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जन प्रतिनिधियों से विवेकपूर्ण व्यवहार की उम्मीद

यह दुर्भाग्य ही है कि हमारी राजनीति में विवेक पर वैयक्तिक और दलीय स्वार्थ अक्सर हावी हो जाते हैं। जनतंत्र की सफलता और सार्थकता का तकाज़ा है कि इस स्थिति से उबरा जाये। निर्वाचित सांसदों के विवेक पर शंका करने...
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यह दुर्भाग्य ही है कि हमारी राजनीति में विवेक पर वैयक्तिक और दलीय स्वार्थ अक्सर हावी हो जाते हैं। जनतंत्र की सफलता और सार्थकता का तकाज़ा है कि इस स्थिति से उबरा जाये। निर्वाचित सांसदों के विवेक पर शंका करने की आवश्यकता नहीं है, आवश्यकता विवेकपूर्ण व्यवहार करने की है।

सातवीं-आठवीं में पढ़ने वाला वह बच्चा टीवी पर समाचार सुनते-सुनते अचानक हंस पड़ा। समाचार तो मैं सुन रहा था, उसने अनायास ही वह समाचार सुन लिया होगा। समाचार उपराष्ट्रपति के चुनाव के बारे में था और एंकर कह रहा था, सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष दोनों ने अपने-अपने सांसदों को मतदान का तौर-तरीका समझाने के लिए संसद-भवन में विशेष कार्यक्रम आयोजित किये। जब मैंने बच्चे से हंसने का कारण पूछा तो उसने बताया कि उसे हंसी इस बात पर आ रही थी कि हमारे सांसदों को वोट देना भी नहीं आता!

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यह सुनकर मैं भी अनायास ही मुस्कराने लगा था। बात तो सही है, उपराष्ट्रपति पद के लिए मतदान क्या सचमुच इतनी जटिल प्रक्रिया है कि सब कुछ जानने का दावा करने वाले हमारे सांसदों को यह भी सिखाना पड़े कि वोट कैसे डाला जाता है! रहा होगा कोई ज़माना जब कुछ कम पढ़े-लिखे, या फिर अनपढ़ भी सांसद बनते हों। पर इक्कीसवीं सदी के हमारे सांसद तो ऐसे नहीं हैं। बहरहाल, मैंने उस बच्चे को बताया कि बात मतदान का तरीका सिखाने की नहीं, अपने-अपने सांसदों को एकजुट रखने की है। इस तरह के कार्यक्रम आयोजित करके राजनीतिक दल अपने समर्थकों को जोड़े रखने की कोशिशें करते हैं। यह सुनकर वह बच्चा फिर हंस पड़ा था। इस बार मैंने नहीं पूछा कि वह क्यों हंसा है। मैंने अपने आप से पूछा था, यह कैसा जनतंत्र है हमारा कि हमें अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों को भी यह समझाना पड़ता है कि जनतंत्र में विचारधारा का भी कुछ मतलब होता है; कि राजनीति अवसर का लाभ उठाने की कला मात्र नहीं है; कि विचारधारा का भी हमारी राजनीति से कुछ रिश्ता होना चाहिए। यह दुर्भाग्य ही है कि हमारी राजनीति सत्ता हथियाने और सत्ता में बने रहने तक ही सीमित होती जा रही है। विचारों और विचारधाराओं का नाम लेकर राजनीतिक दल बनाये अवश्य जाते हैं, पर चलते वे इसी सिद्धांत पर ही हैं कि सारा खेल सत्ता का है। यदि ऐसा न होता तो हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि ‘आयाराम-गयाराम’ का घटिया खेल खेलते न दिखाई देते। जिस गति और आसानी से हमारे राजनेता अपना पाला बदलते हैं, उस पर आश्चर्य ही नहीं होता, शर्म भी आती है। राजनीतिक दल भी जिस तरह नेताओं की अदला-बदली को प्रोत्साहन देते हैं, वह भी अपने आप में हास्यास्पद ही नहीं, शर्मनाक भी है। हमारे राजनेता, चाहे व किसी भी रंग के झण्डे वाले हों, किसी मूल्य या आदर्श के आधार पर राजनीति करने में विश्वास नहीं करते। कहते वे भले ही कुछ भी रहें, करते वे घटिया राजनीति ही हैं—इस घटिया राजनीति में नीतियों-सिद्धांतों और अंतरात्मा की आवाज़ का कोई मतलब नहीं होता। मतलब होता है तो सिर्फ इस बात का कि राजनीति के इस खेल में मुझे कितना और कैसा लाभ मिल सकता है।

