चुनौतियों के बीच आर्थिक सहयोग की संभावनाएं
श्रीलंका के राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे 21 जुलाई को एक दिवसीय भारत यात्रा पर आए, लिहाजा आमतौर पर प्रोटोकॉल के मुताबिक जो भव्य स्वागत और तामझाम किया जाता है, समयाभाव के कारण नहीं हो पाया। हालांकि, इस फेरी से भारत-श्रीलंका रिश्तों में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ है। ऐसे वक्त पर जब दोनों देश द्विपक्षीय संबंध बढ़ाने में आर्थिक सहयोग को अधिक तरजीह देने का इरादा रखते हैं, जाहिर है इससे यह नैसर्गिक भावना पनपती है कि दोनों पक्षों के लिए आपसी मतभेदों पर बढ़-चढ़कर बोलने की बजाय शांतिपूर्ण वार्ता से परस्पर समझ बनाना श्रेयस्कर है। श्रीलंका में कभी यह डर बना था कि भारत उसके साथ भी वही करेगा जैसा कि 1980 के दशक में बांग्लादेश में बनी संकटपूर्ण स्थिति पर किया था, पर श्रीलंका की अखंडता को खतरा बनी एलटीटीई के साथ भारतीय शांति सेना द्वारा कड़ाई से पेश आने के बाद यह भय धीरे-धीरे घटता गया। इससे श्रीलंका के उत्तरी और उत्तर-पूरबी इलाके में सदियों से बसे तमिल समुदाय और बहुसंख्यक सिंहली समुदायों के बीच पुराने वक्त से चले आ रहे मतभेदों को हल करने के अवसरों का दरवाज़ा खुला। जैसा कि पूर्वानुमान था श्रीलंकाई सेना द्वारा रौंदे जाने के बाद एलटीटीई अपनी परिणति को प्राप्त हुई।
1980 के दशक में श्रीलंका में भारतीय शांति स्थापना सेना की उपस्थिति और कार्रवाई से जो बड़ा अंतर आया वह यह कि श्रीलंकाइयों को भरोसा हो गया कि भारत उनकी एकता और क्षेत्रीय अखंडता बनाए रखने को प्रतिबद्ध है, वह भी तब जब नस्लीय हिंसा के बाद बड़ी तादाद में तमिलों को भारतीय भूमि तमिलनाडु में शरण लेनी पड़ी थी। अब भारत की इच्छा है कि श्रीलंका सरकार देश के उत्तर-पूरबी खित्ते में बसे तमिलों को देश के लोकतांत्रिक संस्थानों में बनती उनकी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने वाले वादे को पूरा करे। जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा ‘हमें आशा है कि श्रीलंका तमिल लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करेगा। हम उम्मीद करते हैं कि श्रीलंका समानता, न्याय और शांति की पुनर्स्थापना प्रक्रिया को आगे बढ़ाएगा। उम्मीद है कि संविधान में किए गए 13वें संशोधन पर अमल करते हुए श्रीलंका सरकार प्रांतीय परिषद चुनाव करवाने की प्रतिबद्धता पूर्ण करेगी।’ श्रीलंका में दो तरह के तमिल हैं, एक जो वहां सदियों से बसे हैं और दूसरे हैं ‘भारतीय तमिल’ जिन्हें ब्रिटिश हुकूमत ने मुख्यतः चाय बागानों में काम करने के लिए बसाया था। यह उप-समुदाय श्रीलंका के उत्तर और उत्तर-पूरबी अंचलों में रहते हैं। मोदी सरकार का विशेष ध्यान अब तक काफी उपेक्षित रहे ‘भारतीय तमिलों’ की मदद करने पर ज्यादा है, मसलन, आवास बनाने में सहायता से।
भारत-श्रीलंका संबंधों में तमिलों का मुद्दा लंबे अर्से से मुख्य बिंदु रहा है, लेकिन पिछले एक दशक से माहौल में काफी बदलाव आया है। इसकी शुरुआत मुख्यतः राजपक्षे परिवार के रवैये से हुई। राष्ट्रपति महिन्दा राजपक्षे ने घरेलू पिच पर राजनीतिक लाभ पाने की चाहत से हम्बनतोता बन्दरगाह का विकास कार्य चीन से 1.3 बिलियन डॉलर का ऋण उठाकर शुरू करवा दिया। राजपक्षे के चुनावी क्षेत्र में पड़ने वाला बन्दरगाह आर्थिक रूप से एक दुखांत रहा। धन की कमी से इसका प्रबंधन बूते से बाहर होने की वजह से नियंत्रण चीन को सौंपना पड़ा। इस किस्म के कामों ने श्रीलंका को संकट में डाला और अग्रज महिन्दा राजपक्षे के बाद राष्ट्रपति बने गोटाबया राजपक्षे को जनाक्रोश से बचने को अंततः देश छोड़कर भागना पड़ा। अब हम्बनतोता बंदरगाह का नियंत्रण चीन के हाथ में है और हो सकता है वह इसका इस्तेमाल चीनी नौसेना के जहाज़ों और पनडुब्बियों के विश्राम-अड्डे की तरह करे। यह वह मुद्दा है जिसको लगातार ध्यान में रखने की जरूरत भारत को है। श्रीलंका के लिए गनीमत यह रही कि इस कुप्रबंधन ने ऐसी स्थिति बना डाली जिसने देश की बागडोर अनुभवी राजनेता रानिल विक्रमसिंघे के हाथों में कर दी, जो देश को आर्थिक संकट से उबारने के लिए युक्तिपूर्ण ढंग से काम कर रहे हैं।
