लिव-इन रिलेशनशिप में रिश्तों के टूटने पर संपत्ति के बंटवारे से जुड़ी कई चुनौतियां सामने आती हैं, जैसे कि संयुक्त संपत्ति का अभाव और वित्तीय योगदान साबित करने में मुश्किल। अक्सर पार्टनर संपत्ति अलग-अलग खरीदते हैं या एक कमाता है और दूसरा घर चलाता है, जिससे यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि कौन सी संपत्ति किसकी है।
भारत में लिव-इन रिलेशनशिप एक जटिल सामाजिक वास्तविकता बन गई है, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और पसंद का प्रतीक तो है, लेकिन इसके कानूनी दायरे, खासकर संपत्ति के अधिकारों को लेकर, अक्सर भ्रम की स्थिति बनी रहती है। पारंपरिक विवाह के इतर इस रिश्ते में रहने वाले भागीदारों के लिए संपत्ति का अधिकार अक्सर एक अंधकारमय गलियारे जैसा होता है, जहां न्याय की राह आसान नहीं, क्योंकि सामाजिक मानदंडों में बदलाव और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर बढ़ते जोर के साथ, यह व्यवस्था अब महानगरों तक ही सीमित नहीं रही है, बल्कि छोटे शहरों और कस्बों में भी इसका प्रचलन बढ़ रहा है।
हालांकि, इस बढ़ती प्रवृत्ति के साथ कई कानूनी और सामाजिक चुनौतियां भी सामने आ रही हैं, जिनमें सबसे प्रमुख है लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले पार्टनर्स के संपत्ति के अधिकार का मुद्दा, जो एक ऐसा क्षेत्र है जहां स्पष्ट कानूनी ढांचे की कमी के कारण अक्सर जटिल समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
लिव-इन रिलेशनशिप में रिश्तों के टूटने पर संपत्ति के बंटवारे से जुड़ी कई चुनौतियां सामने आती हैं, जैसे कि संयुक्त संपत्ति का अभाव और वित्तीय योगदान साबित करने में मुश्किल। अक्सर पार्टनर संपत्ति अलग-अलग खरीदते हैं या एक कमाता है और दूसरा घर चलाता है, जिससे यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि कौन सी संपत्ति किसकी है। भावनात्मक और सामाजिक दबाव भी महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए लड़ने से रोकता है। उत्तराधिकार का मुद्दा भी एक बड़ी समस्या है, क्योंकि वसीयत न होने पर लिव-इन पार्टनर का संपत्ति में अधिकार जताना असंभव हो जाता है।
हमारे देश में लिव-इन रिलेशनशिप को लेकर कोई स्पष्ट और व्यापक कानून मौजूद नहीं है, जिसके कारण ऐसे रिश्तों में संपत्ति के अधिकारों पर अक्सर अस्पष्टता बनी रहती है। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न फैसलों में इसे ‘विवाह जैसी प्रकृति का रिश्ता’ माना है, खासकर घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम, 2005 के तहत गुजारा भत्ता के मामलों में। फिर भी संपत्ति के बंटवारे या विरासत को लेकर कोई ठोस कानूनी दिशानिर्देश स्थापित नहीं किए गए हैं। भारतीय कानून पारंपरिक रूप से विवाह-आधारित संबंधों को मान्यता देता है, जहां पति-पत्नी के संपत्ति के अधिकार स्पष्ट रूप से परिभाषित हैं।
इस कानूनी अस्पष्टता का सीधा अर्थ यह है कि यदि एक लिव-इन पार्टनर की मृत्यु हो जाती है, या रिश्ता टूट जाता है, तो संयुक्त रूप से अर्जित संपत्ति के बंटवारे या विरासत को लेकर विवाद उठना तय है, जिससे अक्सर महिला साथी को खमियाजा भुगतना पड़ता है। वे अपनी कमाई या रिश्ते में किए गए योगदान का कानूनी प्रमाण पेश करने में कमजोर स्थिति में होती हैं। यह कानूनी लड़ाई लंबी और महंगी साबित होती है, जिसमें न्याय मिलना मुश्किल हो जाता हैै।
भारतीय न्यायपालिका ने विभिन्न फैसलों के माध्यम से लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले पार्टनर्स के अधिकारों, खासकर संपत्ति के संदर्भ में, को परिभाषित किया है। एस. खुशबू बनाम कन्नियाम्मल (2010) मामले ने लिव-इन रिलेशनशिप की कानूनी वैधता को स्थापित करते हुए इसे जीवन के अधिकार का हिस्सा माना। डी. वेलुसामी बनाम डी. पचईअम्मल (2010) में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘विवाह जैसे रिश्ते’ की अवधारणा को उजागर किया, यह स्पष्ट करते हुए कि यदि लिव-इन पार्टनर ने किसी संपत्ति के अधिग्रहण में प्रत्यक्ष योगदान दिया है, तो उस पर उनका अधिकार हो सकता है, हालांकि स्वतः विरासत का अधिकार नहीं होता। इंद्र सरमा बनाम वी.के.वी. सरमा (2013) में, घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के तहत लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिलाओं को भरण-पोषण का अधिकार दिया गया, जो वित्तीय सुरक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। धन्नूलाल और अन्य बनाम गणेशराम और अन्य (2015) ने यह स्थापित किया कि यदि एक पुरुष और महिला लंबे समय तक पति-पत्नी की तरह साथ रहते हैं, तो उन्हें विवाहित माना जाएगा, जिससे महिला को लिव-इन पार्टनर की मृत्यु के बाद संपत्ति विरासत में पाने का अधिकार मिला।
सबसे हालिया फैसला कट्टुकंडी इडाथिल कृष्णन तथा अन्य बनाम कट्टुकंडी इडाथिल वाल्सन और अन्य (2022) ने लिव-इन रिलेशनशिप से जन्मे बच्चों के संपत्ति अधिकारों को स्पष्ट करते हुए कहा कि ऐसे बच्चों को वैध माना जाएगा और उन्हें पैतृक संपत्ति में हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार होगा, बशर्ते संबंध ‘लंबे समय तक’ और ‘आकस्मिक’ प्रकृति का न हो। इन फैसलों ने मिलकर भारत में लिव-इन रिलेशनशिप से जुड़े अधिकारों, विशेषकर संपत्ति और वित्तीय सुरक्षा के पहलुओं को परिभाषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। नि:संदेह, समस्याओं से निपटने के लिए लिव-इन रिलेशनशिप के स्वैच्छिक पंजीकरण और भागीदारी समझौते ‘पार्टनरशिप एग्रीमेंट’ को बढ़ावा देना चाहिए, ताकि संपत्ति और वित्तीय जिम्मेदारियां स्पष्ट रूप से परिभाषित हों। साथ ही, न्यायपालिका को भी स्पष्ट दिशानिर्देश बनाने चाहिए और लोगों को अपने कानूनी अधिकारों के प्रति जागरूक करना चाहिए ताकि भविष्य में होने वाली समस्याओं से बचा जा सके।
लेखक कुरुक्षेत्र विवि के विधि विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं।