ट्रंप और बादलों का व्यवहार करीब-करीब एक सा ही हो लिया है। जैसे पहाड़ों पर बादल फटते हैं, वैसे ही इंडिया पर ट्रंप फटते हैं। सो अब बारिश के लिए हम हवन की बजाय क्लाउड सीडिंग करने लगे हैं।
नहीं जी, हम किसी प्रेमी की तरह से यह गुहार नहीं लगा रहे हैं कि बरखा रानी जरा जमके बरसो, मेरा दिलबर जा न पाए, झूमकर बरसो। हम तो यह गुहार इसलिए लगा रहे हैं कि बस आसमान में छाया वह प्रदूषण धुल जाए, जिसे हमने दीवाली पर पटाखे फोड़-फोड़कर उतने ही गर्व से फैलाया था जितने गर्व से हमने हवन कर-करके ट्रंप को जिताया था। एक जमाना था जी, जब बरखा रानी के लिए भी हवन वगैरह ही किए जाते थे। लेकिन जब से हमने ट्रंप की जीत के लिए हवन किए हैं, तब से डर लगने लगा है कि पता नहीं क्या उल्टा हो जाए। हम बारिश के लिए हवन करें और बादल फटने लगें।
ट्रंप और बादलों का व्यवहार करीब-करीब एक सा ही हो लिया है। जैसे पहाड़ों पर बादल फटते हैं, वैसे ही इंडिया पर ट्रंप फटते हैं। सो अब बारिश के लिए हम हवन की बजाय क्लाउड सीडिंग करने लगे हैं। मतलब बारिश के लिए हम विज्ञान का सहारा लेने लगे हैं और विज्ञान के लिए तो हम हवन वगैरह का सहारा लेते ही रहते हैं। विज्ञान और आस्था का यह घालमेल, धर्म और राजनीति के घालमेल टाइप का ही लग सकता है। अब वास्तव में होता है या नहीं, कह नहीं सकते।
खैर जी, न हवन से ट्रंप पसीजे और न ही क्लाउड सीडिंग से बादल पसीजे। एक बूंद तक नहीं बरसायी गयी पठ्ठों से। सरकार पर विफलता की तोहमत अलग से लगा दी। इससे अच्छा तो हमारा वेस्टर्न डिस्टरबेंस ही होता है कि भूले-भटके आ के प्रदूषण धो जाता है। वैसे देखा जाए तो वेस्टर्न डिस्टरबेंस नेताओं से तो ज्यादा ही आता है। नेता तो पांच साल में एक बार आता है और वेस्टर्न डिस्टरबेंस एक साल में पांच बार आ लेता है। ऊपर से फसल में मावठ भी लगा जाता है और प्रदूषण भी धो जाता है। नेता इतने काम का कभी नहीं हो सकता। खैर जी, कल तक हम दुआ कर रहे थे कि बारिश किसी तरह से रुके। बादल जो फट रहे थे, बाढ़ जो आ रही थी। और अब हम चाहते हैं कि बारिश हो जाए। प्रदूषण जो फैल गया है। इस प्रदूषण को हमने वैसे ही पाला-पोसा है जैसे ठूंस-ठूंस कर खाकर हम अपनी तोंद को पालते हैं। जैसे हम अपनी सेहत बिगाड़ते हैं, वैसे ही हमने अपना पर्यावरण बिगाड़़ लिया। सेहत बिगाड़ी स्वाद के चक्कर में और पर्यावरण बिगाड़ा अपनी हेकड़ी के चक्कर में। अब क्लाउड सीडिंग हम वैसे ही करने लगते हैं जैसे चाहते हैं कि पांच दिन जिम जाकर या हफ्ते-दो हफ्ते कपालभाति करके अपनी तोंद अंदर कर लें। कृत्रिमता ऐसे ही दिन दिखाती है। यह मजाक उड़ाकर हंसने के नहीं, त्रासदी पर रोने के दिन हैं। नहीं क्या?

