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आत्मीय संवाद से रिश्तों की गरिमा की रक्षा

विकृतियों का त्रास
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आज यदि पारिवारिक व सामाजिक रिश्तों में हिंसक प्रवृत्तियां विकसित हो रही हैं तो कहीं न कहीं संवादहीनता उसके मूल में है। एक-दूसरे के मनोभावों को समझकर और संवेदनशीलता के साथ टकराव को टाला जा सकता है।

भारतीय समाज में सामंती सोच खत्म नहीं हुई है — इसका एक उदाहरण हाल ही में गुरुग्राम में देखने को मिला। दस जुलाई को एक राज्यस्तरीय टेनिस खिलाड़ी बेटी की उसके ही पिता ने गुस्से में आकर गोली मारकर हत्या कर दी। कारण? बेटी की कमाई पर आश्रित रहने वाले पिता को यह ताना सुनना पड़ता था कि वह अपनी बेटी से कमाकर खा रहा है।

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पिता के अनुसार, आस-पड़ोस के लोग उसे ताना देते थे कि वह बेटी से एकेडमी बंद नहीं करवा सका। इसी कुंठा और सामाजिक दबाव में उसने अपनी ही संतान की जान ले ली।

किताबों में यह सच पढ़ाया जाता है कि माता-पिता अपने बच्चों को आगे बढ़ते देखना चाहते हैं। बच्चों की हर उपलब्धि मां-बाप के लिए गर्व का विषय होती है। मगर यहां स्थिति उलट है—बेटी ने न केवल अपने पिता के सपनों को साकार करते हुए एक सफल टेनिस खिलाड़ी के रूप में पहचान बनाई, बल्कि आगे चलकर एक टेनिस अकादमी भी शुरू की। यही सफलता उसके लिए काल बन गई, क्योंकि पिता और आस-पड़ोस की दकियानूसी सोच उसकी राह का रोड़ा बन गई।

यह केवल एक रिश्ते की हत्या नहीं है। आज के समय में पति-पत्नी, मां-बच्चे, गुरु-शिष्य जैसे रिश्तों के बीच की संवेदनशीलता और आत्मीयता भी कमजोर पड़ती जा रही है—वहीं आत्मा से उपजे आदर्शों की वह धरती, जहां संबंधों के फूल खिला करते थे, अब मुरझा रही है।

हम जिस समाज की कल्पना करते हैं—जहां रिश्ते स्नेह, सम्मान और सहयोग की बुनियाद पर टिके होते हैं — वहां आज नफरत, ईर्ष्या और अपूर्ण आकांक्षाओं की घातक छाया फैलती जा रही है।

आज की भौतिकतावादी दौड़ ने समाज में ऐसी विकृत मूल्य प्रणाली को जन्म दिया है, जिसमें व्यक्ति किसी भी कीमत पर आगे बढ़ना चाहता है—चाहे वह नैतिकता की हत्या करके ही क्यों न हो। अपनी छवि को 'पाक-साफ' बनाए रखने की होड़ और दूसरों की सफलता से उपजी ईर्ष्या ने इंसानी सोच को इतना विषाक्त कर दिया है कि रिश्तों और जिम्मेदारियों की गरिमा ही नष्ट होती जा रही है।

अगर गुरुग्राम में एक पिता अपनी ही बेटी की सफलता से जलकर उसे गोली मार देता है, तो वहीं एक कस्बाई शहर में एक स्कूल प्राचार्य को इसलिए गोली मार दी जाती है क्योंकि वह छात्रों को अनुशासन का पाठ पढ़ा रहा था — उन्हें सही ढंग से कपड़े पहनने, बाल संवारने और नशे से दूर रहने की सलाह दे रहा था।

यह उदाहरण दर्शाते हैं कि कैसे विकृत मूल्यों की बलि वेदी पर आज न जाने कितने रिश्ते, आदर्श और जीवन मूल्य रोज़ कुर्बान हो रहे हैं। माहौल में एक अजीब किस्म की हिंसा और असहिष्णुता घर कर गई है। समाज जैसे संवेदना-विहीन होता जा रहा है —जहां न शिक्षा का सम्मान है, न रिश्तों की पवित्रता की कोई जगह बची है। रिश्तों की संवेदना मिटती जा रही है।

शहरों की सड़कें भीड़ से भरी हैं, लेकिन यह सिर्फ शरीरों की भीड़ है —आत्माओं का कोई संवाद नहीं। सोशल मीडिया और आभासी दुनिया ने संवाद को राष्ट्रों तक फैला तो दिया है, लेकिन यह संवाद नहीं, सिर्फ 'संपर्क' रह गया है — खोखला, सतही और बहुधा नकली।

सर्वेक्षण बताते हैं कि आज दुनिया का हर छठा व्यक्ति अकेलेपन का शिकार है, और लाखों ज़िंदगियां इस त्रासद अंधेरे में गुम होती जा रही हैं। नवीन आंकड़ों के अनुसार, अकेलापन हर वर्ष 8 लाख से अधिक लोगों की जान ले रहा है। यह सिर्फ सामाजिक संबंधों का टूटना नहीं है, बल्कि व्यक्ति का अपने ही घर-परिवार से कट जाना है। स्वार्थ के अंधकार में डूबे हुए इन लोगों की आंखों से अपनत्व की छाया भी लुप्त हो जाती है। ऐसे माहौल में लोग केवल अपने बारे में सोचते हैं, अपने स्वार्थ को ही सर्वोपरि मानते हैं। दूसरों के दुख-दर्द के क्षणों में, या किसी हिंसक घटना के सामने होते हुए भी, सहायता करने के बजाय वे उसका वीडियो बनाने लगते हैं।

यह माहौल बदलना होगा। संवाद फिर से स्थापित करना होगा। इसके लिए समाज में स्वस्थ मूल्यों और आदर्शों की नींव को बचाना बेहद आवश्यक है। लेकिन यह तभी संभव है जब हम भौतिक आपाधापी से थोड़ा हटकर, किसी अलग रास्ते पर चलने का साहस करें। व्यक्ति जब अकेला हो जाता है, तो वह खुद को इस दुनिया से निर्वासित-सा महसूस करता है। उसके लिए जीवन का हर रास्ता, हर मोड़ पलायन जैसा हो जाता है —और जीवन का कोई अर्थ शेष नहीं रहता। वह अवसाद की काली छाया से ग्रस्त हो जाता है।

चिकित्सकीय आंकड़े बताते हैं कि भारत में अवसादग्रस्त लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। काश! इस अकेलेपन की जगह संवाद, समझदारी और आत्मीयता का संदेश मिल पाता — तो शायद यह संख्या इतनी भयावह न होती। इस दिशा में गंभीर पहल करने की जरूरत है।

लेखक साहित्यकार हैं।

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