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कड़वाहट से मुक्ति के लिये सम्मानजनक अलगाव

नो-फॉल्ट तलाक
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शिल्पा बनाम वरुण श्रीनिवासन (2023) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत, ‘अपरिवर्तनीय वैवाहिक विच्छेद’ के आधार पर सीधे तलाक को मंज़ूरी दी थी। इसे ‘नो-फॉल्ट’ सिद्धांत की दिशा में एक बड़ा और प्रगतिशील कदम माना गया।

डॉ. सुधीर कुमार

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आज के बदलते सामाजिक परिवेश में, जहां रिश्ते जटिल होते जा रहे हैं, तलाक एक ऐसी सच्चाई है जिससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। भारत में तलाक की प्रक्रिया अक्सर लंबी, तनावपूर्ण और आरोप-प्रत्यारोप से भरी होती है। यह न केवल पति-पत्नी बल्कि उनके बच्चों और परिवारों के लिए भी भावनात्मक और आर्थिक बोझ बन जाती है। पारंपरिक तलाक कानूनों में, तलाक तभी दिया जाता है जब एक पक्ष दूसरे पक्ष पर ‘गलती’ (जैसे व्यभिचार, क्रूरता, परित्याग) साबित करे। इसमें अक्सर एक लंबी और थकाऊ कानूनी लड़ाई शामिल होती है, जिसमें दोनों पक्षों को एक-दूसरे पर आरोप लगाने पड़ते हैं, जिससे कड़वाहट और दुश्मनी बढ़ती है।

इसके विपरीत, ‘नो-फॉल्ट’ तलाक में, तलाक के लिए किसी भी पक्ष को दूसरे की गलती साबित करने की आवश्यकता नहीं होती। उन्हें बेवफाई, क्रूरता या परित्याग जैसे विशिष्ट कारणों को साबित करने की आवश्यकता नहीं होती। यह इस सिद्धांत पर आधारित है कि यदि विवाह अपरिवर्तनीय रूप से टूट गया है और सुलह की कोई संभावना नहीं है, तो दोनों पक्षों को सम्मानपूर्वक अलग होने की अनुमति दी जानी चाहिए। इसका मुख्य आधार ‘अपरिवर्तनीय रूप से टूट चुका विवाह’ होता है। ऐसे में, विकसित देशों के अनुभवों से सीखना महत्वपूर्ण हो जाता है, जहां ‘नो-फॉल्ट’ तलाक एक सफल मॉडल साबित हुआ है।

विकसित देशों जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, यूनाइटेड किंगडम और ऑस्ट्रेलिया में ‘नो-फॉल्ट’ तलाक ने कई सकारात्मक परिणाम दिखाए हैं। सबसे पहले, इसने तलाक की प्रक्रिया को काफी सरल और तेज बना दिया है। अदालती कार्यवाही कम होती है, जिससे समय और धन दोनों की बचत होती है। दूसरा, यह प्रक्रिया को कम विरोधी बनाता है। जब किसी एक पक्ष पर दोष नहीं लगाया जाता, तो कटुता और प्रतिशोध की भावना कम होती है, जिससे बच्चों के लिए बेहतर माहौल बनता है और भविष्य में सह-पालन की संभावना बढ़ जाती है। तीसरा, यह महिलाओं को सशक्त बनाता है। पारंपरिक तलाक कानूनों में अक्सर महिलाओं को अपनी स्थिति साबित करने के लिए अतिरिक्त बोझ उठाना पड़ता था, लेकिन ‘नो-फॉल्ट’ तलाक उन्हें इस बोझ से मुक्त करता है।