ऐसे वक्त पर जब राष्ट्रपति विक्रमसिंघे विदेशी सहायता पाने के लिए परेशान थे, भारत ने संकट से उबरने को 4 बिलियन डॉलर की सहायता देने की पेशकश की। इस बाबत त्वरित निर्णय को अंतिम रूप देने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, विदेश मंत्री एस. जयशंकर (जो श्रीलंका की मौजूदा स्थिति से मिलती-जुलती संकटपूर्ण परिस्थिति में वहां भारतीय दूत रह चुके हैं) और वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण की भूमिका अहम रही। आगे, भारत ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के पास श्रीलंका की जरूरतों की तगड़ी पैरवी भी की है। इसी बीच चीन ने केवल यही घोषणा की कि वह श्रीलंका की सहायता के लिए ‘कुछ करेगा’। अधिक महत्वपूर्ण यह कि विक्रमसिंघे ने पश्चिमी जगत को खुश रखा (भारतीय मदद से) और इससे आईएमएफ और अन्य वित्तीय संस्थानों से बरतना काफी आसान बना, वहीं जब पाकिस्तान ने अमेरिका और वित्तीय संस्थानों से मदद लेनी चाही तो उलटा हुआ। कल्पनाशील योजना के तहत उलीकी गई भारत-श्रीलंका गैस पाइप लाइन श्रीलंका के लिए ऐसी स्थितियों में आर्थिक और ऊर्जा जरूरतें पूरी करने का एक भरोसेमंद स्रोत बन सकती है। इस परियोजना पर शीघ्र विचार करते हुए अंतिम रूप देने की जरूरत है। इसी प्रकार द्विपक्षीय व्यापार, पर्यटन और निवेश में लेन-देन रुपये मुद्रा से होना दक्षिण एशिया में एक महत्वपूर्ण मिसाल बन सकता है।
ऐसा लगता है भारत सरकार और कोलम्बो में नियुक्त भारतीय उच्चायुक्त गोपाल बागले ने सावधानी से समन्वय बनाकर श्रीलंका की मुख्य जरूरतों और पूर्ति की शिनाख्त की है। प्रतीत हो रहा है, वह क्षेत्र जिनमें दोनों मुल्क स्थिति सामान्य बनाने और आर्थिक पुनरुद्धार में सहयोग कर सकते हैं, उन्हें सावधानीपूवर्क अध्ययन उपरांत अंतिम रूप दिया है। सबसे अहम, श्रीलंकाई लोगों की बोध गया की भावनात्मक तीर्थयात्रा की चाहत को ध्यान में रखा गया है। श्रीलंकाई तीर्थयात्रियों की यात्रा-प्रक्रिया और रिहायश की जरूरतों पर ध्यान देते हुए सुधार की जरूरत है। इसके अलावा, हमारे समुद्र तटों के पास तेल एवं गैस भंडारों के अन्वेषण में सहयोग अब विचाराधीन है। भारत-श्रीलंका भू-मार्गीय संपर्क बनाने और कोलम्बो व त्रिकोमल्ली बंदरगाहों को आपस में जोड़ने के प्रस्ताव पर भी विचार हुआ लगता है। चूंकि इनकी प्राप्ति के लिए तमिलनाडु और केरल की राज्य सरकारों की हिस्सेदारी की जरूरत पड़ेगी, लिहाजा संबंधित वार्ता में इन्हें भी शामिल किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, कोलम्बो और त्रिकोमल्ली के बंदरगाहों के विकास में आपसी सहयोग में विस्तार पर बहुत कुछ हो सकता है।
बहुत कम भारतीयों को श्रीलंका में ‘रामायण तीर्थ मार्ग’ के बारे में पता है, जिसका प्रचार यदि कल्पनाशीलता से किया जाए तो यह भारत से श्रीलंका को होने वाले तीर्थ-पर्यटन का एक बढ़िया विचार बन सकता है। इसके अलावा श्रीलंका के बौद्ध धार्मिक स्थल वहां सम्राट अशोक के जमाने से हुए बौद्ध धर्म के प्रसार को जानने में रोचक जानकारी मुहैया करवा सकते हैं, जिसके बारे में बहुत कम भारतीयों को पता है।
लेखक पूर्व राजनयिक हैं।