आज के युवा केवल उच्च स्तरीय जीवन और आकर्षक नौकरी को लक्ष्य मान रहे हैं। सवाल है कि क्या वे नए आयामों को छूने और एक सम्पूर्ण नागरिक बनने की दिशा में अग्रसर हैं?
पिछले दिनों केंद्र और राज्य स्तर पर शिक्षा क्रांति, नए शैक्षिक मॉडल तथा सभी नागरिकों को शिक्षित करने की दिशा में अनेक प्रयास हुए हैं। इसमें संदेह नहीं कि विद्यालयों और महाविद्यालयों में छात्रों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। यह देखकर हर्ष होता है कि अब देश की बालिकाएं भी शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय भागीदारी निभा रही हैं।
हालांकि, केवल छात्रों की संख्या में वृद्धि या सरकारों द्वारा शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का अधिक प्रतिशत व्यय करने से ही युवा पीढ़ी की सफलता की गारंटी नहीं दी जा सकती। हाल ही में शिक्षा क्षेत्र की जो मूल्यांकन रिपोर्ट सामने आई है, वह चिंताजनक है। रिपोर्ट के अनुसार, केवल कक्षा उत्तीर्ण कर लेना ज्ञान प्राप्ति का प्रमाण नहीं माना जा सकता। आठवीं और दसवीं कक्षा के छात्रों का ज्ञान स्तर दूसरी से चौथी कक्षा के विद्यार्थियों के समकक्ष पाया गया।
एक ऐसा देश जो आने वाले वर्षों में डिजिटल, इंटरनेट और कृत्रिम मेधा के क्षेत्र में अग्रणी बनना चाहता है, उसके लिए यह स्थिति निराशाजनक है। उच्च शिक्षा में भी अधिकतर छात्र परंपरागत डिग्रियों के पीछे भाग रहे हैं। देश में मौलिक शोध की स्थिति भी अत्यंत दयनीय बताई गई है। डिग्रियां प्राप्त करने के बावजूद युवाओं में न तो व्यक्तित्व विकास हुआ है, न ही व्यवहार या नैतिक मूल्यों में कोई संतोषजनक परिवर्तन देखा गया है। हर व्यक्ति त्वरित सफलता की होड़ में लगा है।
यह भी सत्य है कि आज का भौतिक युग युवा वर्ग के सपनों को चकाचौंध से भर रहा है। हम उस अंधी दौड़ का हिस्सा बन गए हैं, जिसमें संभव है कि हम एक आर्थिक महाशक्ति तो बन जाएं, किंतु यह शक्ति ऐसी होगी, जिसकी तीन-चौथाई जनता उस सफलता का वास्तविक लाभ नहीं उठा पाएगी। वह अब भी अनुकंपा पर निर्भर रहेगी। इस जटिल चक्रव्यूह में सफलता प्राप्त करने का मार्ग क्या है? क्या यह डिग्रियों की बहुलता और परीक्षाओं में प्राप्त अंकों से तय होता है, या यह आत्म-संकल्प, मेहनत और अपने कार्य के प्रति प्रतिबद्धता से प्राप्त होता है?
भारत के न्यायाधीश बी.आर. गवई ने एक लॉ कॉलेज के स्वर्ण जयंती समारोह में कहा, ‘परीक्षा में प्राप्त अंक यह तय नहीं करते कि आप किस ऊंचाई तक पहुंचेंगे।’ यह सत्य भी है, क्योंकि डिग्री मात्र एक पड़ाव है, सफलता का वास्तविक मापदंड आत्मविकास, कठिन परिश्रम, समर्पण और अपने कार्य के प्रति ईमानदारी है।
गवई ने कहा, यदि देश में हर व्यक्ति अपने कार्य के प्रति निष्ठावान हो जाए, तो आजादी का अमृत महोत्सव मनाने के बाद भी हम नौकरशाही और लालफीताशाही से ग्रस्त न होंगे। आज सफलता के लिए लोग ‘शॉर्टकट’ ढूंढ़ते हैं। काला बाजारी करने वालों की जमात बढ़ रही है। कानून का पालन करने की बजाय, उसे तोड़कर ऊपर उठने को उपलब्धि माना जा रहा है।
गवई ने अपनी शिक्षा के अनुभव साझा करते हुए कहा कि वे अक्सर कक्षा छोड़ कॉलेज की चारदीवारी पर बैठते थे, और उनके मित्र उनकी उपस्थिति लगाते थे। लेकिन उन्होंने स्पष्ट किया कि यह व्यवहार अनुकरणीय नहीं है। उनका आशय यह था कि केवल किताबी ज्ञान या कक्षा में बैठना ही सफलता की गारंटी नहीं देता। मौलिकता और आत्म-अनुशासन ही असली पूंजी है। उन्होंने कहा कि सफलता केवल अंकों से तय नहीं होती, बल्कि जुनून, दृष्टिकोण और कर्मनिष्ठा से प्राप्त होती है।
सवाल यह है कि क्या आज की पीढ़ी ने कभी आत्ममंथन किया है कि उनकी प्रतिबद्धता क्या है? क्या वे केवल उच्च स्तरीय जीवन और आकर्षक नौकरी तक सीमित हैं, या वे ज्ञान के नए आयामों को छूने और एक सम्पूर्ण नागरिक बनने की दिशा में अग्रसर हैं? राष्ट्र निर्माण केवल भव्य इमारतों और अर्थव्यवस्था से नहीं होता, वह होता है नैतिक मूल्यों, मूलभूत शिक्षा और मानवता के विकास से। आज की शिक्षा केवल रटंत प्रणाली बनकर रह गई है, जिसमें आत्मविकास की ललक और समाज के प्रति उत्तरदायित्व का बोध समाप्त हो गया है। आज के युवाओं के सामने वे आदर्श भी नहीं हैं, जिनके जुनून में स्वाधीनता सेनानियों ने देश को आजादी दिलाई थी या जिनके संकल्प ने कला, विज्ञान, तकनीक और समाज सेवा में नये कीर्तिमान स्थापित किए थे।
बी.आर. गवई का यह संदेश एक लकीर का फकीर बने रहने की प्रवृत्ति से हटकर, नवीन दिशा देने वाला संदेश है। यह कहीं भी शिक्षा की डिग्रियों के महत्व को नकारता नहीं है, अपितु वह नकल संस्कृति, दिखावे और परीक्षा-अंकों की अंधी दौड़ का स्पष्ट खंडन करता है। उनका यह आग्रह कि युवा पीढ़ी को देश और मूल्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता निभानी चाहिए तथा कठिन परिश्रम को अपने जीवन का मूलमंत्र बनाना चाहिए।
आज स्थिति यह है कि देश का एक बड़ा वर्ग नए कार्यों की शुरुआत या नवाचार की प्रेरणा के बजाय केवल रियायतों और अनुकंपाओं की घोषणाओं की प्रतीक्षा में बैठा है। मेहनत के आह्वान के स्थान पर, सरकारी सुविधाओं की उम्मीद लगाए रखना जैसे राष्ट्रीय चुनौती बनती जा रही है। न्यायमूर्ति गवई का यह संदेश केवल एक भाषण नहीं, बल्कि भारत की अंतरात्मा की पुकार है—कि देश के युवाओं को देश के कायाकल्प के लिए संकल्प और श्रम के पथ पर अग्रसर होना चाहिए।
लेखक साहित्यकार हैं।