पुष्परंजन
अफगानिस्तान में भारत क्या पालिसी परिवर्तन की तरफ़ है? सवाल तालिबान से नये सिरे से हो रहे संवाद की वजह से उठ रहा है। तुर्की के राष्ट्रपति ने ‘मिशन अफगानिस्तान’ में पाकिस्तान और हंगरी की मदद लेने की पेशकश की है। नाटो और अमेरिकी फोर्स की अफग़ानिस्तान से वापसी के बाद, तुर्की को सुरक्षा की ज़िम्मेदारी की सुनकर पाकिस्तान के पांव ज़मीन पर टिक नहीं रहे हैं। पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी की खुशी की एक और बड़ी वजह तुर्की की कश्मीर मामले में सक्रियता को लेकर होगी। 2020 के मध्यांतर तक भारत दो अरब डॉलर की सहायता विभिन्न परियोजनाओं में दे चुका है। नवंबर, 2020 में भारत ने ऐलान किया था कि अफग़ानिस्तान में 150 परियोजनाएं पूरी करने के वास्ते हम 8 अरब डॉलर ख़र्च करेंगे।
अब मुश्किल तुर्की के साथ है कि अफगानिस्तान में भारत से सहयोग के मामले में उसका तालमेल कितना रहता है। कश्मीर भी तुर्की के लिए एक बड़ा कार्ड है। सितंबर, 2020 में संयुक्त राष्ट्र आम सभा की बैठक में एर्दोआन ने कहा था कि कश्मीर के लोग जैसी आशा करते हैं, उसके अनुरूप भारत को काम करना चाहिए ताकि दक्षिण एशिया में शांति बहाल हो। तुर्की के प्रधानमंत्री एर्दोआन का भारत ने प्रतिरोध करते हुए कहा था कि पहले अपने देश में अंकारा में लोकतांत्रिक मूल्यों की बहाली की पड़ताल कर ले, फिर औरों को नसीहत दे। संयुक्त राष्ट्र में स्थाई दूत टीएस तिरुमूर्ति ने 23 सितंबर, 2020 को ट्वीट किया था, ‘भारत अपने आंतरिक मामले में किसी हस्तक्षेप को बर्दाश्त नहीं करेगा। तुर्की दूसरे देश की संप्रभुता का आदर करना सीखे।’
22 अप्रैल, 2021 को इस्तांबुल में पाक-अफग़ान और तुर्क विदेश मंत्रियों की बैठक हुई थी, जिसमें शांति की दिशा में कैसे आगे बढ़ें, तालिबान नेताओं को कैसे अपने आईने में उतारें, इन विषयों पर बातचीत हुई थी। अफगान विदेश मंत्री मोहम्मद हनीफ अतमार ने स्वीकार किया था कि तालिबान का एक बड़ा धड़ा तुर्की द्वारा सुरक्षा और युद्ध जैसी जिम्मेदारी लेने के पक्ष में नहीं दिखता। फरवरी, 2020 की डील के बाद यह तय हुआ था कि 1 मई, 2020 तक 2500 अमेरिकी सैनिक अफग़ानिस्तान छोड़ देंगे। मगर, यह आगे के लिए टल गया है।
20 वर्षों के युद्ध में अमेरिका 2.26 ट्रिलियन डॉलर गंवा चुका है। वाटसन इंस्टीच्यूट के डाटा बताते हैं कि अक्तूबर, 2001 से अप्रैल, 2021 तक 2442 अमेरिकी सैनिक अफग़ानिस्तान में मारे जा चुके हैं। इनके अलावा 6 अफगान और 6 अमेरिकी नागरिक, 3846 अमेरिकी ठेकेदार और 90 पाकिस्तानी कांट्रेक्टर, लगभग 80 हज़ार राष्ट्रीय सेना व पुलिस के जवान, जिसमें 9314 पाकिस्तानी भी रहे हैं, मारे गये। 71 हज़ार 344 सिविलियंस की मौत हुई, जिनमें पाक नागरिकों की संख्या 24 हज़ार 99 है। दो दशक के युद्ध में 84 हज़ार 191 लड़ाके मारे गये, जिनमें पाकिस्तानियों जिहादियों की संख्या 33 हज़ार थी। 136 जर्नलिस्ट व मीडिया वर्कर्स की जान गई, उनमें पाकिस्तानी सहाफियों की संख्या 74 बताई गई है। 549 ह्यूमनटेरियन एड वर्कर्स मारे गये, उनमें 105 पाकिस्तान वाले थे। अमेरिका के बाउन विश्वविद्यालय से संबद्ध वाटसन इंस्टीच्यूट के डाटा से यह तो स्पष्ट होता है कि अफग़ानिस्तान के युद्ध में पाकिस्तानी जान-माल की क्षति अधिकाधिक हुई है।
