सूचना क्रांति के इस युग में, जब अभिव्यक्ति के लिये फेस बुक, इंस्टाग्राम, टेलीग्राम और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है, एक्टिविस्ट अधिवक्ता प्रशांत भूषण को न्यायपालिका के बारे में उनके दो ट्वीट के कारण अवमानना का दोषी ठहराये जाने के साथ ही अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार और इसकी सीमा को लेकर नये सिरे से बहस छिड़ गयी है। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को लेकर सोशल मीडिया पर बुद्धिजीवी और समाज के प्रगतिशील तबके के लोग इस अधिवक्ता का समर्थन करते हुए अपनी बेबाक टिप्पणियां कर रहे हैं। इनमें से अनेक टिप्पणियों की भाषा न्यायपालिका के प्रति उनकी सोच दर्शा रही है। इस फैसले के परिप्रेक्ष्य में सवाल न्यायालय की अवमानना कानून के संदर्भ में अभिव्यक्ति की आजादी का नहीं है, बल्कि सवाल यह है कि अभिव्यक्ति की आजादी के इस अधिकार की सीमा क्या हो?
यह सही है कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) में नागरिकों को बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार प्राप्त है, लेकिन यह भी सही है कि यह अधिकार निर्बाध नहीं है। अब सवाल उठता है कि अगर अभिव्यक्ति और बोलने की आजादी का अधिकार निर्बाध नहीं है तो इसकी ‘लक्ष्मण रेखा’ क्या है? क्या संविधान में प्रदत्त इस अधिकार का इस्तेमाल करके किसी व्यक्ति के बारे में अभद्र या अश्लील भाषा का इस्तेमाल किया जा सकता है? क्या इस अधिकार का इस्तेमाल करते समय ऐसी भाषा का प्रयोग किया जा सकता है जो दूसरों को अपमानित करने वाली हो या किसी समूह को हिंसक रवैया अपनाने के लिये प्रेरित करने वाली हो?
वरिष्ठ पत्रकार अरुण शौरी और एन. राम के साथ ही अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने हाल ही में संविधान में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के संदर्भ में न्यायालय की अवमानना कानून, 1971 की धारा 2(सी)(1) के प्रावधान को चुनौती दी थी। तर्क दिया गया था कि अवमानना कानून का यह प्रावधान असंवैधानिक है और यह संविधान की प्रस्तावना में प्रदत्त मूल्यों और बुनियादी सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। इस धारा के अनुसार न्यायालय को बदनाम करने अथवा उसके प्राधिकार को ठेस पहुंचाने संबंधी किसी सामग्री का प्रकाशन या ऐसा कोई अन्य कृत्य आपराधिक अवमानना है।
उम्मीद थी कि इस याचिका में उठाये गये सवाल पर न्यायालय की सुविचारित राय आयेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यह याचिका न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ के समक्ष सूचीबद्ध थी, लेकिन पिछले सप्ताह वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने इसे वापस ले लिया। न्यायालय की अवमानना कानून तो 1971 में बना है लेकिन इससे पहले 1950 के दशक से ही अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के सवाल पर न्यायालय ने समय-समय पर अनेक व्यवस्थायें दी हैं। इस पर विधि आयोग भी विचार कर चुका है।
यह सही है कि हमारे देश के संविधान ने नागरिकों को अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार प्रदान किया है। मगर यदि कोई व्यक्ति अनुचित भाषा का प्रयोग करता है तो कानून में इस तरह के अपराध के बारे में अलग-अलग प्रावधान भी हैं।
फेसबुक, इंस्टाग्राम, टेलीग्राम और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया की उपलब्धता के दौर में इन मंचों पर अपलोड पोस्ट की पहुंच काफी दूर तक होती है। अगर इन पर कथित रूप से आपत्तिजनक पोस्ट किये गये हों तो इन पर आपत्तियां उठाये जाने की स्थिति में ऐसी पोस्ट सोशल मीडिया से हटाये जाने से पहले न जाने कितने लोग पढ़ चुके होते हैं और कितने ही इसके स्क्रीन शॉट ले चुके होते हैं। ऐसी स्थिति में इसके प्रभाव की कल्पना की जा सकती है।
शीर्ष अदालत ने प्रशांत भूषण को आपराधिक अवमानना का दोषी ठहराते हुए माइक्रो ब्लागिंग साइट पर 27 जून को न्यापालिका के पिछले छह साल के कामकाज के बारे में और 22 जुलाई को प्रधान न्यायाधीश एसए बोबडे के संबंध में पोस्ट किये गये उनके दो ट्वीट का विश्लेषण किया है।
पीठ ने कहा, ‘हमारी राय में यह नहीं कहा जा सकता कि इस तरह के ट्वीट जनहित में न्यायपालिका की स्वस्थ आलोचना हैं।’ न्यायालय का मानना है कि प्रशांत भूषण का 27 जून का ट्वीट भारतीय लोकतंत्र के महत्वपूर्ण स्तंभ की बुनियाद को कमजोर करने का प्रभाव रखता है। न्यायालय का इस निष्कर्ष पर पहुंचना कि भूषण का यह द्वेषपूर्ण हमला एक या दो न्यायाधीशों के खिलाफ नहीं बल्कि पिछले छह साल में समूचे उच्चतम न्यायालय के कामकाज पर है, यह इन ट्वीट की मारक क्षमता को बयां करता है। शायद यही वजह है कि न्यायालय को यह कहना पड़ा कि यह न्यायालय की शक्ति के प्रति असंतोष और निरादर पैदा करने में सक्षम है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसलिए जरूरी है कि अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का प्रयोग संयम से किया जाये और हम खुद ही इसके लिये एक लक्ष्मण रेखा खींचें ताकि अनावश्यक विवादों से बचा जा सके।