दवा उद्योग नहीं, जन स्वास्थ्य को मिले प्राथमिकता
मानदंड तो मौजूद हैं, उन्हें और अधिक कठोर बनाने के लिए संशोधित भी किया जाता है, लेकिन उन्हें लागू करने की कोई इच्छाशक्ति नहीं है। केंद्रीय और राज्य औषधि नियंत्रण प्राधिकरण, जिनके जिम्मे मानदंड लागू करवाने का काम है, कर्मचारियों...
मानदंड तो मौजूद हैं, उन्हें और अधिक कठोर बनाने के लिए संशोधित भी किया जाता है, लेकिन उन्हें लागू करने की कोई इच्छाशक्ति नहीं है। केंद्रीय और राज्य औषधि नियंत्रण प्राधिकरण, जिनके जिम्मे मानदंड लागू करवाने का काम है, कर्मचारियों की कमी से जूझ रहे हैं या जानबूझकर कर्मचारियों की कमी बना रखी है।
ज़हरीले औद्योगिक रसायन की मौजूदगी वाले कफ़ सिरप के सेवन से काफी तादाद में हुई बच्चों की मौतें भारत की नाकाम दवा नियंत्रण एवं नियामक प्रणाणी पर फिर से ध्यान खींचती हैं। हाल के वर्षों में, स्वदेश और विदेशों में भी, भारत निर्मित दवाओं से जुड़ी ऐसी कई दुखद घटनाएं हुई हैं।
हर बार, हमारी प्रतिक्रिया एक जैसी होती है—मौतों का ज़िम्मेदार विषाक्त या घटिया दवाओं को ठहराया जाता है, राज्य और केंद्र सरकारों द्वारा जांच की रस्म निभाई जाती है, कुछ छिटपुट उत्पादन इकाइयों पर छापे मारे जाते हैं, नियमों का सही ढंग से पालन न करने की रिपोर्ट आती है, कुछेक इकाइयों के उत्पाद लाइसेंस निलंबित कर दिए जाते हैं, स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा राज्यों को नियामक मानदंडों को ‘सख्ती से’ लागू करवाने का निर्देश दिया जाता है। फिर जल्द ही ‘पहले जैसा क्रियाकलाप’ शुरू हो जाता है। किसी पर कोई कार्रवाई नहीं होती, नियम जस-के-तस, दवा नियामक निकायों में रिक्त पदों को नहीं भरा जाता, किसी भी दोषी इकाई को स्थायी रूप से बंद नहीं किया जाता, और पिछली घटनाओं की जांच के निष्कर्षों को साझा करने की कोई ज़हमत नहीं उठाता।
कफ़ सिरप को जहरीला बनाने वाले कारक अब सर्वविदित हैं : डाईइथालिन ग्लाइकॉल और इथाईलिन ग्लाइकॉल। इन दोनों जहरीले रसायनों के विषाक्त प्रभावों में पेटदर्द, उल्टी, दस्त, पेशाब करने में असमर्थता, सिरदर्द, मानसिक स्थिति में बदलाव और गुर्दे को गंभीर आघात शामिल हैं, जिससे मौत भी हो सकती है। ऐसा प्रतीत होता है कि कफ़ सिरप बनाते समय, खासकर प्रोपाइलिन ग्लाइकॉल और पॉलीइथाइलिन ग्लाइकॉल जैसे घटकों का उपयोग करने वाले सिरपों में, डाईइथालिन ग्लाइकॉल और इथाईलिन ग्लाइकॉलर रसायनों का उपयोग मिलते जुलते नामों में गफलत होने से हो जाता है। गाम्बिया, उज़्बेकिस्तान, कैमरून, इराक और अन्य देशों में ‘भारत में निर्मित’ उत्पादों के सेवन से दर्जनों बच्चों की मौत के बाद, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वहां के राष्ट्रीय नियामकों और स्वास्थ्य अधिकारियों को चेतावनी देते हुए कहा है कि यदि उनके देशों में ऐसे उत्पाद पाए जाते हैं, तो उसकी सूचना दें। एजेंसी ने राष्ट्रीय अधिकारियों को दवाओं के उपयोग से पहले उनकी उत्पादन सामग्री में डाईइथाइलिन ग्लाइकॉल की उपस्थिति की जांच करने की सलाह दी है। मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा में कफ सिरप से हुई मौतों के लिए भी यही डाईइथाइलिन ग्लाईकॉल ज़िम्मेदार है।
रंज होता है कि कफ़ सिरप निर्माता इतने लापरवाह हैं कि उनके उत्पाद की सामग्री में घातक विषाक्त पदार्थ का उपयोग हो जाए। नि:संदेह, वे अनिवार्य शर्त यानी ‘गुड मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिसेज’ (जीएमपी) नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं। अब या तो वे जीएमपी का पालन नहीं कर रहे या सरकार ने उन्हें लंबी रस्सी दे रखी है?
