कहते हैं कि जीवन आशाओं का ऐसा गुलदस्ता है, जो सबको रिझाता है, खुशियां देता है, लेकिन इसकी एक सच्चाई यह भी है कि जीवन ‘क्षणभंगुर’ है, कब समाप्त हो जाए, यह कोई नहीं जानता। सच यह भी है कि नश्वर होते हुए भी जीवन सबको बांधता है और आदमी कितना भी ज्ञानी क्यों न हो, जीवन के जंजालों में फंस कर ऐसे कर्म भी करता है, जो उसे अपयश दिलाते हैं और आदमी जीवनभर अशांत और क्षुब्ध रहता है।
आज हम भौतिकता से परिपूर्ण ऐसे संसार में रह रहे हैं, जहां आदमी ‘अभिमान और मिथ्या गर्व’ में ऐसा खो गया है कि वह खुद को ही ‘सर्वोच्च और सर्वशक्ति सम्पन्न’ मानने लगा है। एक ओर असुविधाओं और गरीबी में रोटी को तरसने वाले लोग हैं, तो दूसरी तरफ अट्टालिकाओं में राजसी सुख-सुविधाओं में पलने वाले ऐसे लोग भी इसी संसार में हैं, जो धनहीन व्यक्तियों को कीड़े-मकौड़े की तरह समझते हैं।
आज मुझे फक्कड़, मस्तमौला संत कबीर दास याद आते हैं, जो जुलाहे के रूप में ताने-बाने बुनते हुए जीवन की सच्चाई कह गए हैं :-
‘कबीर गाफिल क्यों फिरै, क्या सोता घनघोर।
तेरे सिराने जाम खड़ा, ज्यों अंधियारे चोर।’
लेकिन हम ऐसी गहरी नींद में सोए हुए हैं कि ज्ञानी संत कबीर की चेतावनी को अनसुना करते हुए लगातार खुद को इस संसार का ‘कर्ता और सर्वशक्तिमान’ मानते हैं।
इधर मुझे एक आत्मीय ने ऐसी बोधकथा भेजी है, जिसे पढ़कर ‘अंतर्मन’ पूरी तरह हिल-सा गया है। इस कथा को साझा करता हूं :-
‘एक राजा के पास एक दिन एक पागल पहुंचा और बोला, ‘तू तो राजा है न? मुझे क्या देगा?’ राजा ने हीरे-मोतियों से जड़ी हुई एक बहुमूल्य छड़ी उस पागल को, जो श्मशान में रहता था, पकड़ाते हुए कहा, ‘ले, यह छड़ी रख ले, बहुत कीमती है।’ पागल बोला कि इसका मैं क्या करूंगा? तो राजा हंसते हुए बोला, ‘इसे रख लो और जब तुम्हें कोई ‘तुमसे भी बड़ा पागल’ मिल जाये तो तुम यह छड़ी उसे दे देना।’
कुछ दिनों के बाद पागल ने सुना कि राजा बहुत बीमार है और मृत्युशैया पर पड़ा है तो वह राजा के पास पहुंचा और बोला, ‘राजा, क्या हाल है?’ राजा बोला, ‘अब तो चलने की तैयारी है!’ पागल बोला, ‘कहां जायेंगे?’ तो राजा बोला, ‘यह तो मालूम नहीं!’ तब पागल ने कहा, ‘पर जहां भी जायेंगे, कितनी सेना, हाथी-घोड़े और राजकोष अपने साथ ले जायेंगे?’ राजा बोला, ‘पगले! इस यात्रा में धन-दौलत साथ नहीं जाता!’ तो पागल बोला, ‘पर रानी, राजकुमार और मंत्री के बिना तो आपका काम चलेगा नहीं?’ तो झुंझला कर राजा ने कहा, ‘तू पागल है, इतना भी नहीं जानता कि अन्तिम यात्रा में कोई किसी के साथ नहीं जाता?’ पागल हंस कर बोला, ‘अच्छा तो अकेले ही जा रहे हैं? तो यही बता दो कि किस सवारी से जाना है?’
राजा बोला, ‘अरे मूर्ख! इस यात्रा में कोई सवारी भी साथ नहीं जाती!’ अब तो पागल जोरों से हंसने लगा, ‘धत् तेरे की! तब तो राजा, दुनिया को दुख दे-देकर जो दौलत तू एकत्र करता रहा, वह तो बेकार ही रही?’ और मस्ती में हंसते हुए पागल बोला, ‘ले राजा, पकड़ अपनी हीरे-मोती जड़ी हुई छड़ी, इसे तू ही संभाल! मुझसे बड़ा पागल तो सचमुच तू ही है!’
नि:संदेह, इस अनूठी बोधकथा ने अंतर्मन को झकझोर दिया है। सारे धर्मों और धर्मग्रंथों में जीवन को क्षणभंगुर कहा गया है, फिर भी हम भौतिकता की दौड़ में अंधे होकर दौड़े जा रहे हैं। क्या अच्छा है और क्या बुरा है, इसका कोई चिंतन ही हम नहीं करते?
‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ गाने वाले संत कबीर ने हमें चेताया था :-
‘कबीरा गर्व न कीजिए, काल गहे कर केस।
ना जाने कित मारिहै, क्या घर, क्या परदेस।’
हम धन-दौलत और ऐश्वर्य की चमक-दमक में ऐसे खोए हुए हैं कि जीवन की सच्चाई को भूल बैठे हैं। सच मानिए, जिस क्षण हमारे अंतर्मन से यह बात सुनाई देने लगेगी कि सब कुछ यहीं रहना है, हम परोपकार की राह पर चलने लगेंगे और तब महाकवि प्रसाद की ‘कामायनी’ का स्वर गूंजेगा और हमें जीवन की सच्ची राह दिखाएगा :-
‘औरों को हंसते देखो मनु,
हंसों और सुख पाओ।
अपने सुख को विस्तृत कर लो,
सबको सुखी बनाओ।’