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इंसान को इंसान बनाने वाला हो धर्म

शांति और एकता की राह
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हम तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम‍्’ को मानने वाले हैं, सर्वे भवन्तु सुखिन: के दर्शन की बात करते है। ईश्वर की रची इस सृष्टि में आदमी और आदमी के बीच अंतर पैदा करके हम रचयिता को ही अपमानित करते हैं।

अक्सर यानी जब भी धर्म या मज़हब के नाम पर इंसानियत को शर्मसार करने वाला कुछ घटता है तो उस अनाम शायर की यह पंक्ति दुहरा बैठता हूं—मज़हब बेनाम हो जाये तो सुकूं मिले। देखा जाये तो सारा झगड़ा तो नाम का ही है। किसी को हिंदू या मुसलमान नाम देकर हम अनायास उसे इंसानियत की ऊंचाई से नीचे गिरा देते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि हिंदू या मुसलमान से पहले भी वह कुछ था। यही ‘कुछ’ उसकी असली पहचान है। मंदिर में आरती करने से पहले, मस्जिद में नमाज़ पढ़ने से पहले या फिर गिरजाघर में ‘गॉड’ को याद करने से पहले हम सब इंसान हैं, यह बात पता नहीं हम क्यों भूल जाते हैं। ज़रा सा सोचने की बात है कि जब कोई पैदा होता है तो उसका किसी धर्म को मानने वाला होना इस बात से तय हो जाता है कि वह किस परिवार में पैदा हुआ या हुई। और वह किस परिवार में पैदा हुआ इसमें पैदा होने वाले की कोई भूमिका नहीं होती। ऐसे में यह सवाल तो उठना ही चाहिए न कि यह कैसा आधार है किसी के हिंदू या मुसलमान या किसी और धर्म को मानने वाला होने का?

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सवाल यह भी है कि जब किसी का धर्म तय होने में उसकी कोई भूमिका ही नहीं है तो धर्म के नाम पर आपस में झगड़ने की क्या तुक है? और यह ‘झगड़ा’ भी कितने बचकाने तरीके से होता है। हाल ही महाराष्ट्र के पुणे से एक खबर आयी थी। खबर पेशवाओं के एक किले शनिवारवाड़ा से जुड़ी है। अब यह किला प्राचीन स्मारक के रूप में संरक्षित है। पेशवाई इतिहास के इस स्मारक को देखने रोज़ अनेक पर्यटक पहुंचते हैं। ये पर्यटक किसी भी धर्म के मानने वाले हो सकते हैं। कुछ ही दिन पहले कुछ मुसलमान महिलाएं यह किला देखने पहुंची थीं। पता नहीं क्या सोच कर वे वहीं एक जगह चादर बिछाकर नमाज़ पढ़ने बैठ गयीं। कोई कहीं भी बैठकर अपने प्रभु को याद करे इसमें भला किसी को क्या आपत्ति होनी चाहिए। पर इस कृत्य से कुछ लोगों को आपत्ति है। पता नहीं क्यों किसी को यह ज़रूरी लगा कि नमाज़ पढ़ती उन महिलाओं का वीडियो बनाकर वायरल किया जाये। सोशल मीडिया पर यह दृश्य देखकर कुछ लोग अप्रसन्न हुए। उन लोगों को लगा कि शनिवारवाड़ा में चार-छह लोगों द्वारा नमाज पढ़ने से वह जगह अपवित्र हो गयी है! उन्होंने वहां पहुंचकर गौमूत्र से उस जगह का शुद्धीकरण किया। यह बात समझना आसान नहीं है कि ‘खुदा’ का नाम लेने से ‘ईश्वर’ की वह जगह अपवित्र कैसे हो गयी? हमारा धर्म तो यह मानता है कि कण-कण में ईश्वर बसता है, पर धर्म को मानने वाले हम यह नहीं मानना चाहते कि ईश्वर के शुद्धीकरण की कल्पना ही अपने आप में ओछे सोच वाली बात है।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी अपने आश्रम में सर्वधर्म प्रार्थना किया करते थे। सारे आश्रमवासी मिलकर सब धर्मों की प्रार्थनाएं बोला करते थे। इन्हीं प्रार्थनाओं में बापू का प्रिय भजन भी था-- रघुपति राघव राजाराम...। दांडी मार्च के दौरान बापू का यह भजन बहुत लोकप्रिय हुआ था। कहते हैं इसकी रचना संत प्रवर लक्ष्मणाचार्य ने की थी। लेकिन बापू जिस भजन को गाया करते थे, गवाया करते थे, उसमें संभवत: उन्होंने ही कुछ जोड़ा अवश्य था। वह जोड़ा हुआ अंश है-- ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान।’ भला इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी! आज़ादी की लड़ाई के दौरान बहुत लोकप्रिय हुआ था यह भजन। आज भी यह भजन धार्मिक कार्यक्रमों से लेकर राजनीतिक सभाओं में भी गाया जाता है। कुछ अर्सा पहले पटना की एक राजनीतिक सभा में एक भोजपुरी गायिका जब इसे गा रही थीं तो कुछ लोगों ने प्रतिवाद किया। उनकी शिकायत थी कि मूल भजन में ईश्वर-अल्ला वाली बात नहीं थी, गांधीजी ने क्यों जोड़ी? सभा में इस बात को लेकर हंगामा मच गया था। गायिका को माफी मांग कर स्थिति को संभालने की कोशिश करनी पड़ी थी!