जहरीली दवाओं से होने वाली हर मौत के बाद, जीएमपी लागू करने या उसे और सख्त बनाने की बात होती है। लेकिन जैसे ही अमल होने लगता है, लघु एवं मध्यम दवा निर्माताओं का प्रतिनिधित्व करने वाले उद्योग संघ जीएमपी नियमों को लागू करने के लिए समय मांगते हैं या उनमें ढील देने की मांग करते हैं, यह बहाना बनाते हैं कि उनके पास मानदंडों को लागू करने लायक क्षमता नहीं है। सरकार भी इसलिए सहानुभूति रखती है, क्योंकि नियमों का सख्ती से पालन या अनुपालन न करने वाली इकाइयों के बंद होने पर उसके ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम को धक्का लग सकता है। गाम्बिया में 68 बच्चों की मौत के बाद, भारतीय एजेंसियों ने तो उलटे विश्व स्वास्थ्य संगठन पर प्रक्रियाओं का पालन न करने का आरोप जड़ डाला और इसमें भारतीय निर्यात को बदनाम करने की साजिश देखी।
छिंदवाड़ा की घटना के बाद, भारतीय औषधि महानियंत्रक ने दवा निर्माताओं के लिए जीएमपी की संशोधित अनुसूची एम का पालन करने की आवश्यकता दोहराई है। उन्होंने कहा है कि ‘कुछ कंपनियां, जिन्होंने बुनियादी ढांचा उन्नयन योजना के लिए सरकार के आवेदन किया है, उन्हें दिसंबर 2025 तक का समय दिया गया है’ और राज्यों से संशोधित जीएमपी मानदंडों को सख्ती से लागू करने का आग्रह किया है। इसका अर्थ है कि अब तक भी, जीएमपी की नई अनुसूची पर अमल नहीं किया जा रहा।
कई देशों में भारत निर्मित कफ़ सिरप से हुई मौतों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मचे हंगामे के बाद, नई अनुसूची जारी की गई थी। यह बड़ी कंपनियों के लिए जून, 2024 में प्रभावी होनी थी, लेकिन लघु एवं मध्यम आकार के दवा उत्पादन (जिनका कारोबार 250 करोड़ रुपये से कम है) को दिसंबर, 2025 तक का समय दिया गया, जहरीले तत्त्वों वाली उक्त दवाएं अधिकांशतः ऐसी कंपनियों द्वारा ही बनी थीं। कारोबार की यह सीमा कुछ इस तरह से तय की गई है ताकि अधिकांश निर्माता इसके दायरे में आ सकें। ‘अनुसूची एम’ के तहत दवा निर्माताओं को फार्मास्युटिकल गुणवत्ता प्रणाली, गुणवत्ता जोखिम प्रबंधन और कम्प्यूटरीकृत भंडारण प्रणालियों जैसी व्यवस्था अपनी इकाई में बैठाना आवश्यक है। उत्पाद की गुणवत्ता की समीक्षा अनिवार्य है, जिसमें बैच रिकॉर्ड और महत्वपूर्ण प्रक्रिया मापदंड डेटा विश्लेषण शामिल है। निर्माताओं को संभावित पुन: परीक्षण के लिए उत्पादन के दौरान उठाए सैंपल और अंतिम उत्पाद के नमूने संभाल कर रखना अनिवार्य है।
इसलिए, मानदंड तो मौजूद हैं, उन्हें और अधिक कठोर बनाने के लिए संशोधित भी किया जाता है, लेकिन उन्हें लागू करने की कोई इच्छाशक्ति नहीं है। केंद्रीय और राज्य औषधि नियंत्रण प्राधिकरण, जिनके जिम्मे मानदंड लागू करवाने का काम है, कर्मचारियों की कमी से जूझ रहे हैं या जानबूझकर कर्मचारियों की कमी बना रखी है। पिछले दो दशकों में अनेकानेक विशेषज्ञ पैनल, समीक्षा समितियां और संसदीय पैनल इस ओर इंगित कर चुके हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर स्थिति जस की तस बनी हुई है। तेलंगाना, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में हालात खास तौर पर खराब हैं, जहां पर दवा उत्पादन इकाइयों का बड़ा जमावड़ा है।
भारत में दवा नियमन में एक बुनियादी बदलाव लाने की जरूरत है। उपभोक्ता या रोगी के हितों की बजाय दवा नियामक प्राधिकरणों और सरकारों की तरजीह और ध्यान दवा और दवा उद्योग के हितों पर है। उद्योग को बचाए रखने के लिए मानदंडों में ढील दी जाती है, या गैर-अनुपाल बर्दाश्त किया जाता है। अन्यथा, कोई वजह नहीं है कि गाम्बिया और अन्य देशों में भारत निर्मित कफ़ सिरप में पाया गया डाइइथालिन ग्लाइकॉल रसायन बच्चों की मौतों की वजह बनता। कायदे से तो उस वक्त तमाम कफ़ सिरप उत्पादकों पर देशव्यापी कार्रवाई होनी चाहिए थी, और डाईइथालिन का उपयोग करने वालों की पहचान करके उन्हें दंडित किया जाना चाहिए था।
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण संबंधी संसदीय समिति की 2012 में संसद में प्रस्तुत 59वीं रिपोर्ट में कहा गया था कि ‘भारत में औषधि विनियमन प्रणाली की अधिकांश खामियां मुख्य रूप से औषधि नियामक की गलत प्राथमिकताओं और धारणाओं के कारण हैं। दशकों से, यह औषधि उद्योग के प्रसार और सहूलियत को प्राथमिकता देता रहा है, जिसके कारण, दुर्भाग्य से, सबसे बड़े हितधारक, यानी उपभोक्ता का हित कभी सुनिश्चित नहीं हो पाया’। पैनल ने सिफारिश की थी कि केंद्रीय औषधि संगठन के मिशन वक्तव्य में यह कहा जाना चाहिए कि यह मंतव्य केवल जन स्वास्थ्य के हितों का ध्यान रखना है।
लेखक विज्ञान संबंधी विषयों के समीक्षक हैं।