अंतरात्मा की बात से याद आया उपराष्ट्रपति पद के लिए होने वाले इस चुनाव में भी कम से कम एक प्रत्याशी ने सांसदों से अपील की थी कि वे राजनीतिक सौदेबाजी के आधार पर नहीं, अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनकर मतदान करें। कहने को तो सब ऐसा ही करने की बात कह सकते हैं, पर हकीकत तो यही है कि हमारी राजनीति में अंतरात्मा की आवाज़ जैसी कोई बात बची नहीं है। वह सिद्धांतों, मूल्यों, आदर्शों की राजनीति नहीं है, मात्र सत्ता की, और सत्ता के लिए, राजनीति है। हमने यह बार-बार देखा है कि हमारे राजनेता सत्ता के लिए कुछ भी कह सकते हैं, कर सकते हैं! उनकी कथनी और करनी के अंतर को देखने के लिए किसी खुर्दबीन की आवश्यकता नहीं है।

लोकसभा के अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति, उपराष्ट्रपति का पद राजनीति से ऊपर होना चाहिए। इन दोनों आसनों पर बैठने वाले व्यक्तियों से यह आशा की जाती है कि वे दलगत राजनीति से ऊपर उठकर अपने कार्य को अंजाम देंगे। अक्सर ऐसा होता भी होगा, पर ऐसे उदाहरण भी कम नहीं हैं जब हमने इन पदों की शोभा बढ़ाने वालों को सत्तारूढ़ पक्ष के प्रतिनिधि के रूप में काम करते देखा है। यह सही है कि लोकसभा और राज्यसभा की कार्रवाई चलाने वाले व्यक्ति भी किसी राजनीतिक दल के सदस्य के रूप में चुनकर ही संसद में आते हैं। पर अपेक्षा यह की गयी है कि इन पदों पर बैठने वाले व्यक्ति दलगत राजनीति के हितों-स्वार्थों से ऊपर उठकर निर्णय लेंगे। पर हमेशा ऐसा होता नहीं दिखता। पर ऐसा दिखना चाहिए—ऐसा ही होना चाहिए।

लेकिन जो चाहिए, और जो हो रहा है, उसके बीच की सीमा-रेखा अक्सर धुंधली पड़ते देखना अब हमें कोई आश्चर्य नहीं लगता। सच बात तो यह है कि हमारी राजनीति में अंतरात्मा की आवाज़ जैसी कोई बात अब बची नहीं है। हमारे प्रतिनिधि दलीय हितों के आधार पर आचरण करते हैं और कतई ज़रूरी नहीं कि इन दलीय स्वार्थों का राष्ट्रीय हितों से कोई रिश्ता हो ही।

लोकसभा के अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति का पद दलीय हितों से कहीं ऊपर होता है—ऊपर होना चाहिए। पर अक्सर जो कुछ देखा जाता वह इसके विपरीत ही होता है। लोकसभा के अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति का चुनाव सांसद ही करते हैं। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपने विवेक से यह कार्य करेंगे। इसीलिए इन चुनावों के लिए कोई व्हिप भी जारी नहीं किया जाता। मतदान भी गुप्त ही होता है। इस सारी प्रक्रिया का अर्थ और उद्देश्य यही है कि मतदाता सांसद बिना किसी दबाव के दलीय स्वार्थों से ऊपर उठकर, मतदान कर सकें। पर अक्सर देखा यही गया है कि इन पदों के लिए मतदान का आधार दलीय स्थितियां ही होती हैं। यह स्थिति बदलनी चाहिए।

विवेकहीन राजनीति किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कही जा सकती। रामधारी सिंह की पंक्ति है—‘जब नाश मनुज का आता है, पहले विवेक खो जाता है’। इस विवेक को खोने से बचाना होगा। उपराष्ट्रपति-पद के चुनाव में सांसदों के निर्णय का आधार विवेक रहा या मात्र दलीय हित, यह कहना-समझना मुश्किल है। पर इतना तो कहा ही जाना चाहिए कि जनतंत्र जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों से विवेकपूर्ण व्यवहार की अपेक्षा करता है। सदन के भीतर भी, और सदन के बाहर भी।

यह विवेकपूर्ण व्यवहार मतदान के लिए हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों से किसी ‘प्रशिक्षण’ की आवश्यकता की अपेक्षा नहीं करता। यह दुर्भाग्य ही है कि हमारी राजनीति में विवेक पर वैयक्तिक और दलीय स्वार्थ अक्सर हावी हो जाते हैं। जनतंत्र की सफलता और सार्थकता का तकाज़ा है कि इस स्थिति से उबरा जाये। निर्वाचित सांसदों के विवेक पर शंका करने की आवश्यकता नहीं है, आवश्यकता विवेकपूर्ण व्यवहार करने की है। संसद के सदनों के भीतर ऐसा व्यवहार झलकना ही नहीं, छलकना चाहिए। काश! ऐसा हो!

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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