शब्द-भ्रम की कला में माहिर बयानवीर
बयान देना, पुराने ज़माने जैसी परम्परा, ज़बान देने जैसा तो होता नहीं कि मुकर जाओ तो फज़ीहत हो जाएगी। अब तो कदम कदम पर बिगड़ी ज़ुबानें हैं तभी तो बयान को जब चाहे वापस लेने, तोड़ने-मरोड़ने या उसका रंग-ढंग बदल सकने की सुविधा है।
किसी बात को सिर्फ कह देना अब काफी नहीं है। बयान देना ज़रूरी है। इससे बात का जानदार बतंगड़ बनाने में आसानी हो जाती है। इतिहास के किसी पन्ने पर भी अंकित हो ही जाता है बयान। कभी ज़रूरत पड़े तो गर्व से कहा जा सकता है, हमने तो पहले ही कहा था। एक-दूसरे से प्रेरित होकर बयान देने वाले, बयान दागने वाले, बयान की निंदा करने वालों की जमात बढ़ रही है ।
किसी और के बयान की ज़ोरदार निंदा करते हुए बयान आता है, उनका रवैया बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। उनका रवैया दोहरा है। अनेक बयानवीर एकता, एकजुटता, सामूहिक इच्छाशक्ति, सामूहिक प्रतिक्रिया और निरंतर संवाद की वकालत करते हैं। बयान देने वाले या लेने वाले ने व्यावहारिक रूप से कुछ करना नहीं होता। अपने गिरेबान में नहीं दूसरों के गिरेबान में झांकना होता है। बयान में यह खुली स्वतंत्रता होती है कि स्वर्ग या नरक, पता नहीं कहां गए या जीवित व्यक्ति, शासक, राजा पर टिप्पणी करते हुए ईंट, पत्थर, रोड़ों को भी नहीं बख्शना ।
बयान देने के फायदे बहुत हैं और अगर बयान की वीडियो भी जारी कर वायरल करवा दी गई है तो वारे न्यारे हैं। बयान असामाजिक, अधार्मिक, गैर-जिम्मेदाराना और अनैतिक हैं तो महा वारे-न्यारे हो सकते हैं। राजनीतिक बयान है तो नायक बन सकते हैं। राजनीति में नहीं हैं तो व्यावसायिक पार्टियां, चाय पर नहीं सीधे खाने और खिलाने पर बुला सकती हैं। फिर बयान के वस्त्र और जूते बदलवाकर, बाल कटवाकर पुन: जारी करती हैं ।
कितनी बार ऐसा होता है कि बयान इतने ऊंचे या गहरे स्रोत से आता है कि उसके कितने ही अर्थ और अनर्थ निकाले जाते हैं। फिर बयान आता है कि बयान को तोड़ मोड़कर पेश किया गया। बयान देने वालों को सुविधा रहती है कि कुछ दिन तक हलचल, शोरशराबा मचाकर बयान वापस भी ले लो। अब तो इस सुविधा का फायदा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ज़ोरदार शोर मचाने वाले, खतरनाक ट्रम्प चालें चलने वाले भी उठा रहे हैं। जब चाहें जो मर्जी बयान देते हैं और जब दिमाग में आया, बयान वापस लेकर, नए आंकड़ों में लपेट कर फिर दे देते हैं।
कितनी ही बार किसी बयान को किसी बड़े मुंह से दिलवा दिया जाए तो बयान की प्रसिद्धि ज्यादा बढ़ जाती है। बयान देना, पुराने ज़माने जैसी परम्परा, ज़बान देने जैसा तो होता नहीं कि मुकर जाओ तो फज़ीहत हो जाएगी। अब तो कदम कदम पर बिगड़ी ज़ुबानें हैं तभी तो बयान को जब चाहे वापस लेने, तोड़ने-मरोड़ने या उसका रंग-ढंग बदल सकने की सुविधा है। कुछ भी हो जी, बयान तो वही बढ़िया होता है जिसके साथ जब चाहें, जैसा मर्जी खेल, खेल सकें।