आर. कुमार
यदि आबादी के बड़े हिस्से को कोविड-19 प्रतिरोधी दवा लगा दी जाए तो इसको अपना फैलाव करने हेतु नए मानव शरीर नहीं मिल पाएंगे, जिससे समाज इस अलामत से निजात पा सकेगा। हालांकि, इसको लेकर कुछ संशय भी कायम हैं, क्योंकि जब वैक्सीन स्वस्थ लोगों को दी गई तो कुछेक की मौत अतिरंजित प्रतिक्रिया (एनाफिलेक्सिस) से हुई बताई गयी है और कुछ व्यक्तियों में अन्य दुष्प्रभाव और एलर्जी जैसे लक्षण पैदा होने की सूचनाएं हैं।
अध्ययन बताता है कि जिन लोगों को पहले कोरोना हो चुका है उनके शरीर में बनी स्वतः स्फूर्त प्रतिरोधात्मक शक्ति का स्तर 90 दिनों के भीतर कम होने लगता है। तो क्या टीकाकरण के बाद बनी प्रतिरोधात्मकता ज्यादा समय तक टिकी रह पाएगी? संशय व्यक्त करने वालों में अधिकांश धर्मभीरू, किसी खास राजनीतिक विचारधारा वाले, नैतिकतावादी और वे लोग हैं, जिनके पास भारतीयों पर वैक्सीन प्रयोग के तीसरे चरण के आंकड़े नहीं हैं। एक भ्रांति यह भी है कि किसी वैक्सीन से इंसान में नपुंसकता पैदा हो जाती है या इसे अपने धार्मिक विश्वास पर आघात ठहराया जाता है।
कोविड-19 वैक्सीन को विकसित करने में जिस तेजी से काम हुआ है, उसने अनेक भ्रांतियों को भी जन्म दिया है, जिन्होंने आगे संशयों को हवा दी है, खासकर कोविशील्ड और कोवैक्सीन के मामले में, जिन्हें हाल ही में मान्यता मिली है। लेकिन वैक्सीन को लेकर व्याप्त चिंताओं और मौजूदा हिचक के बीच यह खबर जनता के मनोबल को ऊंचा करने में बहुत बड़ा काम करेगी।
लेकिन जब कोरोना वायरस अपनी प्राकृतिक मौत मर रहा है, तो क्या जन-टीकाकरण जैसा जोखिम उठाना सही होगा? क्या थोड़ा रुककर विचार करना ज्यादा ठीक नहीं? क्या कमजोर और बीमार लोग अपनी सीमित रोग प्रतिरोधकता के चलते कोविड वैक्सीन से उत्पन्न होने वाली संभावित प्रतिक्रिया को झेल पाएंगे?
हालांकि, कुछ चिकित्सकों का मानना है कि ज्यादातर लोगों में तीव्र प्रतिक्रिया वाले लक्षण (एनाफिलेक्सिस) पैदा नहीं होंगे और वैक्सीन लगवाने के फायदे जोखिम उठाने की बनिस्बत कहीं अधिक हैं। ब्रिटेन के दवा नियामक का कहना है : ‘आप इत्मीनान रखिए कि यह वैक्सीन नियामक द्वारा स्थापित सुरक्षा, गुणवत्ता और प्रभावशीलता संबंधी कड़े मानदंडों पर खरी उतरी है’।
भारत में कोविड वैक्सीन विकसित करने में 30 से ज्यादा जगहों पर काम चल रहा है, जो विकास के विभिन्न चरणों पर है। पुणे स्थित जेन्नोआ नामक कंपनी, जो एम-आरएनए आधारित एचजीसीओ-19 दवा विकसित कर रही है, उसे काफी सुरक्षित माना जा रहा है क्योंकि इसे गैर-संक्रमित, गैर-संग्रहणीय पाया गया है और मानव शरीर में इसका क्षरण कोशिका तंत्र द्वारा प्राकृतिक रूप में होता है। कुछ अस्पतालों में मोनोक्लोनल एंटीबॉडीस को कोरोना के खिलाफ लड़ाई में नवीनतम हथियार बनाया है। प्रयोगशाला निर्मित यह प्रोटीन वायरस जैसे घातक एंटीजेन्स से लड़ने में शरीर के प्राकृतिक प्रतिरोधक तंत्र की नकल करता है।
भारत में 100 करोड़ से ज्यादा लोगों को एक से ज्यादा दफा टीका लगाना एक दुरूह और अभूतपूर्व चुनौती है। सालों से भारत दुनिया का सबसे बड़ा वैक्सीन निर्माता रहा है और यूनीसेफ को दी जाने वाली कुछ वैक्सीनों का 60 फीसदी से ज्यादा हिस्सा भारत में बनता आया है। पिछले कुछ वर्षों में जैव-विज्ञान विभाग, विज्ञान एवं तकनीक विभाग, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद, राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान परिषद, राष्ट्रीय रोगप्रतिरोधक विज्ञान संस्थान, अखिल भारतीय हैजा एवं आंत्रशोथ रोग संस्थान और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान इत्यादि ने विभिन्न रोगों हेतु स्वदेशी वैक्सीनें विकसित करने के लिए शोधकर्ताओं को आवश्यक जानकारी मुहैया करवाते हुए महत्वपूर्ण साझेदारी और सहयोगात्मक भूमिका निभाई है।
