स्वास्थ्यकर भोजन व सक्रिय जीवन को दें बढ़ावा
बेशक शारीरिक रूप से सक्रिय रहना और व्यायाम करना व्यक्तिगत चुनाव का मामला है, लेकिन सार्वजनिक नीतियां सक्रिय वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, जिनसे सामुदायिक स्तर पर शारीरिक फिटनेस को बढ़ावा मिलता है।
दिनेश सी. शर्मा
अपने हालिया ‘मन की बात’ प्रसारण में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बड़ी सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती पर प्रकाश डाला—अधिक वजन या मोटापा। यह मधुमेह, हृदय रोग और कैंसर जैसे गैर-संक्रामक रोगों का जोखिम बढ़ाने के मुख्य कारकों में से एक है। प्रधानमंत्री ने कहा कि मोटापे की चुनौती का समाधान खाद्य तेल की खपत को कम करने जैसे छोटे प्रयासों से किया जा सकता है। उन्होंने कहा, ‘आपको यह निर्णय लेना चाहिए कि आप हर महीने 10 प्रतिशत कम तेल का उपयोग करेंगे… यह मोटापा कम करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा।’ उन्होंने आगे कहा कि भोजन में कम तेल-घी का उपयोग करना और मोटापे से निजात न केवल व्यक्तिगत चुनाव है, बल्कि परिवार के प्रति व्यक्ति की जिम्मेदारी भी है।
प्रधानमंत्री ने अपने सोशल मीडिया हैंडल पर एक सार्वजनिक अभियान शुरू किया, जिसमें 10 सार्वजनिक हस्तियों को अपने भोजन में 10 प्रतिशत तेल कम करने की चुनौती दी और उनसे आगे अन्य 10 लोगों को इस चुनौती से जोड़ने का आग्रह किया। उन्होंने उम्मीद जताई कि इससे मोटापे से लड़ने में काफी मदद मिलेगी। एनसीडी और तेल की खपत के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री का यह सार्वजनिक स्वास्थ्य संदेश महत्वपूर्ण है, लेकिन यह पूरी कहानी का केवल एक हिस्सा भर है।
दरअसल, बड़ी वजह है वसा का अत्यधिक सेवन, मुख्य रूप से ट्रांस फैटी एसिड या ट्रांस फैट, जो एनसीडी शृंखला का जोखिम बढ़ाने के बड़े कारकों में से एक है। ट्रांस फैट स्रोतों में डेयरी उत्पाद, घी, मांस और वनस्पति हैं। अन्य किस्म की वसा का अधिक सेवन भी हानिकारक है। राष्ट्रीय पोषण संस्थान, हैदराबाद द्वारा जारी आहार दिशानिर्देशों के अनुसार, नारियल तेल, घी और पामोलीन तेल में संतृप्त वसा का अनुपात सबसे अधिक है। प्रधानमंत्री द्वारा सुझाया गया विचार—खाना पकाते या उसकी सजावट करते समय उपयोग किए जाने वाले तेल की खपत को कम करना- केवल आधा कदम है। हम प्रसंस्कृत भोजन पदार्थ, फास्ट फूड, तले स्नैक्स, कुकीज इत्यादि के जरिए ट्रांस फैट ग्रहण करते हैं। अन्य कारकों में, भोज्य पदार्थों में मौजूद संतृप्त और असंतृप्त वसा का स्रोत भी कम या ज्यादा मात्रा में होता है। जन स्वास्थ्य के हित में, न केवल तेल बल्कि देसी एवं वनस्पति घी के साथ-साथ पैकेटबंद अति-प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ और डेयरी उत्पादों के सेवन में कटौती करना आवश्यक है। मोटापे के विरुद्ध अभियान में अस्वास्थ्यकारी आहार और आरामपरस्त जीवनशैली के त्याग को भी शामिल किया जाए।
स्वेच्छा से खाद्य तेल की खपत में 10 प्रतिशत की कटौती करने के लिए कहकर, प्रधानमंत्री ने मोटापे और असंक्रामक महामारी से निपटने का जिम्मा लोगों पर डाल दिया है। यह दशकों से अर्जित उस जन स्वास्थ्य ज्ञान के विरुद्ध है, जो कहता है कि स्वस्थ आहार संबंधी आदतों को अपनाना व्यक्तिगत और सामाजिक, दोनों पक्षों की जिम्मेदारी है। सरकार का यह कर्तव्य है कि वह ऐसी नीतियों के जरिए वातावरण बनाए, जो लोगों को कम वसा वाले स्वस्थ आहार का सेवन करने में सक्षम और प्रोत्साहित करें। यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि जब सारा माहौल ही मोटापे को बढ़ावा देने वाला हो, जिसे वैज्ञानिक मोटापे को बढ़ावा देने वाला वातावरण कहते हैं- वहां कोई स्वस्थ आहार और स्वस्थ जीवनशैली कैसे अपना सकेगा। यह प्रयोजन सार्वजनिक नीतियों द्वारा आकार पाता है, वरना समुदायों को स्वस्थ विकल्प प्रदान नहीं करता।
