अनूप भटनागर
केंद्र सरकार भले ही बार-बार दावा करे कि न्यायपालिका की आवश्यकताओं को प्राथमिकता दी जा रही है ताकि जनता को शीघ्र न्याय मिल सके, लेकिन हकीकत यह है कि उसकी प्राथमिकता-सूची में न्यायपालिका व न्यायिक सुधार शामिल नहीं हैं। विधि आयोग के गठन के बावजूद इसके अध्यक्ष व सदस्यों की नियुक्ति में करीब दो साल विलंब और मुख्यमंत्रियों तथा मुख्य न्यायाधीशों के द्विवार्षिक सम्मेलन का समय पर न हो पाना इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।
न्यायपालिका से जुड़े विषयों के प्रति सरकार की गंभीरता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 24 फरवरी, 2020 को 22वें विधि आयोग के गठन के बावजूद इसके अध्यक्ष व सदस्यों की अभी तक नियुक्ति नहीं हुई। 22वें विधि आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति के लिए भाजपा नेता और अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने 2020 में ही सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका तक दायर की थी जो अभी लंबित है, लेकिन विधि आयोग अभी भी अध्यक्ष विहीन है।
विधि एवं न्याय मंत्री किरण रिजिजू ने बीती फरवरी में संसद को सूचित किया कि नए विधि आयोग को समान नागरिक संहिता जैसे महत्वपूर्ण विषय पर काम करने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल सकेगा क्योंकि इसके अध्यक्ष व सदस्यों की अभी नियुक्ति होनी है।
इसी तरह, देश में हर दो साल के अंतराल पर न्यायिक सुधारों पर विचार के लिए मुख्यमंत्रियों और मुख्य न्यायाधीशों का सम्मेलन होता है लेकिन इस बार छह साल बाद 30 अप्रैल को इसका आयोजन किया जा रहा है। इस सम्मेलन को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ ही प्रधान न्यायाधीश एनवी रमण और अन्य न्यायाधीश भी संबोधित करेंगे।
यही नहीं, सरकार के दावों के बावजूद आज भी उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 387 पद रिक्त हैं जबकि इनमें लंबित मुकदमों की संख्या बढ़ती जा रही है। इस समय देश के उच्च न्यायालयों में 58,88,940 मुकदमें लंबित हैं जिनमें दीवानी मामलों की संख्या ही 42,52,232 है। यही स्थिति निचली अदालतों की है जिनमें करीब चार करोड़ 12 लाख मुकदमे लंबित हैं।
प्रधान न्यायाधीश एनवी रमण बार-बार तथ्य दोहरा रहे हैं कि लंबित मुकदमों की भारी-भरकम संख्या और न्यायाधीशों की कमी से वादकारियों में यह धारणा बनती जा रही है कि अदालत में तो उन्हें सालों बाद न्याय मिलेगा। न्यायमूर्ति रमण का मत है कि न्याय तक सुगमता से पहुंच तभी संभव होगी जब हम पर्याप्त संख्या में अदालतें स्थापित कर उनमें बुनियादी सुविधाएं दें ताकि वादकारी तेजी से न्याय मिलने के यकीन के साथ अदालत आ सकें।
अधीनस्थ न्यायपालिका की स्थिति यह है कि देश के 651 जिलों में 3,377 अदालत परिसर हैं, जिनमें कुल 21,035 अदालतें और 17,812 पदासीन न्यायाधीश तथा न्यायिक अधिकारी हैं। जिलों में कम से कम 618 अदालतें खाली हैं। इसकी वजह न्यायाधीशों के पद रिक्त होना है। प्रधान न्यायाधीश उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों तथा अधीनस्थ न्यायपालिका के कामकाज में सुधार तथा न्यायाधीशों के रिक्त पदों पर नियुक्तियों के लिए लगातार प्रयत्नशील हैं लेकिन उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिल रही है।
प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाला कॉलेजियम जब रिक्त स्थानों पर नियुक्ति या फिर अधीनस्थ अदालत के न्यायाधीशों को पदोन्नति देकर उच्च न्यायालय में नियुक्त करने की सिफारिश करता है तो केन्द्र सरकार कई-कई महीने उस पर आगे कार्यवाही नहीं करती है। इस रवैये पर शीर्ष अदालत ने कई बार अपनी नाराजगी व्यक्त की लेकिन स्थिति में बहुत अधिक सुधार होता नजर ही नहीं आता है।
न्यायमूर्ति रमण, जो इस साल 26 अगस्त को 65 साल की आयु में देश के प्रधान न्यायाधीश पद से सेवानिवृत्त हो रहे हैं, का मानना है कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति आयु 65 वर्ष और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति आयु 62 वर्ष निर्धारित करना व्यावहारिक नहीं है और इस आयु सीमा को बढ़ाने के सवाल पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।
उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति आयु सीमा बढ़ाने का मसला लंबे समय से चर्चा में है। पहले भी कई पूर्व प्रधान न्यायाधीश और यहां तक कि अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल भी यह आयु सीमा बढ़ाने के पक्ष में अपनी राय व्यक्त कर चुके हैं। पूर्व न्यायाधीशों का मत रहा है कि सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाकर उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में लंबित मुकदमों का बोझ कम करने में मदद मिलेगी।
उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार मुख्यमंत्रियों और मुख्य न्यायाधीशों के द्विवार्षिक सम्मेलन में न्यायिक सुधारों, न्यायाधीशों के रिक्त पदों पर त्वरित नियुक्तियां तथा मुकदमों की लंबित संख्या कम करने के बारे में दिये जाने वाले सुझावों को प्राथमिकता देगी।