सैंतालीस साल पहले 26 जून को स्वतंत्र भारत के इतिहास का एक ऐसा अध्याय लिखा गया था, जिसने स्वतंत्रता और जनतंत्र की हमारी अवधारणा को सवालों के घेरे में ला दिया था। इन 47 सालों में देश में बहुत कुछ बदला है। आपातकाल के उन दिनों को लेकर आज भी कांग्रेस पार्टी को कोसा जाता है, और स्वयं कांग्रेस भी अपने कालखंड के उस अध्याय को एक दु:स्वप्न की तरह देखती है। भले ही आपातकाल एक काला अध्याय हो पर उसे याद रखना ज़रूरी है, ताकि देश सावधान रहे कि फिर कभी कोई शासक वैसा कदम उठाने की कोशिश न करे। यही कारण है कि हमारे स्कूलों-कॉलेजों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को उस काल की याद दिलायी जाती है। ज़रूरी है हमारी नयी पीढ़ी हमारे हालिया इतिहास के उस अध्याय से शिक्षा लेने के लिए उसे जाने-समझे। पर गुजरात के विद्यार्थियों को शायद अब यह अवसर नहीं मिलेगा। ‘छात्रों पर पड़ रहे बोझ को कम करने’ और पाठ्यक्रम को ‘तर्कसंगत’ बनाने के नाम पर ‘नेशनल काउंसिल ऑफ एजूकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग’ (एनसीईआरटी) ने बारहवीं कक्षा की राजनीति शास्त्र की किताब में से आपातकाल से संबंधित अध्याय को हटा दिया है। यही नहीं, सन् 2002 में हुए गुजरात के सांप्रदायिक दंगों वाले अध्याय को भी हटा दिया गया है। शायद इसी बात को देखते हुए आपातकाल वाले अंग भी हटाये गये होंगे ताकि संतुलन बनाने की कोशिश का दावा किया जा सके।
इन दो अध्यायों के साथ ही विभिन्न कक्षाओं के पाठ्यक्रम से और भी कई चीजें हटायी गयी हैं। उदाहरण के लिए ‘जनतंत्र और विभिन्नता’, ‘लोकप्रिय संघर्ष और आंदोलन’, ‘जनतंत्र की चुनौतियां’ जैसे विषयों वाली सामग्री को भी ‘तर्कसंगत’ बनाने के नाम पर पाठ्यक्रम से हटा दिया गया। यह समझना आसान नहीं है कि दसवीं कक्षा की इतिहास की किताब में से प्रसिद्ध शायर फैज अहमद फैज़ की कविता के अंश क्यों हटाये गये और 7वीं-8वीं की समाज विज्ञान की किताब में से दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि के संदर्भों को हटाने के पीछे क्या तार्किकता है।
इस तरह के और बहुत से उदाहरण भी हैं जो ‘एनसीईआरटी’ की इस कार्रवाई के औचित्य पर सवाल उठाते हैं। ऐसा ही एक उदाहरण शीतयुद्ध और गुट-निरपेक्ष आंदोलन से संबंधित अध्याय को हटाने का है। ज्ञातव्य है कि नेहरू सरकार की नीतियों की आलोचना करने के बावजूद हमारी वर्तमान सरकार कुल मिला कर उसी विदेश-नीति को अपनाये हुए है जो कांग्रेस की सरकारों ने अपनायी थी। लगता है इस बात को छिपाने के लिए ही गुट-निरपेक्षता की बात से बचने की कोशिश की गयी है।
पाठ्यक्रम में परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस बात को भी समझा जा सकता है कि विभिन्न सरकारें अपनी विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए विद्यालयों में पाठ्यक्रम में कुछ परिवर्तन कर सकती हैं। पर तथ्यों से खिलवाड़ की बात समझ में नहीं आती। सन् 2002 में जब गुजरात में भीषण दंगे हुए थे तो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात के तब के मुख्यमंत्री को ‘राजधर्म निभाने’ की सलाह दी थी। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है और निश्चित रूप से यह वाजपेयी जी की सोच को उजागर करने वाली बात है। ऐसी नेक सलाह किसी भी मुख्यमंत्री को बुरी नहीं लगनी चाहिए। यह सलाह सिर्फ किसी एक राजनेता के लिए नहीं थी, उन सबके लिए थी जिन्हें जनता ने राज करने के लिए चुना है। और राजधर्म निभाने वाली यह सलाह हर शासक को हमेशा याद रखनी चाहिए। हमारे विद्यार्थियों को भी पता होना चाहिए कि जनतंत्र में किसी शासक के किस तरह व्यवहार करने की अपेक्षा की जाती है। पता नहीं ‘एनसीईआरटी’ को यह बात विद्यार्थियों पर अनावश्यक बोझ क्यों लगी, और इसे पाठ्यक्रम से हटा कर उसे तार्किक कैसे बनाया गया।