भारत में वर्तमान में तलाक के लिए विभिन्न आधार उपलब्ध हैं और हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत आपसी सहमति से तलाक (धारा 13 बी) शामिल हैं। आपसी सहमति से तलाक 'नो-फॉल्ट' सिद्धांत के करीब है, लेकिन इसमें भी कुछ शर्तें और प्रतीक्षा अवधि शामिल है। भारत में तलाक से संबंधित मौजूदा कानून, जैसे कि हिंदू विवाह अधिनियम, अभी भी काफी हद तक ‘फॉल्ट-आधारित’ है। जबकि आपसी सहमति से तलाक का प्रावधान है, यह तभी संभव है जब दोनों पक्ष सहमत हों और एक निश्चित अवधि तक अलग रह चुके हों। लेकिन अगर एक पक्ष तलाक नहीं चाहता, तो दूसरे पक्ष को क्रूरता, व्यभिचार, परित्याग या मानसिक बीमारी जैसे आधारों पर दोष साबित करना पड़ता है। यह प्रक्रिया अक्सर अपमानजनक और लंबी खींचने वाली होती है, जिससे दोनों पक्षों को मानसिक और भावनात्मक आघात पहुंचता है।

शिल्पा शैलेश बनाम वरुण श्रीनिवासन (2023) का मामला भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुआ। इस महत्वपूर्ण मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी असाधारण शक्तियों का प्रयोग करते हुए, ‘अपरिवर्तनीय वैवाहिक विच्छेद’ के आधार पर सीधे तलाक को मंज़ूरी दी। यह निर्णय इस मायने में उल्लेखनीय था कि यह ऐसे समय में आया जब तलाक के लिए कानून में ‘अपरिवर्तनीय वैवाहिक विच्छेद’ का कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं था। सुप्रीम कोर्ट के इस कदम को ‘नो-फॉल्ट’ सिद्धांत की दिशा में एक बड़ा और प्रगतिशील कदम माना गया। इसका अर्थ यह है कि तलाक के लिए अब किसी भी पक्ष द्वारा विशेष दोष साबित करने की आवश्यकता नहीं होगी, बल्कि केवल यह तथ्य कि विवाह पूरी तरह से टूट चुका है और उसमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है, तलाक के लिए पर्याप्त आधार होगा।

संयुक्त परिवार प्रणाली के कमजोर पड़ने के साथ, व्यक्ति अधिक आत्मनिर्भर हो रहे हैं और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को महत्व दे रहे हैं। महिलाएं अब आर्थिक रूप से अधिक स्वतंत्र हैं और इसलिए वे ऐसे रिश्तों में बंधे रहने को तैयार नहीं हैं जो उन्हें खुश नहीं रखते। ‘नो-फॉल्ट’ तलाक इस तनाव को कम करने में मदद कर सकता है। जब माता-पिता आरोप-प्रत्यारोप में उलझे रहते हैं तो इसका सबसे बुरा असर बच्चों पर पड़ता है। एक आसान और कम तनावपूर्ण तलाक प्रक्रिया बच्चों के लिए बेहतर भविष्य सुनिश्चित करती है। साथ ही, अदालतों पर बढ़ते मुकदमों का बोझ भी इस बात पर विचार करने के लिए मजबूर करता है कि क्या तलाक प्रक्रियाओं को सरल और कम तनावपूर्ण बनाया जा सकता है।

‘नो-फॉल्ट’ तलाक को पूरी तरह से अपनाने में कई चुनौतियां हैं। सबसे पहले, संपत्ति का बंटवारा और गुजारा भत्ता निष्पक्ष होना चाहिए, विशेषकर कमजोर पक्ष के लिए। दूसरा, बच्चों का कल्याण और उनकी परवरिश सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए, जिसके लिए स्पष्ट दिशानिर्देशों की आवश्यकता है ताकि कोई भी पक्ष वंचित न रहे। तीसरा, भारतीय समाज में धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं का गहरा प्रभाव है, इसलिए इन संवेदनशीलताओं का ध्यान रखना ज़रूरी है। अंत में, यह सुनिश्चित करना होगा कि ‘नो-फॉल्ट’ तलाक का दुरुपयोग न हो।

लेखक कुरुक्षेत्र वि.वि. के विधि विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं।

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