राजेश रामचंद्रन
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने बीते बृहस्पतिवार को बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई पर ‘द ट्रिब्यून’ के लेखों के शृंखलाबद्ध संग्रह ‘हीरोज़ ऑफ 1971’ का विमोचन किया। 1971 का युद्ध नया सूत्रपात करने वाली घड़ी थी, जिसने दुनिया के नक्शे में नया मुल्क उकेरकर एक जीवंत देश बना डाला। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के इतिहास में सबसे ज्यादा सफल मानवीय दखलअंदाजी की भूमिका पर भारत का नाज़ करना जायज है। ‘द ट्रिब्यून’ द्वारा 1971 की लड़ाई में जीत का समारोह मनाना राष्ट्रीय भावना का प्रतिबिम्ब है। तुलनात्मक संदर्भ में, यह 1983 में क्रिकेट में विश्व विजेता बनने जैसा है, जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारत ने सदियों के औपनिवेशिक राज के दंशों से अपने बूते उबरकर, बतौर एक क्षेत्रीय ताकत, इसकी नियति बदलने की कूवत रखने का रुतबा प्राप्त किया।
लेकिन क्या भारतीय कूटनीति 1971 के युद्ध की स्मृतियों की बंधक बन गई है? अपने सबसे बड़े संकट में सोवियत संघ की असीमित मदद के बदले क्या भारतीय विचार या टिप्पणीकार रूस से बंधकर रह गए हैं? क्या रूस-यूक्रेन युद्ध पर भारत की प्रतिक्रिया 50 साल पुरानी प्रतिबद्धता के मुताबिक तय होगी? ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन से संबंधित और इसकी अमेरिकी शाखा के कार्यकारी निदेशक ध्रुव जयशंकर ने पिछले दिनों ट्विटर पर तूफान ला दिया जब उन्होंने पश्चिमी टिप्पणीकारों द्वारा यूक्रेन को लेकर भारतीय नीति पर 1971 का संदर्भ देने वाले ट्वीट्स को नस्लीय हमले का संरक्षणवादी ठहराया। ऐसा करके विदेश मंत्री एस जयशंकर के पुत्र ध्रुव ने पश्चिम की दुखती रग पर हाथ रख दिया। उनका यह कहना सच के करीब है कि यूक्रेन पर भारत के सरल रुख का आकलन अलग नजरिए से करने से ज्यादा बनावटी और ऊटपटांग व्याख्या और कोई नहीं हो सकती। वास्तव में भारतीय भावुक और शुक्रगुजार लोग हैं, किंतु भारतीय व्यवहार में मौकापरस्ती पर व्यावहारिकता को तरजीह देने वाला विरोधाभास सदा अंतर्निहित रहा है।
यदि भारतीयों को रूस से अपने संबंधों की परवाह है तो वह केवल इसलिए कि आज रूस भारत के लिए क्या कर रहा है– न कि जो 1971 में किया– और वह बहुत कुछ कर रहा है। भारत की अपनी हथियार और अंतरिक्ष संबंधी जरूरतों के लिए लगभग पूरी तरह से रूस पर निर्भरता कुछ वैसी है जो चाहकर भी एकदम खत्म नहीं की जा सकती। अब भारत रूसी सहयोग से विकसित ब्रह्मोस मिसाइलों का निर्यातक भी है। फिलीपींस से भारतीय ब्रह्मोस मिसाइलों का सौदा आजादी के बाद वाले इतिहास में एक मील का पत्थर है। इस उपलब्धि पर जहां रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन का गर्व करना जायज है वहीं विदेश मंत्रालय और फिलीपींस में भारत के राजदूत शम्भू कुमारन विशेष रूप से श्लाघा के पात्र हैं। आखिरकार, एक ऐसा देश जो साधारण मोबाइल फोन या वाईफाई डोंगल जैसे आम दूरसंचार उपकरण तक नहीं बना पाया, रूस का धन्यवाद कि अब मिसाइलें निर्यात करेगा।
अमेरिका से गलबहियां डालना कोई तीस साल पहले शुरू हुआ जब नरसिम्हा राव–प्रणव मुखर्जी की जोड़ी ने देश को विश्व व्यापार संगठन की शर्त-नुमा डोरियों से बांधकर, भारतीय बाजार को अमेरिकी प्रदत्त तकनीक से चीन में बनी वस्तुओं की मेगा-मार्किट में तब्दील कर डाला। जहां एक ओर जापान, दक्षिण कोरिया और चीन को अमेरिका से मिली तकनीक और निवेश से बहुत फायदा हुआ वहीं भारतीय राजनेता वैश्वीकरण के लाभ पर अंतहीन बातें करते रह गए और देश को चीन से आवश्यक दवाएं, इलेक्ट्रॉनिक्स वस्तुएं और दूरसंचार उपकरण खरीदने वाले विशुद्ध ग्राहक में तब्दील कर दिया। सीमा नियंत्रण रेखा पर भारत के कड़े तेवरों के बावजूद आज अगर चीन टेलीकॉम, इलेक्ट्रॉनिक्स सामग्री और दवा बनाने में प्रयुक्त मूल अवयवों की आपूर्ति बंद कर दे तो भारतीय उद्योग ठप होकर रह जाएंगे।