हमें व्यक्तिगत कार्यों के साथ-साथ मोटापा और एनसीडी से निपटने के लिए जनसंख्या-व्यापी और बहुक्षेत्रीय नीतिगत दृष्टिकोण की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, भारत खाद्य तेल आपूर्ति के लिए आयात पर बहुत अधिक निर्भर है, और सार्वजनिक नीतियां पाम ऑयल के आयात को प्रोत्साहित करने वाली हैं। कुल आयातित खाद्य तेलों में पाम ऑयल का हिस्सा लगभग 60 प्रतिशत है। पाम ऑयल प्रसंस्कृत खाद्य उद्योग का मनपसंद माध्यम है, हालांकि अनेक अध्ययनों ने इसके सेवन को हृदय रोग के बढ़ते जोखिम से जोड़ा है। खाद्य तेलों के उत्पादन और आयात को नियंत्रित करने वाली सार्वजनिक नीतियों को इस तरह से बनाया जाए कि वे लोगों को कम हानिकारक खाद्य तेलों का विकल्प प्रदान करें।
पिछले कुछ दशकों में, भारत में बढ़ती आय, शहरीकरण और खाद्य उत्पादों के बढ़ते वैश्वीकरण के साथ खान-पान संबंधी आदतें बदल गई हैं, जिसके परिणामस्वरूप नमक, चीनी और वसा से भरपूर अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थ लोकप्रिय हो गए हैं। इन उत्पादों ने खाद्य पारिस्थितिकी को बदल दिया है। जंक फूड अब हर जगह उपलब्ध है– पास-पड़ोस, मोहल्ले, स्कूल कैंटीन, कार्यालय, अस्पताल, सिनेमा हॉल, झुग्गी-झोपड़ियां, गांव तक में। इस बदलाव में नीतियों का योगदान बहुत बड़ा है। सरकारें चिप्स, कोला, कुकीज, नमकीन इत्यादि बनाने वाली प्रसंस्कृत खाद्य कंपनियों को सब्सिडी प्रदान करती हैं (इसे कृषि आधारित उद्योगों के लिए सब्सिडी के साथ भ्रमित न किया जाए)। जंक फूड उत्पादों की ब्रांडिंग के लिए खाद्य कंपनियों को प्रोत्साहित किया जाता है।
दरअसल, होना यह चाहिए कि कम दाम पर ताजे फलों और सब्जियों की उपलब्धता प्रोत्साहित की जाए क्योंकि यह स्वास्थ्यकारी विकल्प है। लेकिन हमारी नीतियां फलों और सब्जियों को प्रसंस्कृत कर उत्पाद बनाने वाली कंपनियों को प्रोत्साहित कर रही हैं। तिस पर तुर्रा यह है कि खाद्य सुरक्षा प्राधिकरण पिछले कुछ वर्षों से प्रमुख जंक फूड कंपनियों के साथ साझेदारी में ‘ईट राइट’ अभियान चला रहा है! जंक फूड पर सख्त नियमन के लिए समर्थन जुटाने के बजाय, जिसकी मांग सार्वजनिक स्वास्थ्य और उपभोक्ता विशेषज्ञ करते आए हैं- खाद्य सुरक्षा नियामक उलटे उन कंपनियों के साथ साझेदारी कर रहा है, जिन पर इसे नकेल डालनी चाहिए। 2019 में, नियामक ने 2022 तक खाद्य शृंखला से औद्योगिक रूप से उत्पादित ट्रांस फैट खत्म करने के लिए एक पहल ‘भारत@75 : ट्रांस वसा से मुक्ति’ शुरू की थी। लेकिन, जंक फूड उद्योग के कड़े विरोध के कारण यह लक्ष्य हासिल नहीं हो पाया।
शारीरिक श्रमविहीन जीवनशैली और व्यायाम निष्क्रियता और अस्वास्थ्यकर खाद्य पदार्थ, जिसे मोटापा बनने का मुख्य सूत्रधार बताया जाता है, उसके पीछे भी यही कहानी है। बेशक शारीरिक रूप से सक्रिय रहना और व्यायाम करना व्यक्तिगत चुनाव का मामला है, लेकिन सार्वजनिक नीतियां सक्रिय वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, जिनसे सामुदायिक स्तर पर शारीरिक फिटनेस को बढ़ावा मिलता है। उदाहरण के लिए, पैदल चलने और व्यायाम के लिए अनुकूल सार्वजनिक स्थान मुहैया करवाने से शारीरिक गतिविधि को प्रोत्साहित करने में दीर्घकालीन असर है। सार्वजनिक परिवहन, पैदल चलने वालों और साइकिल चलाने के लिए अलग से रास्ता बनाने जैसे उपाय कारों के उपयोग को हतोत्साहित करने में जाने-माने उपाय हैं। ये सभी सार्वजनिक नीतियों के मामले हैं, जो व्यक्तिगत विकल्पों को आकार देते हैं। भले ही खाद्य तेल की खपत को कम करने जैसी व्यक्तिगत क्रिया मोटापा कम करने में एक बड़ा कदम है, लेकिन यह करते वक्त हमारा ध्यान कई क्षेत्रों में अनुकूल सार्वजनिक नीतियों की आवश्यकता से नहीं हटना चाहिए।
लेखक विज्ञान संबंधी मामलों के विशेषज्ञ टिप्पणीकार हैं।