सुरेश सेठ
कोरोना संकट के बाद जब देश के सामान्य हो जाने के समाचार मिल रहे थे, संक्रमण के नये मामलों ने चिंता बढ़ा दी है। हालांकि, इस कठिन समय का मुकाबला करने में देश की सरकार द्वारा चलाया गया कोरोना निरोधी टीका अभियान रिकार्ड तोड़ सफलता से देश का संबल मजबूत हुआ है। इसी कारण देश ने कोरोना की चौथी लहर के मुकाबले का संकल्प लिया है।
लेकिन लगता है कोरोना के इस आसन्न संकट के प्रति अभी भी देश को सचेत रहना पड़ेगा। वैसे जैसे यहां जनसाधारण की आदत है, कोरोना प्रभाव के आंकड़ों के घटते ही उन्होंने इसे मुक्त हृदय से विदा दे दी है। शारीरिक दूरी बना रखने की चेतावनी अब केवल किताबी रह गयी है, और चेहरे पर मास्क रखने की उलझन से तो लगभग सबने छुटकारा पा लिया। लेकिन अभी ओमीक्रोन वायरस के एक और वेरिएंट के फूटने की संभावना फिर चौंका देती है कि इतनी लापरवाही अच्छी नहीं, अभी एहतियात तो रखना ही पड़ेगा।
प्रशासनिक स्तर पर कोरोना निरोधी टीकों को ही मुक्ति-दूत माना जा रहा है। सरकार के अनुसार, देश के लगभग सभी लोगों को निरोधी टीकों की दो खुराक तो लग ही गयी हैं, लेकिन अब विशेषज्ञों का मत है कि टीके की दूसरी खुराक अपना एंटीबॉडी बनाने का सद्प्रभाव नौ महीनों में क्षीण कर देती है। इसलिए अब देश की कुल वयस्क आबादी को तीसरी बूस्टर डोज लगाने की मंजूरी दे दी गयी है।
लेकिन इस स्वीकृति में एक अन्तर है कि अब देश की वयस्क आबादी यह बूस्टर डोज निजी अस्पतालों से लगवा सकेगी। जहां तक नये नियम का संबंध है अभी तक यह टीका मुफ्त लग रहा था, अब यह मुफ्त सेवा केवल वरिष्ठ नागरिकों एवं सेहत कर्मियों को मिलेगी। इस आदेश पर जनकल्याण विचारधारा यह प्रश्न उठा रही है, कि अब जब बढ़ती महंगाई के कारण जीएसटी से लेकर वैट, एक्साइज तक सभी कर संग्रहों में वृद्धि हो गयी है, सबके लिए यह मुफ्त सेवा जारी रहनी चाहिये थी। सरकार अपने भरते खजाने के साथ इस अतिरिक्त व्यय को सह सकती थी। लेकिन ऐसा क्यों नहीं किया गया? क्या इसका कारण निजी क्षेत्र का दबाव तो नहीं कि तीसरी डोज के कारण पैदा होने वाली मांग सार्वजनिक क्षेत्र से निजी क्षेत्र को दे दी जाये, इस व्यवसाय की रगों में नया रुधिर बनाकर।
उधर, चिकित्सा विशारद तो इन कोरोना निरोधी टीकों की सर्वमान्यता के प्रति भी सचेत कर रहे हैं। उनका कहना है कि यह टीका केवल संक्रमित की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है। कोरोना का वायरस बड़ा बहुरूपी है। अभी चीन को देख लीजिये। उसके बहुरूप संक्रमण प्रभाव ने वहां फिर लॉकडाउन की स्थिति पैदा कर दी है। भारत के जरूरी आयात पर जन बहिष्कार की घोषणा के बावजूद इसका प्रभाव पड़ा है। फार्मा अथवा दवा उद्योग का हमारा अधिकतर कच्चा माल चीन से आता है। क्या वहां गतिविधि अवरोध का यह प्रभाव ही तो नहीं है कि भारत ने अपनी आवश्यक दवाओं के दाम भी इस वर्ष दस से पंद्रह प्रतिशत बढ़ा दिये। किस्सा कोताही यह कि अभी चिकित्सा अन्वेषण का शोध मार्ग चलता रहे। पूर्ण मुक्ति तो कोरोना वायरस उन्मूलक टीके से ही होगी, केवल निरोधी टीके से नहीं। फिर जैसी भारत के आम आदमी की आर्थिक अवस्था है, तीसरी डोज का यह टीकाकरण भी अभी सार्वजनिक कल्याण क्षेत्र में मुफ्त ही रहना चाहिये था। रियायती दाम कह कर यह घटा हुआ दाम भी आम आदमी की जेब पर भारी है।
