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देश में जरूरी सद्भाव की सोच का सम्मान

खेल में जीत के लिए निजी कौशल के साथ टीम भावना आवश्यक होती है। सोहार्द व एकजुटता यादगार भारत-इंग्लैंड टेस्ट सीरीज़ में देखने को मिली। जिसका प्रतीक था, प्रसिद्ध कृष्णा , मोहम्मद सिराज और शुभमन गिल जीत के बाद साथ-साथ...
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खेल में जीत के लिए निजी कौशल के साथ टीम भावना आवश्यक होती है। सोहार्द व एकजुटता यादगार भारत-इंग्लैंड टेस्ट सीरीज़ में देखने को मिली। जिसका प्रतीक था, प्रसिद्ध कृष्णा , मोहम्मद सिराज और शुभमन गिल जीत के बाद साथ-साथ चलना। इसमें मोहम्मद सिराज का प्रदर्शन और जज्बा काबिले तारीफ हैं। हम साथ खेल सकते हैं, दुख-सुख बांट सकते हैं तो रह भी सकते हैं।

ऐसा कम ही होता है कि कोई खेल प्रतियोगिता जिंदगी भर याद रखने योग्य आयोजन में बदल जाए, और एक ऐसी प्रासंगिकता और संदर्भ प्रदान कर दे जो जनता का मनोरंजन करने में उत्कृष्टता पाने के मूल उद्देश्य से परे निकल जाए। जॉर्ज ऑरवेल की सारगर्भित लेकिन गहन टिप्पणी ः ‘बिना गोलीबारी का युद्ध’ अब एक घिसी-पिटी सूक्ति बन चुकी है, जिसका उपयोग तब किया जाता है जब प्रतिस्पर्धी दो देशों के बीच तनातनी हो और जिसमें तथाकथित ‘राष्ट्रीय गौरव’ दांव पर लगा हो। यदि हम आपको एक ऐसे युद्धक्षेत्र में नहीं हरा सकते, जिसमें हर तरफ खून-खराबा हो, तो ऐसी लड़ाई में हराना चाहेंगे जो आपकी शारीरिक क्षमताओंं को चुनौती देने के लिए डिज़ाइन किए गए औजारों और उस खेल के विशिष्ट कौशल प्रशिक्षण के दम पर लड़ी जाएगी।

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खेल और युद्ध के बीच इस काफी जायज एवं विचारोत्तेजक समरूपता की खोज करते वक्त, हम खेल के एक अन्य बहुत बुनियादी पहलू को भूल जाते हैं। वो यह कि एक टीम के रूप में काम करने के लिए, वह जो जीत का लक्ष्य सफलतापूर्वक प्राप्त कर ले, आपको निजी कौशल के साथ-साथ टीम भावना की भी उतनी ही आवश्यकता होती है, बार-बार दोहराया जाने वाला यह शब्द वास्तव में जीत और हार के बीच अंतर बना देता है। सामंजस्य, सद्भाव, एकजुटता और एक इकाई के रूप में खेलना, ये शब्द उस कट्टर संशयवादी को गूढ़ लग सकते हैं, जो एक ऐसी दुनिया में रमा हुआ है, जिसको वह केवल अपनी, अपनी संस्कृति और धर्म के लिए ही बनी मानता है। हालांकि, वास्तविक दुनिया में, चाहे वह खेल का मैदान हो या जीवन को कोई भी क्षेत्र, हमारा वजूद इसलिए है क्योंकि हम साथ-साथ रहते हैं और एक-दूजे पर किसी पहचान विशेष का चिन्ह देखकर नहीं, बल्कि इंसान के तौर पर निर्भर हैं।

एकजुटता, सामंजस्य और सद्भाव की इस भावना को क्रिकेट जैसे खेल से ज्यादा बेहतर और कोई नहीं दर्शाता, और यह हमें हालिया भारत-इंग्लैंड टेस्ट सीरीज़ में देखने को मिली, जो खेल जगत का अस्तित्व कायम रहने तक याद रखी जाएगी। गोलीबारी विहीन इस ‘युद्ध’ में, जहां ऋषभ पंत पैर में फ्रैक्चर के बावजूद बल्लेबाजी करने उतरे वहीं क्रिस वोक्स ने स्वेटर के तले अपने उतरे हुए कंधे को बांधकर, एक हाथ में बल्ला पकड़कर खेलने की हिम्मत दिखाई। कहा जाए तो, यह दोनों अपनी-अपनी टीमों के लिए मर-मिटने को तैयार थे।

अत्यधिक शारीरिक दमखम की मांग करने वाली इस 25 दिवसीय क्रिकेट प्रतियोगिता में, एक शख्स, मोहम्मद सिराज, अपनी अद्भुत ऊर्जा, सहनशक्ति, लचीलेपन, दृढ़ संकल्प, आत्मविश्वास, अद्भुत कौशल एवं अपनी खेल कला पर नियंत्रण की वजह से सबसे अलग नज़र आए। जब भी भारत को स्थिति पर काबू बनाने की ज़रूरत होती, वह मौजूद थे। जब भी भारत को विकेटों की ज़रूरत होती, वह मौजूद थे। जब भी भारत को किसी जादू की ज़रूरत होती, वह मौजूद थे। तेज़ गेंदबाज़ी करने के लिए ताकत चाहिए होती है। और इस गति पर गेंद को स्विंग करने के लिए कौशल। लाइन और लेंथ पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए सालों-साल के अभ्यास की ज़रूरत होती है। और इन 25 दिनों में, जब आपके साथी ड्रेसिंग रूम में अपना-अपना शरीर संभालने को मजबूर थे, कुछ की हड्डियां चटखी पड़ी हों और कुछ की मांसपेशियों में खिंचाव हो, तब सिराज ‘वन मैन आर्मी’ की तरह खड़े रहे, अपनी पीठ और अपने विरोधियों की इच्छाशक्ति को झुकाते हुए।