विगत में देश में चेचक, खसरा और पोलियो के वैक्सीन अभियान सफलता की गाथा हैं। पिछले तीन सालों में भारतीय वैक्सीन उद्योग ने कई उपलब्धियां हासिल की हैं। इस उपलब्धि में मुख के माध्यम से दी जाने वाली हैजा रोधक एक नई द्विसंयोजक (बाइवेलेंट) वैक्सीन, दिमागी बुखाररोधी-ए वैक्सीन और जापानी दिमागी बुखार के इलाज वाली वैक्सीन स्वदेश में विकसित की गई हैं। अब कोरोना के लिए अंतर्राष्ट्रीय साझेदारों के साथ संयुक्त उपक्रम में भारतीय दवा निर्माता कंपनियों को लाइसेंस दिया गया है। वर्ष 2009 में एक नई द्विसंयोजक (ओ-1 और ओ-139) दवा जो हैजा पैदा करने वाले समस्त जीवाणुओं को मात्र दो खुराकों में नष्ट कर देती हैं, इनको लाइसेंस दिया गया था। बहुत कम दाम वाली मैनिनजाइटिस-ए नामक प्रभावशाली वैक्सीन, दरअसल विश्वभर में सबसे सस्ती वैक्सीन है और अफ्रीका महाद्वीप के दिमागी बुखार प्रभावित क्षेत्र में इसकी लगभग 10 करोड़ खुराकें आज तक दी जा चुकी हैं।
डॉ. एडवर्ड जेन्नर पहले व्यक्ति थे जिन्होंने गौर किया था कि दूध दुहने वाली जिन औरतों को पहले गो-चेचक (काउपॉक्स) हो चुकी है उन्हें आगे चेचक (स्मालपॉक्स) का रोग प्रभावित नहीं कर पाया। इससे वैक्सीन का विचार उत्पन्न हुआ था। वर्ष 1796 में जेन्नर ने एक बच्चे के शरीर में गो-चेचक का निरापद संस्करण प्रविष्ट किया ताकि उसका शरीर इस वायरस के गुणसूत्र को पहचान कर स्व-रोगप्रतिरोधात्मक शक्ति उत्पन्न कर सके। उन्होंने पाया कि यह बच्चा अनेकानेक चेचक रोगियों से बार-बार संपर्क में आने के बावजूद कभी इससे प्रभावित नहीं हुआ। इस तरह दुनिया की पहली वैक्सीन का आरंभ हुआ था। वर्ष 1853 में जब ब्रिटेन में सरकार ने सभी बच्चों को चेचक का टीका लगाना अनिवार्य बना दिया था, तो इसको लेकर जनाक्रोश पैदा हो गया। आगे चलकर, वैश्विक चेचक रोधी वैक्सीन कार्यक्रम की सफलता की बदौलत विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 1989 में दुनिया को चेचक-रहित घोषित किया था। 20वीं सदी के आरंभ में चेचक का टीका लगाने वाले अभियान को विस्तार मिला। इसके साथ ही भारतीय सैनिकों में टायफॉयड की वैक्सीन के ट्रायल शुरू हुए और भारत के लगभग हर राज्यों में वैक्सीन संस्थान बनाए गए। आजादी के बाद वाले समय में बीसीजी वैक्सीन लैबोरेटरी और अन्य राष्ट्रीय संस्थानों की स्थापना हुई थी। वर्ष 1977 में आखिरकार भारत चेचक-मुक्त घोषित किया गया।
यह वर्ष 1885 की बात है जब फ्रांसीसी वैज्ञानिक लुई पास्चर ने रैबीज़ रोधी वैक्सीन का इजाद किया था। इसी प्रकार वर्ष 1920 के दशक में क्षय रोग, टिटनेस, डिप्थिरिया और काली खांसी की वैक्सीन इजाद हुई। टाइफॉयड की वैक्सीन 19वीं सदी के आखिर में पहले ही विकसित हो चुकी थी।
वर्ष 1944-45 में यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध लड़ रहे अमेरिकी सैनिकों के लिए पहली बार मौसमी फ्लू से बचाव का प्रतिरोधी टीका लगाने का कार्यक्रम चला था। वर्ष 1950 के दशक में पोलियो की वैक्सीन अमेरिकी प्रशासन की पहली प्राथमिकता रही थी। मशहूर गायक एल्विस प्रैस्ली ने प्रयोग के लिए खुद को प्रस्तुत किया था और टेलीविजन के प्राइम टाइम शो में टीका लगवाया था। 1970 के दशक में अमेरिकियों को स्वाइन फ्लू से बचाने के लिए सरकार ने वैक्सीन लगाने का अभियान शुरू किया था, परंतु इसको बीच में रोकना पड़ा था क्योंकि एक तो यह बीमारी वैश्विक महामारी में तब्दील नहीं हो पाई थी दूसरा, जिनको वैक्सीन लगी थी, उनमें दुष्प्रभाव देखे गए।
वर्ष 1998 में प्रतिष्ठित लांसेट मेडिकल जर्नल में छपे एक अध्ययन के मुताबिक एमएमआर (मीज़ल्स, मम्स एंड रूबेला) की वैक्सीन और ऑस्टिजम के बीच संबंध है, लेकिन बाद में यह दावा झूठा निकला। वर्ष 2009 में एच1एन1 (स्वाइन फ्लू) के प्रकोप ने दुनिया भर में खतरे की घंटी बजा दी थी।
चूंकि फ्लू के लिए विकसित की जाने वाली वैक्सीन की गति मंथर रही है और सीमित सफलता हाथ लगी है, इसलिए संशयवादियों को कोविड-19 वैक्सीन को लेकर जो भी संदेह हैं, उन्हें दूर किया जाना चाहिए।
लेखक सोसायटी फॉर प्रोमोशन ऑफ एथिकल एंड एफोर्डेबल संस्था के अध्यक्ष हैं।