जहां तक आम आदमी के बजट के बिगड़ने का सवाल है, अभी रिजर्व बैंक द्वारा घोषित की गयी नयी मौद्रिक नीति भी इस तथ्य को स्वीकार कर रही है, कि दस मार्च को विधानसभा चुनावों के निबट जाने के बाद इक्कीस मार्च से लगातार पेट्रो उत्पादनों और गैस की बढ़ती कीमतों ने देश के महंगाई सूचकांक पर ऐसा कुप्रभाव डाला है कि अभी जून मास तक तो देश के खुदरा मूल्यों या महंगाई पर नियंत्रण की कोई संभावना नहीं। इसके बाद भी पूरा वर्ष यह खुदरा महंगाई दर पांच प्रतिशत से ऊपर रहेगी। निश्चय ही महंगाई का इस स्तर पर बने रहना आम आदमी के आर्थिक संकट को निमंत्रण है।
दरअसल, आम आदमी यह समझ नहीं पा रहा कि जब विधानसभा चुनावों से पूर्व केंद्र और राज्य सरकारें अपने करों में कटौती करके इसकी कीमतों में राहत दे सकती थीं और पूरे चुनाव संघर्ष और उसके परिणाम काल में इनकी मतों को स्थिर रख सकती थीं, तो अब अंतर्राष्ट्रीय कीमतों के ऊंचे स्तर अथवा पेट्रो कंपनियों के घाटे से हमदर्दी जताकर यह निरंतर बढ़ती पेट्रो उत्पादन कीमतों की परेशानी उनका घरेलू बजट क्यों झेल रहा है? अब जब शासन के राजस्व के बढ़ने के समाचार उन्हें चहुंओर से आ रहे हैं, तो उन्हें पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में राहत क्यों नहीं दी जा रही?
रिजर्व बैंक ने तो अपनी मौद्रिक नीति घोषणा में विकास दर प्रत्याशा को भी घटा दिया है, और महंगाई के बने रहने पर बेबसी जाहिर कर दी है। इसका संवेदी प्रभाव आत्मनिर्भर भारत और स्टार्टअप इंडिया के सपने को साकार करने में व्यवधान पैदा करेगा। संसद के बजट सत्र का सत्रावसान हो गया। आकलन आ गया कि यह सत्र सफल रहा। नब्बे प्रतिशत तक काम हो गया। लेकिन फिर भी अन्तिम दिवस विपक्ष का हो-हल्ला देश में लगातार बढ़ती कीमतों पर चर्चा करने और सरकार द्वारा उसका संज्ञान लेकर प्रत्युत्तर देने के व्यर्थ कोहराम में क्यों बदला। सत्तासीनों ने जनता की नब्ज क्यों नहीं पहचानी कि वह आज गारंटी चाहती है कि अब पेट्रोलियम आइटमों की कीमतें और नहीं बढ़ेंगी? राजस्व से भरते हुए खजाने की एक कटौती भरी दुआ उसे फिर मिल जायेगी कि इसकी पुन: स्थिर होती कीमतें देश के मूल क्षेत्र कृषि की द्वितीय क्रांति के आगमन को बाधा रहित कर सकें, नवजीवन के लिए करवट बदलने की चाह रखने वाले छोटे-बड़े व्यवसाय को गतिशील रहने का आश्वासन दे सकें।
कोरोना मुक्ति के प्रसारित विश्वास के इस स्फुरण में महानगरों से पलायन कर अपने गांवों और कस्बों में पुन: आश्रय तलाश करती श्रम शक्ति अपने गांव-घरों के पास कृषि उत्पादों के विकास के लिए, विनिर्माण के लिए लघु और कुटीर उद्योगों के पुनर्जन्म की एक नयी दुनिया चाहती है। बजट मंचों से मिले आश्वासन उसके पास हैं, सशक्त सक्रिय होती भूमिका अभी भी दावों से हकीकत बनी नजर नहीं आती। अपने देश का यह विरोधाभास कब दूर होगा, कि यहां दावे बहुत हैं, हकीकत में परिवर्तन का स्फुरण कम। घोषणाओं और सफलताओं के बीच का अंतर अब तो आंकड़ा प्रकोष्ठों के मिथ्या आंकड़ों से भी भरता नजर आने लगा। यह सब जन साधारण को सतही सन्तुष्टि तो दे देता है, इसे ठोस हकीकत में बदल नहीं पाता। उनके असंतोष मात्र उत्तेजक भाषणों से दूर नहीं होंगे। बदलाव की ठोस प्राप्ति का अहसास भी उनके संग-संग चले।
लेखक साहित्यकार हैं।