के साथ सत्ता में भागीदार बन गयी, जिसके विरुद्ध चुनाव लड़ी थी।
सत्ता राजनीति के लिए ऐसे ही पारिवारिक संघर्ष के साक्षी पंजाब में शिरामणि अकाली दल और महाराष्ट्र में शिवसेना भी रहे हैं। भाई गुरदास बादल के पुत्र मनप्रीत कभी अकाली सुप्रीमो प्रकाश सिंह बादल के बेहद भरोसेमंद रहे, लेकिन जब अपने बेटे सुखबीर बादल को विरासत सौंपने का वक्त आया तो मनप्रीत को पहले पीपुल्स पार्टी ऑफ पंजाब बनानी पड़ी और अंतत: कांग्रेस का हाथ थामना पड़ा। महाराष्ट्र में बहुत से लोग भतीजे राज ठाकरे में शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे की छवि देखते थे, मोर्चे पर वह अग्रणी भी नजर आते थे, लेकिन विरासत का सवाल आया तो बेटे उद्धव ठाकरे से पीछे छूट गये और तब से महाराष्ट्र नव निर्माण सेना बनाकर अपनी राजनीति की राह तलाश रहे हैं। यह फेहरिस्त बहुत लंबी बन सकती है, क्योंकि परिवार केंद्रित दलों के आंतरिक सत्ता संघर्ष के इस दलदल के मामले में कश्मीर से कन्याकुमारी तक पूरा भारत एक है। सत्ता की खातिर यहां पल भर में बदल जाते हैं रिश्ते!
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