गांधीजी ने जब रघुपति राघव वाले उस भजन में ईश्वर अल्लाह को एक बताने वाली बात जोड़ी होगी, तो निश्चित रूप से इसके पीछे सांप्रदायिकता को नकारने का भाव रहा होगा। गांधीजी के जीवन काल में इस बात का शायद ही कहीं विरोध हुआ होगा। विरोध होता तो वे निश्चित रूप से धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा देने वालों को समझाते कि ईश्वर अल्लाह में भेद करके हम न केवल अपने अज्ञान को प्रकट करते है, बल्कि मनुष्यता के विरुद्ध एक अपराध भी करते हैं। नमाज़ या प्रार्थना या भजन का एक ही मतलब है। इनके माध्यम से ही हम उस सर्वशक्तिमान की वंदना करते हैं, जिसने इस सृष्टि की रचना की है। ईश्वर की इस सृष्टि में धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण के आधार पर बंटवारे की रेखाएं खींच कर हम वस्तुत: उस शक्ति को ही नकारते हैं।

यही सब देखकर शायर ने कहा होगा, ‘मज़हब बेनाम हो जाये तो सुकूं मिले...’ ग़ज़ल में आगे कहा गया है—‘हर खुदा में है, खुदा हर में है, यह बात अम्ल हो जाये तो, सुकूं मिलें’। यहां पहला हर हरि यानी ईश्वर है। खुदा और हरि के इस रिश्ते को समझना ज़रूरी है। इसे मान कर, इसके अनुरूप आचरण करना ज़रूरी है।

हम तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम‍्’ को मानने वाले हैं, सर्वे भवन्तु सुखिन: के दर्शन की बात करते है। ईश्वर की रची इस सृष्टि में आदमी और आदमी के बीच अंतर पैदा करके हम रचयिता को ही अपमानित करते हैं। भगवान महावीर ने अनेकांतवाद का दर्शन दिया था।

सबसे पहले तो हमें यह बात अपने नेताओं को समझानी होगी, जो अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए हमें धर्मों और जातियों में बांटने का घटिया खेल खेलते रहते हैं। बहुत खतरनाक है यह खेल, यह बात उन्हें नहीं, हमें समझने की ज़रूरत है। इस खेल में मोहरे भी हम हैं और शिकार भी। राजनीतिक स्वार्थों के चलते संविधान की प्रस्तावना में लिखे चार शब्द ‘हम भारत के लोग’ न जाने कहां खो जाते हैं। नागरिकों को इंसान नहीं, मात्र वोट बनाकर राजनीति करने वालों का खतरनाक खेल देखकर कवि नीरज की यह पंक्तियां दोहराने का मन करता है—‘अब कोई मज़हब ऐसा भी चलाया जाये/ जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाये।’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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