विद्यार्थियों पर पढ़ाई का बोझ घटाना और पाठ्यक्रम को तार्किक बनाना, कतई गलत नहीं है। पर ऐसा कोई निर्णय लेने से पहले उन सबको विश्वास में लिया जाना ज़रूरी है जिन पर इस कार्रवाई का असर पड़ने वाला है। यहां सवाल विद्यार्थियों का ही नहीं है, अध्यापकों और शिक्षाविदों का भी है।
विद्यार्थियों को अपना ‘गौरवशाली इतिहास’ पढ़ाने की बात अक्सर की जाती है। यह भी कहा जाता है कि हमारे विद्यार्थियों को हमारी प्राचीन संस्कृति का भी समुचित ज्ञान होना चाहिए। इसके साथ-साथ इस बात की भी दुहाई दी जाती है कि पहले अंग्रेज़ों ने, और फिर हमारे इतिहासकारों ने, हमें सही इतिहास से वंचित रखा है। ऐसा कुछ है तो उसे ठीक किया ही जाना चाहिए। ठीक करने का यह मतलब नहीं है कि आधी-अधूरी सामग्री परोसी जाये। वर्ग विशेष को वेद न पढ़ने देने की बात अप्रिय होने के बावजूद एक हकीकत है। तो फिर आज के विद्यार्थियों को यह क्यों न बताया जाये कि प्राचीन भारत में ऐसी व्यवस्था थी, और उन्हें क्यों न समझाया जाये कि हर पुरानी बात सही हो यह ज़रूरी नहीं होता। यह एक हकीकत है कि प्राचीन भारत में ‘तथाकथित अस्पृश्यों को निर्धारित काम करने के अलावा कुछ करने पर रोक थी’, फिर यह तथ्य गुजरात में कक्षा छह की पुस्तक में से क्यों हटा दिया गया। प्राचीन भारत में ऐसी व्यवस्था बनाये जाने के कारण कुछ भी रहे हों, कालांतर में उस व्यवस्था के बदलने के हमारे समाज के प्रयासों को रेखांकित करने के लिए ज़रूरी है कि गलत प्राचीन व्यवस्था की जानकारी आज की या आने वाली पीढ़ी को होनी चाहिए।
जैसे आज की पीढ़ी को यह जानना ज़रूरी है कि सन् 1975 में देश में आपातकाल लागू किया गया था और वह नितांत अनावश्यक और गलत था, वैसे ही इस पीढ़ी को यह जानने का भी हक है कि वर्ष 2002 में गुजरात में दंगों की आग में हमारे बहुधर्मी भारत की पूरी अवधारणा को राख कर देने की कोशिश हुई थी। इतिहास से आंख चुरा कर नहीं, इतिहास की आंख में आंख डालकर ही बीते कल की गलतियों को सुधारा जा सकता है।
पिछले एक अर्से से देश में पाठ्यक्रम को बदलने की कोशिशें हो रही हैं। कुछ अनुचित है तो वह निश्चित रूप से बदला जाना चाहिए; गलत है तो उसे हटाया जाना चाहिए। लेकिन, तार्किकता के नाम पर किसी अप्रिय सत्य को ढकना अपने आप को छलना है। यह प्रवृत्ति रुकनी चाहिए। आपातकाल हमारे समय का एक काला अध्याय है, उतना ही काला अध्याय सांप्रदायिकता की आग फैलने-फैलाने वाला है। ऐसी घटनाओं को भुला कर नहीं, उनसे कुछ सीख कर ही हम आने वाले कल को बेहतर बना सकता है।
बहुत नाजुक विषय है स्कूलों-कॉलेजों में पढ़ाये जाने वाली सामग्री का। यह सामग्री तथ्यों पर आधारित होनी चाहिए। इतिहास सही हो, यह ज़रूरी है, पर उतना ही ज़रूरी यह भी है कि शासकों की विचारधारा इस इतिहास को प्रभावित न करे। 21वीं सदी तार्किकता की सदी है, यह बात ध्यान में रखनी होगी। तार्किकता की सीढ़ी पर चढ़ कर ही किसी बात की विवेकसंगतता को समझा जा सकता है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।