नरपत दान बारहठ
हर कोई प्रार्थना तो करता ही है। प्रार्थना के लिए ही मन्दिर, मस्जिद, गिरजा बने हैं। वैसे प्रार्थना के लिए भौतिक स्थान से ज्यादा जरूरी है- हृदय का स्थान, त्याग और प्रेम। अक्सर लोग अपने हिसाब से प्रार्थना करते हैं। यानी प्रार्थना का रूप भिन्न होता है। कोई धन के लिए, कोई यश के लिए, कोई स्वास्थ्य के लिए, कोई सुख के लिए याचना करता है, और कहता है-मैंने प्रार्थना कर ली है।
यह ठीक नहीं है। फिर कोई सोचता है कि प्रार्थना में भावना प्रधान होती है। यानी प्रार्थना के लिए भावना कैसी, कितनी पवित्र और प्रबल है, यह जरूरी है। लगभग हर आदमी के लिए प्रार्थना के मायने अलग-अलग हैं। अब मूल प्रश्न सामने आता है कि सही अर्थ में प्रार्थना के मायने क्या हैं? क्योंकि हर कोई प्रार्थना करता तो है, लेकिन हर कोई प्रार्थना के मायने नहीं जानता। प्रार्थना महज पवित्र भावना नहीं है। भावना मन की होती है। प्रार्थना के लिए भाव तत्व एक अंश है, लेकिन यह पूर्णता नहीं है। हृदय में पूर्ण तत्वों के समाहार बिना प्रार्थना पूर्ण नहीं है और ना ही वह स्वीकार्य है।
जैसे कि कोई व्यक्ति एक रास्ते से निकल रहा है। उसी रास्ते के किनारे पर कोई घायल व्यक्ति गिरा पड़ा है, तड़प रहा है, अगर वह इनसान उसे देखकर भी अनदेखा कर आगे निकल गया, तो वह एक प्रार्थना शून्य हृदय है। लेकिन अगर प्रार्थना से पूर्ण हृदय वाला कोई उस रास्ते से गुजरेगा तो वह रुकेगा, उस घायल के पास जाएगा, फिर वह जो कर सकेगा, करेगा, वह जो गिर गया है, उसे उठाएगा या किसी और को उसकी सहायता के लिए आवाज देगा। इतना ही नहीं, वह उसके परिवार की भी चिंता करेगा, दौड़ेगा, उसे कहीं अस्पताल पहुंचाएगा।
ठीक इसी तरह अगर रास्ते पर पत्थर या कांटे पड़े हैं तो एक प्रार्थना शून्य हृदय उनसे बचकर निकल जाएगा। उनको हटाएगा नहीं। वहीं प्रार्थना से पूर्ण हृदय उन कांटों को रास्ते से दूर फेंकेगा। इस तरह देखें तो प्रार्थना पूर्ण हृदय का एक अर्थ हुआ—प्रेमपूर्ण सद्भाव से भरा हृदय। यानी जब किसी व्यक्ति का हृदय का स्वभाव सद्भावना से पूर्ण और प्रेम युक्त होकर समस्त के प्रति बंधा होता है, तब उसे प्रार्थना कहना होगा। दूसरे अर्थ में प्रार्थना का अर्थ होगा-दूसरे की पीड़ा महसूस करने की क्षमता, दूसरों की भलाई की कामना और किसी का दिल न दुखे, ऐसी भावना अपने भीतर बसाना। ऐसी प्रार्थना आत्मा के अहसास से होती है।
इसे एक कहानी से समझ सकते हैं। एक फकीर था। उम्र भर मस्जिद में प्रार्थना की। अब वो बूढ़ा हो गया। एक दिन लोगों ने उसे मस्जिद में नहीं देखा तो सोचा शायद मर गया है। सभी लोग उसके घर गए। वह फकीर घर के आगे बैठा था। खंजड़ी बजाकर गीत गा रहा था। लोगों ने कहा—यह तुम क्या कर रहे हो? आखिरी वक्त भगवान को भूल गए। प्रार्थना नहीं करोगे। उस फकीर ने कहा—प्रार्थना के कारण ही आज मस्जिद न आ सका। उन्होंने कहा—क्या मतलब, मस्जिद नहीं आए प्रार्थना के कारण। बिना मस्जिद के प्रार्थना हो कैसे सकती है? उस आदमी ने अपना सीना खोल दिया, उसके सीने में एक नासूर हो गया है, उसमें कीड़े पड़ गए हैं!
उसने कहा कि कल मैं गया था मस्जिद और जब प्रार्थना करने के लिए झुका तो कुछ कीड़े मेरे सीने से नीचे गिर गए… और यह देखकर मुझे ख्याल आया कि ये तो मर जाएंगे, बिना नासूर के कैसे जिएंगे। आज मैं झुक नहीं सकता, प्रार्थना के कारण मस्जिद न आ सका। अब सब चुप थे। यह कहानी कम लोगों को समझ आएगी। जिनको समझ आएगी वो समझ जाएंगे कि बिना विचारों की गहनता, बिना भावों की उदात्तता, बिना हृदय की विशालता व बिना पवित्रता एवं परमार्थ भाव वाली प्रार्थना, प्रार्थना नहीं कही जा सकती। यह उथली प्रार्थना है।
प्रार्थना तभी फलित होगी, जब हमारा मन राग-द्वेष से मुक्त हो जाए। प्रार्थना का एक अर्थ होता है, परम की कामना। परम की कामना के लिए क्षुद्र और तुच्छ कामनाओं का परित्याग करना चाहिए। परम की चाह ही ‘प्रार्थना’ है। लेकिन हम परम की नहीं, अल्प की मांग करते हैं। सांसारिक मान, पद व प्रतिष्ठा की चाह प्रार्थना नहीं, ‘वासना’ है। धन, यश व पुत्र- इन तीनों की मूल कामना का नाम ‘ऐषणा’ है। इसे ही ऋषियों ने पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा कहा है। जब तक इन क्षणिक सुख देने वाली तृष्णाओं का अंत नहीं हो जाता तब तक परम-प्रार्थना का आरंभ नहीं हो सकता।
संत मैकेरियस ने ठीक ही कहा है ‘जिसकी आत्मा शुद्ध व पवित्र है, वही प्रार्थना कर सकता है क्योंकि अशुद्ध हृदय से वह पुकार ही नहीं उठेगी जो परमात्मा तक पहुंच सके। ऐसे में केवल जिह्वा बोलती है और हृदय कुछ कह ही नहीं पाता।’ सुप्रसिद्ध कवि होमर के शब्दों में ‘जो ईश्वर की बात मानता है, ईश्वर भी उनकी ही सुनता है।’