अब, चीन के बढ़ते रुतबे और दुनिया पर एकल-ध्रुवीय अमेरिकी सरदारी को चुनौती देने की चीन की नीयत स्पष्ट देख लेने के बावजूद अमेरिका ने भारत में निवेश और तकनीक हस्तांतरण बढ़ाने का कोई यत्न नहीं किया। लगता है अमेरिकी राजदूत अभी भी भारत को ब्रितानी चश्मे से देखते हैं, उन्हें भारत महज एक मंडी और भावी सैन्य अभियानों में मानव-बल प्रदाता कोष की तरह दिखाई देता है। बड़ी अमेरिकी कंपनियों के भारतीय मूल के कार्यकारी अधिकारी मुझे अंग्रेजों के ज़माने के ‘राय बहादुर’ और ‘साम्राज्य के मददगार’ की उपाधि पाने वालों की याद दिलाते हैं, जिन्होंने न केवल भारतीयों के उत्पीड़न में औपनिवेशिक प्रशासन की मदद की, बल्कि देश को समृद्ध बनाने में कोई योगदान नहीं दिया। जैसे ही वैश्विक व्यवस्था में बदलाव आया, दुनिया की नजरों में चीन का दर्जा मुख्य उत्पादन केंद्र का हो गया। भारत को केवल एक खपतकार मंडी बनकर रहने की बजाय लोकतंत्र के हितों और एक नियम आधारित विश्व-समाज बनाने की खातिर व्यवस्था में बदलाव लाना होगा। उच्च परिष्कृत तकनीकी उपकरणों के लिए भारत की चीन पर लगातार निर्भरता उसे मुख्य एशियाई ताकत बनाने में सहायक होगी। और यह स्थिति चीन को हिंद-प्रशांत महासागरीय क्षेत्र और अन्यत्र इलाकों में अमेरिकी हितों को चुनौती देने में अपनी भुजाएं फड़फड़ाने को उद्धत करेगी।
भारत के राष्ट्रीय हित जो यूक्रेन पर स्थिति तय करते हैं, वह केवल रूस से हथियारों के आयात तक सीमित नहीं हैं, इसमें चीन- पाकिस्तान-रूस की संभावित तिकड़ी से पैदा होने वाली गंभीर चिंताएं भी शामिल हैं। यह गठजोड़ भारत की आर्थिक और सैन्य रूप से नाकेबंदी कर पंगु बना सकता है। इस क्षेत्र में चीन द्वारा सम्पूर्ण दबदबा कायम करने की कोशिशों के विरुद्ध रूस-भारत गठबंधन ही एकमात्र सामरिक प्रतिरोधक बनने की हैसियत रखता है, फिर भी हैरानी है कि पश्चिमी जगत यह होते क्यों नहीं देखना चाहता। फिर, अमेरिका ने चीन का सामना करने को आस्ट्रेलिया-यूके-यूएस आधारित ‘व्हाइट ब्वायज़ क्लब’ नामक गठजोड़ बनाकर इस क्षेत्र में भारत के महत्व को प्रभावी ढंग से कमतर किया है। इस तरह भारत को अपना इंतजाम खुद करने के लिए अकेला छोड़ दिया। रूस की मदद के बिना यह कैसे हो पाएगा, इस सवाल का जवाब मिलना चाहिए।
बतौर एक फलते-फूलते लोकतंत्र, भारतीयों का अमेरिका के प्रति अपार स्नेह है और अपेक्षा रखते हैं कि क्षेत्रीय ताकत बनने में वह हमारी मदद करेगा। परंतु परिष्कृत चिप और कोड पाने की बजाय उन्हें मिलती हैं अमेरिकी अखबारों में गालियां। बहुत सारे सहयोगी होने के बावजूद भारत के पास ‘यायावर राष्ट्र’ रहने का एकमात्र सामरिक विकल्प बचा है– जो पड़ोसी बैरी ताकतों से घिरा है– और जिसकी चीनी आयात पर निर्भरता केवल परिष्कृत अमेरिकी तकनीक पाकर खत्म हो पाएगी। भारत के विशाल मानव श्रम-बल और क्रय-शक्ति का इस्तेमाल कर अमेरिका अपनी अर्थव्यवस्था में नया उछाल ला सकता है, बशर्ते वह अपनी आपूर्ति शृंखला में बदलाव लाकर भारत को निर्माता स्रोत बनाए, न कि अपना माल खपाने वाली एक मंडी। भले ही इस क्रम में भारत को कोरियाई कारों या अन्य उपभोक्ता वस्तुओं को स्वदेशी ब्रांडों से बदलना पड़े, लेकिन अगर अमेरिकी तकनीक, निवेश और मार्गदर्शन मिल सके तो यह करना कहीं ज्यादा आसान और द्विपक्षीय लाभप्रद होगा। भारत अमेरिका के साथ खरा सहयोग और द्विपक्षीय लाभदायक रिश्ता बनाने की चाहत रखता है, 1971 की यादें यहां उतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं। यदि हैं भी, तो केवल पश्चिमी मीडिया को यह याद दिलाने भर को कि जहां वह यूक्रेन पर बड़ी-बड़ी बातें कर रहा है वहीं कैसे उसने तीस लाख बंगालियों के नरसंहार की खबरें छापने से आंखें फेरे रखी थीं।
लेखक प्रधान संपादक हैं।