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सलबेगा के बगैर पूरी नहीं होती पुरी की रथ यात्रा

भगवान जगन्नाथ के मुस्लिम भक्त
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यह है भारतीय अध्यात्म व भारतीय संस्कृति की ताकत, जिसके सामने धर्म, संप्रदाय की दीवारें भी कभी बाधक नहीं बन सकीं, न तो प्राचीन काल में, न ही आज भी।

पंकज चतुर्वेदी

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श्री जगन्नाथ पुरी में मंदिर से रथ चला गुंडेचा मंदिर की तरफ लेकिन रास्ते में एक ही जगह वह रुकता है, वह है भक्त सलबेगा की मजार, जगन्नाथ का मुस्लिम अनन्य भक्त। ओडिसी नृत्य हो या शास्त्रीय गायन या दूरस्थ अंचल की कोई धार्मिक सभा, सलबेगा द्वारा रचित भजन के बगैर उसे अधूरा ही माना जाता है। भगवान जगन्नाथ के भक्त सलबेगा को ओडिया भक्ति संप्रदाय में विशिष्ट स्थान मिला हुआ है। कह सकते हैं कि वे अपने दौर के क्रांतिकारी रचनाकार थे जो इस्लाम को भी मानते थे और प्रभु जगन्नाथ को भी शीश नवाते थे। भक्त सलबेगा की एक प्रसिद्ध रचना आज भी सभी धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यक्रमों में सस्वर गाई जानी लगभग अनिवार्य मानी जाती है।

सलबेगा के प्रारम्भिक जीवन के बारे में तथ्यों से अधिक किंवदंतियां चर्चित हैं। भक्त सलबेगा 17वीं शताब्दी की शुरुआत के एक ओडिया भाषा के धार्मिक कवि थे। उनका जन्म मुगल सेना के मुस्लिम योद्धा लालबेगा के यहां हुआ। उन दिनों मुगल हमेशा श्रीमंदिर को गिराने के लिए कब्जा करने की कोशिश कर रहे थे। एक बार जब मुगल योद्धा लालबेग, पुरी के डंडा मुकुंदपुर इलाके के पास पुरी से लौट रहे थे, तो उन्होंने एक सुंदर युवा ब्राह्मण विधवा को स्नान घाट से लौटते हुए पाया। उसने महिला का अपहरण कर लिया और अंत में मजबूरी में उससे शादी कर ली, जो बाद में फातिमा बीवी के नाम से जानी जाने लगी। सलबेगा फातिमा बीवी और लालबेगा के पुत्र थे। बचपन से ही उन्होंने अपनी मां से भगवान जगन्नाथ, भगवान कृष्ण और भगवान राम के बारे में सुना। वह उनकी ओर आकर्षित हो गया। वह उनकी भक्ति करता, उन पर गीत लिखता।

फातिमा बीवी की मृत्यु के समय भक्त सलबेगा एक बच्चा था। एक बार वह एक गंभीर बीमारी से ग्रसित हो गया और सभी वैद्य–हकीमों ने उम्मीद छोड़ दी कि भक्त सलबेगा जीवित नहीं रह सकता। एक दिन जब वह बिस्तर पर था तो उसने भजन सुना और सोचा कि महान भगवान जगन्नाथ जो कि दुनिया के भगवान हैं, मुझे ठीक करने में सक्षम होंगे। सलबेगा भगवान जगन्नाथजी की भक्ति में इतना खो गया था कि वो दिन-रात पूजा-अर्चना और भक्ति करने लगा। इसी भक्ति और पूजा-अर्चना के चलते सलबेगा को मानसिक शांति और जीवन जीने की शक्ति मिलने लगी। मुस्लिम होने के कारण सलबेगा को मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता। वह मंदिर के बाहर ही बैठकर भगवान की भक्ति करने लगता।

ऐसा माना जाता है कि भगवान जगन्नाथ जी उसे सपने में आकर दर्शन दिया करते। भगवान उसे सपने में आकर घाव पर लगाने के लिए भभूत देते और सलबेगा सपने में ही उस भभूत को अपने माथे पर लगा लेता। उसके लिए हैरान करने वाली बात यह थी कि उसके माथे का घाव सचमुच में ठीक हो गया था। मुस्लिम होने के कारण सलबेगा कभी भी भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन नहीं कर पाया और उसकी मृत्यु हो गई। अपनी मृत्यु से पहले सलबेगा ने कहा था, ‘यदि मेरी भक्ति में सच्चाई है तो मेरे प्रभु मेरी मजार पर जरूर आएंगे।’

मृत्यु के बाद सलबेगा की मजार जगन्नाथ मंदिर से गुंडिचा मंदिर के रास्ते में बनाई गई थी। इसके कुछ महीने बाद जब जगन्नाथजी की रथयात्रा निकली तो सलबेगा की मजार के पास आकर भगवान का रथ रुक गया और लाख कोशिशों के बाद भी रथ इंच भर भी आगे नहीं बढ़ा। तभी पुरोहितों और राजा ने सलबेगा की सारी सच्चाई जानी और भक्त सलबेगा के नाम के जयकारे लगाए। जयकारे लगाने के बाद रथ चलने लगा। बस तभी से हर साल मौसी के घर जाते समय जगन्नाथजी का रथ सलबेगा की मजार पर कुछ समय के लिए रोका जाता है। भक्त सलबेगा के बनाए भजन, आज भी लोगों को याद हैं।

भक्त सलबेगा सारा जीवन मंदिर के बाहर बैठकर ही भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन की आस लगाए रहा। प्रभु का नाम जपता और उनके भजन लिखता। धीरे-धीरे उसके भजन अन्य भक्तों की जुबान पर भी चढ़ने लगे। यह है भारतीय अध्यात्म व भारतीय संस्कृति की ताकत, जिसके सामने धर्म, संप्रदाय की दीवारें भी कभी बाधक नहीं बन सकीं, न तो प्राचीन काल में, न ही आज भी। सलबेला द्वारा रचित गीतों के साथ कहानियां भी हैं, एक बार सलबेगा वृंदावन में थे और रथ यात्रा के दिन आ गए। उन्हें लगा कि बहुदा जात्रा के समय उनका पहुंचना मुश्किल हैं। उन्होंने गीत लिखा— जगबंधु है गौसाईं, तुमभा श्रीचरन बिणु, अन्य गति नाहीं।

और भगवान का रथ थम गया, जब तक सलबेगा पहुंच नहीं गया।

सलबेगा की रचनाओं में भगवान जगन्नाथ के स्तुति के साथ साथ कृष्ण – कविता, चौपड़ी और भजन की विधा में हैं और उनमें और राम, ब्राह्मणजन और शक्ति व शिव की आराधना का भी आख्यान है ।

उनकी कम से कम 120 रचनाएं पुरानी ताड़ के पत्तों की पांडुलिपियों के साथ-साथ ओडिशा की सड़कों पर भिखारियों द्वारा गाए जाने वाले गीतों से भी मिली हैं। बांग्ला आलोचक सुकुमार सेन की पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ ब्रिज बोली लिट्रेचर’ में सलबेगा को उड़िया के साथ-साथ हिन्दी और बंगला में गीत लिखने वाले के रूप में उल्लेखित किया गया है।

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