संतोष उत्सुक
लेखकों, किताबों व प्रकाशकों का मेला वास्तव में वर्चुअली संपन्न हो गया। सरकारी कला, साहित्य एवं संस्कृति अकादमियों ने अपना काम पहले से ही वर्चुअली चला रखा है। फेसबुक, व्हाट्सएप, अखबार और अन्य मंचों पर चिरपरिचित और अति अपरिचित व्यक्तियों, लेखकों और साहित्यकारों की लाखों रचनाएं वर्चुअल देखकर वर्चुअली मज़ा आ रहा था, जिसे इस मेले से राष्ट्रीय विस्तार मिला। पहले लग रहा था देश के कर्णधारों द्वारा आयोजित किए जा रहे भीड़ मेलों से प्रेरित हो इस बार मेला शारीरिक दूरी को सामाजिक दूरी कहते और समझते हुए सशरीर आयोजित किया जाएगा।
कई साल से देख रहा हूं कि किसी की भी पहली पुस्तक वहां मशहूर हाथों से रिलीज़ हो रही है। अनुभवी लेखक की तीसवीं पुस्तक तो वहीं होनी होती है। माना जाता है कि विचारोत्तेजक, प्रखर लेखन से समाज में परिवर्तन आता है तो दर्जनों पुस्तकें लिखने वालों ने काफी ज्यादा बदलाव ला दिया होगा। ऐसे में क्रान्ति की चाहत रखने वाले आम व्यक्ति के हाथ में भी लेखन का कीड़ा घुस जाता होगा। कुछ लोग चुटकी ले रहे होंगे कि फलां लेखक का अमुक यशस्वी लेखक के साथ प्रसिद्ध प्रकाशक के स्टाल पर फोटो खिंचवाना इस बार रह गया। लेखक दिखने के लिए भी नहीं जा सके, दूसरों के लड्डू और बर्फी खाने फेसबुकिया या व्ह्त्सेपिया मित्र लेखक भी मिलने से रह गए।
ताज़ा सुन्दर किताबें, स्थापित चेहरे और व्यावसायिक लेखकों के साथ फोटो व सेल्फियां कम खिंचने पर उदासी रही होगी। यह तो हमारी साहित्यिक परम्परा है कि किताब या लेखक से मिलकर हम सोचते हैं कि काश! हम भी लेखक होते। कुछ लेखक वहां पहुंचकर राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध लेखक, विमोचक या मुख्यमंत्री या फिर राज्यपाल के प्रसिद्ध हाथों से पुस्तक का विमोचित पैकेट खुलवाने की तुलना न कर सके। किसी भी मुख्यमंत्री के हाथों विमोचित होने से किताब आजकल ज्यादा खुश हो सकती है क्योंकि यह अभी भी एक्चुली संभव है। वैसे पुस्तक लिखना, छपवाना और विमोचन करवाना आसान है लेकिन पाठक, मित्रों या सरकार को बेचना मुश्किल है। लगता है वहां सभी एक-दूसरे से असली प्यार से, असली गले मिलकर असली खुश होते हैं।
छोटे शहर की साहित्यिक दुनिया की तरह लेखक, वहां बड़े खेमों में बंटे नहीं होते लेकिन इस बार सभी को उन्हीं पुराने खेमों में घुसना होगा या अपने घर के तंबू में रहना होगा। उनमें ईर्ष्या, एक-दूसरे को खारिज करने जैसी कुभावनाएं भी उगने से बच गईं। कई बार किताबें भी एक-दूसरे को देखकर नाराज़ हो जाती थी। इस बार वो भी नहीं हुआ। कुल मिलाकर अच्छा ही रहा, मेला वर्चुअली आयोजित हुआ, कई तरह के गलत कीटाणु एक से दूसरे के दिमाग में प्रवेश करने से रह गए।