दो शृंखलाओं को परिभाषित करने वाली छवियों का केंद्र बिंदु बनने के लिए कुछ असाधारण और अलग होना ज़रूरी है - एक निराशा भरी और दूसरी उत्साहजनक खुशी से लबरेज़। लॉर्ड्स के मैदान का वह दृश्य जब आउट होने के बाद सिराज घुटनों के बल बैठे हुए, नज़रें ज़मीन पर गड़ी हुई, हाथ में बल्ला, चेहरे पर मायूसी, और पीछे विकेट पर से गिल्ली उड़ी हुई। यह हार विनाशकारी थी और सिराज का वह अक्स इसका एक प्रतीक बना।

लेकिन ओवल में, वही सिराज हार की उस पटकथा को जीत के एक हर्षोल्लासपूर्ण जश्न में बदलते दिखाई दिए। इस शृंखला में उनकी 1,113वीं गेंद, बेहतरीन लेंथ और गति वाली यॉर्कर, जो गस एटकिंसन के बल्ले के नीचे से घुसती चली गई और ऑफ स्टंप चक्कर खाते हुए हवा में उछल गई और इसने भारत को शृंखला में बराबरी बनाने वाली शानदार जीत दिलाई। एक व्यक्ति वह सिराज़ है जो नाना भावनाओं से युक्त, चेहरे पर गुस्सा और सुलगती आंखें जो किसी भी बल्लेबाज के शरीर में सिहरन और मन में यह डर जगा दे कि आगे पता नहीं क्या होने वाला है। और यही बंदा वह सिराज़ भी है, जिसकी मुस्कान इतनी प्यारी है जिसके लिए दुनिया के दूसरे सबसे ज़्यादा रन बनाने वाले खिलाड़ी जो रूट ने इस प्रशंसात्मक लहज़े में कहा - उसका गुस्सा बनावटी है।

क्या सिराज को बुरा लगा या गुस्सा आया होगा जब जय शाह, जो न केवल भारतीय क्रिकेट बल्कि विश्व क्रिकेट को नियंत्रित करते हैं, उन्होंने बर्मिंघम टेस्ट के बाद भारत की जीत में योगदान के लिए भारतीय टीम और कुछ अन्य खिलाड़ियों की प्रशंसा करने वाला ट्वीट किया, लेकिन उसमें सिराज का जिक्र नदारद था? रिकॉर्ड के लिए, सिराज ने पहली पारी में 6 विकेट झटके थे। हम इसे एक मानवीय भूल मान कर रफा-दफा कर देते, अगर हम ऐसे समय में नहीं जी रहे होते जहां एक खास अल्पसंख्यक समुदाय से होने का मतलब है अंतहीन भेदभाव, ट्रोल्स की फौज और देश के प्रति उनकी ‘वफ़ादारी’ पर बार-बार उठते सवाल झेलना।

क्या उन्हें तब भी बुरा लगता होगा जब उन्हें नई गेंद डालने का मौका नहीं दिया जाता, यहां तक कि जसप्रीत बुमराह की अनुपस्थिति में भी? क्या उन्हें भी वैसा ही महसूस होता है जैसा कि एक प्रमुख अखबार ने सचिन तेंदुलकर के हवाले से लिखा: ‘उन्हें वह श्रेय नहीं दिया जा रहा जिसके वे हकदार हैं’? हमें आश्चर्य होगा यदि वे उस नफ़रत और कटुता की दुनिया से अछूते रहें जो हमने अपने चारों ओर फैला रखी है, जिसने उस भारत के मूल विचार को ही कमज़ोर कर दिया है जिसकी कल्पना हमने 1947 में की थी : भारत का नेहरूवादी विचार, जहां एक मुसलमान, इफ़्तिख़ार अली खान को 1946 के इंग्लैंड दौरे पर भारतीय टीम का कप्तान नियुक्त किया गया था ताकि दुनिया को यह संदेश दिया जा सके कि स्वतंत्र भारत एक गौरवशाली धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होने जा रहा है।

ऐसे प्रतिष्ठित मुस्लिम क्रिकेटरों की एक लंबी सूची है जिन्होंने अपनी धार्मिक पहचान पर सवालिया निशान लगवाए बिना भारत के लिए खेला है। टीम के सदस्यों के बीच सौहार्द और टीम भावना का प्रदर्शन देखकर बहुत खुशी हुई, जो एक बेहतर भविष्य की आशा जगाती है। इस अभूतपूर्व टेस्ट सीरीज़ की आखिरी तस्वीर जो हमेशा हमारे ज़ेहन में रहेगी, वह है प्रसिद्ध कृष्णा (हिंदू), मोहम्मद सिराज (मुस्लिम) और शुभमन गिल (सिख) का जीत के बाद खुशी में हाथ में हाथ डाले चलना।

जब हम साथ खेल सकते हैं, साथ में गम मना सकते हैं और साथ होकर जश्न मना सकते हैं, तो हम साथ रह भी सकते हैं।

लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं।

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