पिछले डेढ़ बरस से पूरे विश्व और विशेष रूप से विकासशील देशों को कोरोना महामारी से जिस प्रलयंकारी स्थितियांे का सामना करना पड़ा, वह अप्रत्याशित तो थी ही, अकल्पनीय भी रही। इसे कोरोना की पहली लहर कहें, जिसने पिछले वर्ष विकास के धरातल पर अपनी अस्मिता की तलाश करते हुए भारत की चूलें हिला दी। कहां तो देश सोच रहा था कि कम से कम दस प्रतिशत आर्थिक विकास दर प्राप्त करके आत्मनिर्भर एवं स्वत: स्फूर्त हो जायेगा और कहां कोरोना के रहस्यमय विध्वंसक वायरस ने कर्फ्यू, पूर्णबन्दी और अपूर्णबन्दी के ऐसे निष्प्राण आर्थिक चरण देश को भेंट किये कि अर्थव्यवस्था की विकास दर शून्य से नीचे -7.7 प्रतिशत पर जा गिरी और सकल घरेलू उत्पादन में -22 प्रतिशत की कमी आ गयी।
बेकारी ने एक शिखर छुआ, और उसके साथ पैदा हो गये अतिरिक्त बेरोजगार। महानगरीय संस्कृति के क्षरण और औद्योगिकीकरण के अपकर्ष के कारण भारत विभाजन के बाद पहली बार इतनी उखड़ी हुई श्रम शक्ति जो अपने कामधंधे और जीने-रहने का ठिकाना फिर से ढूंढती हुई अपने गांव-घरों की ओर भारी तादाद में लौट रही थी। वर्षान्त तक कोरोना की पहली लहर दब गयी, लेकिन फिर भी करोड़ों लोग रह गये, अपनी जन्म माटी में, सहमे कि कहीं वापस लौटने पर महामारी का मौत के हरकारों-सा पागल प्रवाह फिर लौट उनके उखड़े ठिकानों को और जीर्णशीर्ण न कर दे।
फिर सन् इक्कीस का यह बरस आया। वही हुआ, जिसकी आशंका थी। सोलह जनवरी से देश ने कोरोना बचाव टीकाकरण अभियान शुरू किया और फरवरी मास से कोरोना की दूसरी लहर ने अपने ब्रिटिश वेरिएंट के साथ अपना रौद्र रूप दिखाना शुरू कर दिया। इस बार संक्रमण और मरते लोगों की संख्या न केवल पहली लहर से कहीं अधिक थी, बल्कि मरीजों ने प्राण वायु की कमी और प्राणरक्षक टीकों के अभाव में कहीं अधिक जानें गंवायी। अपने दाहकर्म की परिणति ढूंढ़ती हुई लाशों की कतारों की दुर्दशा हृदयविदारक थी।
लगा जैसे इस बीच देश की सामाजिक संवेदना चुक गयी। सबको अपनी जान बचाने की पड़ी थी। लगा नाते, रिश्ते, स्नेह सूत्र और एक-दूसरे का होकर जीना, सब खो गया। सामान्य जिंदगी का चेहरा मोहरा बिगड़ गया। जीने की लय लीक से उतर गयी। उसकी हर तान बेसुरी हो गयी। संक्रमण का भय और मौत के हरकारों का निनाद कुछ इस कदर हावी हो गया कि आदमी, आदमी के स्पर्श से तो क्या, उसके साये से भी घबराने लगा।
अब जीने का मूलमंत्र बन गया, सामाजिक दूरी बनाकर रखना। एेसे में अंतरंगता और आत्मीयता की बातें क्या करें? महानगरीय बोध ने आज तक हमें एक-दूसरे से इतना अजनबी नहीं बनाया, जितना डेढ़ बरस के इस लम्बे कोरोना काल क्रम ने बना दिया कि जीना है तो एकाकी होकर जियो। एक-दूसरे से दो हाथ का अन्तर रख कर जीना सीखो। प्रकृति में और खुदा के बनाये इस इनसान में सौंदर्य बोध की क्या और कहां तलाश करने चले हो? घरों में बन्द हो जाओ, और अपने चेहरों ही नहीं, पूरे शरीर को मास्क के लिहाफ से ढक लो। स्पर्श सुख को निर्वासित करो। उसकी सिहरन को अपने अंंग-प्रत्यंग पर ठिठकने न दो। बल्कि अपने आपको सैनेटाइज करते हुए इस छुहन से बचो।