दो दशकों के युद्ध में 24 लाख लोगों का मर जाना मानव इतिहास के काले कालखंड में से एक कह सकते हैं। क्या इसके लिए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए? इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा। रूस-अफग़ान युद्ध से इसकी तुलना करें, तो कम ही है। दिसंबर, 1979 से फरवरी, 1989 तक सोवियत संघ ने अफगा़निस्तान पर कब्ज़ा कर रखा था। लगभग दस साल की अवधि में 15 हज़ार सोवियत सैनिक अफग़ानिस्तान में मारे गये थे, और क़रीब 20 लाख अफग़ान नागरिक जान से हाथ धो बैठे थे।
तालिबान नेता इस पर अड़े हैं कि अमेरिकी सैनिक सबसे पहले अफग़ानिस्तान छोड़ें, फिर हम शांति पर अमल आरंभ करेंगे। 11 सितंबर, 2001 को ट्विन टावर पर हमले के बाद से अमेरिकी सेना नाटो के साथ अफग़ानिस्तान में उतर आई। अमेरिकी सेना के अवकाश ग्रहण कर चुके थ्री स्टार जनरल डेनियल बोल्गर ने ऑन द रिकार्ड कहा कि हम वहां युद्ध हार चुके हैं। कायदे से देखें तो अफग़ानिस्तान में युद्ध सोवियत संघ भी हार चुका था।
अमेरिकी सेना से संबद्ध एक स्वतंत्र संस्था है, ‘स्पेशल इंस्पेक्टर जनरल फॉर अफग़ानिस्तान रिकन्सट्रक्शन’, उसने एक चार्ट तैयार किया है, जिसमें दो साल के भीतर तालिबान के प्रभाव क्षेत्र के बढ़ने के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है। यह तुलनात्मक जानकारी अगस्त, 2016 से अक्तूबर, 2018 के बीच की है। उस चार्ट को देखने के बाद स्पष्ट हो जाता है कि तालिबान ने कबीलाई और ग्रामीण इलाकों में अपना विस्तार तेज़ी से किया है, और अमेरिकी सेना उन जगहों से शहरी इलाकों की ओर रुख़ कर चुकी है। 2018 के बाद के वर्षों में तालिबान का ज़बरदस्त विस्तार हुआ है, इस बात से सभी वाकिफ हैं।
अमेरिकी सेना की वापसी और तुर्की की भूमिका भी देखी जानी चाहिए। सत्ता में यदि तालिबान की चलेगी तो सब कुछ बदलेगा, भारत उससे प्रभावित न हो, यह संभव ही नहीं। इस समय अफग़ानिस्तान में सिखों की आबादी कितनी है, वहां की सरकार भी स्पष्ट नहीं कर रही। 1979 के बाद अफगानिस्तान में जनगणना नहीं हो सकी है। बस एक कयास है कि 1200 सिख परिवारों के 8000 सदस्य अफगानिस्तान में रह गये हैं। सितंबर, 2013 में हामिद करज़ई ने निचले सदन में सिखों-हिंदुओं के वास्ते एक सीट रिजर्व किये जाने का प्रस्ताव रखा था, जिसके समर्थन में सिर्फ 22 सांसद थे, 130 विरोध में थे। संसद में यह प्रस्ताव गिर गया। अगले राष्ट्रपति अशरफ ग़नी इसके प्रति संज़ीदा दिखे। सितंबर, 2016 में ग़नी कैबिनेट ने लोअर हाउस में सिखों व हिंदुओं के वास्ते एक सीट रिजर्व किये जाने के प्रस्ताव का अनुमोदन कर दिया। यह ध्यान में रखने वाली बात है कि निचले सदन ‘वोलेसी जिरगा’ की 249 में से 64 सीटें महिलाओं के लिए और 10 सीटें कूची बनजारों के लिए आरक्षित हैं। तालिबान के वर्चस्व के बाद अफग़ानिस्तान में बचे-खुचे सिखों के बने रहने और वहां की संसदीय राजनीति में उनके प्रतिनिधित्व का प्रश्न भी है। एक और बड़ा सवाल चाबहार पोर्ट पर भारतीय गतिविधियों का है, इसे हम ऊर्जा मार्ग भी मानते हैं, जिसकी वजह से सेंट्रल एशिया से भारत का संपर्क साधा जाना आसान हो जाता है। संभव है पाकिस्तान-तुर्की गठजोड़ इसके आगे बढ़ने में अड़ंगेबाज़ी करे।
लेखक ईयू-एशिया न्यूज़ के नयी दिल्ली संपादक हैं।