जैसे हर आपदा में होता है, इस आपदा में भी पहले ऋणात्मक शक्तियां हावी हुईं। प्राण वायु नहीं मिलती तो आक्सीजन गैस के सिलेंडरों से लेकर वेंटिलेटरों तक की कमी को धन के कालाबाजार दे दो। या फिर कहीं अनावश्यक संग्रह और कहीं इसकी कमी का बावेला करते हुए वोटों की सियासत करने लगे। रेमडेसिविर जैसे प्राणरक्षक टीकों को न केवल सोने के भाव बेचो, बल्कि उनके खाली वायलों में नकली दवायें भर मिलावट का वह धंधा चमकाओ कि सरकारी मंत्री तक बयान दे बैठे कि खाद्य तेलों की कीमतों में एेसी नभचर उछाल इसलिए आयी कि इसकी मिलावट रोकी थी।
लाशों की सियासत तो आंकड़ों की हेराफेरी से हुई और भ्रष्ट समाज का मनोविज्ञान उस जीवनदायी चिकित्सा तंत्र तक सरक आया जहां निजी अस्पतालों ने दम तोड़ते लोगों की प्राण रक्षा की जरूरत को अपने मरीज बिस्तरों की नीलामी में भुगताया।
पेट्रोल और डीज़ल ने अपनी कीमतों की उछाल में तर्क की हर सीमा लांघी, क्योंकि इसकी स्वदेशी कीमतों का ज्वार फार्मा कंपनियों द्वारा कोरोना काल के घाटों और केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा अपने खाली खजानों को भर लेने के मंतव्य से चालित हो गया। लेकिन स्वार्थपरता और दिशाहीनता की आपधापी में केवल नकारात्मकता का ही आधिपत्य रहा हो, ऐसा कहना अधूरा सच होगा।
आज भी गहन से गहन अापदा के अंधेरों में भी आदमी के परिश्रम, अनुशासन और साहस की मशाल जलती नजर आती है। नैतिकताविहीन युग में भी संवेदना, मानवता, उदारता और अंधेरा छांट देने की अदम्य इच्छा उभरती है। डेढ़ बरस के इस संकट काल में यह बल सब बांध तोड़कर आगे आया।
इस लहर से ग्रामीण अंचल की 19.9 प्रतिशत जनता प्रभावित हुई। लेकिन धरती पुत्रों ने अपनी हिम्मत नहीं छोड़ी। संक्रमण के भय अथवा नये किसान कानूनों के प्रति अपने असंतोष को किसान मोर्चे की निरन्तरता में प्रकट करने के बावजूद, उन्होंने अपने खेतों को ही अपना सच जाना। हर हालत में अपनी धरती का कर्ज चुकाया और साबित कर दिया कि इस देश में खेती केवल एक धंधा नहीं, उनके जीने का ढंग है।
इस बरस की रबी की फसलों का परिणाम हमारे सामने है। कोरोना की दूसरी लहर का शिखर था, लेकिन फसलों का उत्पादन और कमाई पिछले बरस से अधिक थी। अब खेतों में खरीफ की फसलें बीजी जा रही हैं। एक ओर कोरोना की तीसरी लहर का भय इनके नौनिहालों को भी अपने कलेवर में लेने की बात कह रहा है, और दूसरी ओर कृषि सर्वेक्षक बताते हैं कि देश के किसान ने इस बरस अपनी खरीफ की फसलें धान, कपास, इत्यादि पहले से भी अधिक उत्साह और क्षेत्रफल में बीजी हैं। शायद यही सच्ची भारतीयता है कि संकट चाहे कितना ही विकट क्यों न हो, वह मैदान छोड़कर कभी नहीं भागती।
सही है विश्व सेहत संगठन, कोरोना की तीसरी लहर और उसके डेल्टा प्लस वेरिएंट के जल्दी आक्रामक हो जाने की भविष्यवाणी कर रहा है लेकिन पिछले दिनों का रिकार्डतोड़ टीकाकरण और उसमें प्रशासन के साथ जुड़कर समाजसेवी, धार्मिक संस्थाओं, डेरों, शिरोमणि कमेटियों का योगदान कैसे नगण्य हो सकता है?
देखते ही देखते सबके सामूहिक प्रयास ने 34 करोड़ लोगों को टीका लगा दिया। यह अमेरिका की आबादी के बराबर है और इस देश के लोगों की चेतना और साथ मिलकर चल सकने का परिणाम है। अब देश कटिबद्ध है कि टीकाकरण की इस गति को मन्द नहीं पड़ने दिया जायेगा। वर्षांत तक इतने बड़े देश की सत्तर प्रतिशत आबादी को यह टीका लग सकेगा, ऐसा दिखायी देने लगा है। सामाजिक दूरी में जीते हुए भी सामूहिकता का यह उद्घोष एक नयी दृष्टि का परिचायक है, इसका स्वागत होना चाहिए।
लेखक साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।