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कृषि से जुड़ी आबादी को मिले विकास का फायदा

देविंदर शर्मा बीते दिनों एक राष्ट्रीय दैनिक में प्रकाशित पहले पन्ने की रिपोर्ट ने मेरी बात की ही पुष्टि की गई कि ‘कृषि को इतने वर्षों में जानबूझकर गरीब रखा गया है।’ जब तक अर्थशास्त्रियों और नीति निर्माताओं के हाथों...
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देविंदर शर्मा

बीते दिनों एक राष्ट्रीय दैनिक में प्रकाशित पहले पन्ने की रिपोर्ट ने मेरी बात की ही पुष्टि की गई कि ‘कृषि को इतने वर्षों में जानबूझकर गरीब रखा गया है।’ जब तक अर्थशास्त्रियों और नीति निर्माताओं के हाथों में कृषि महज महंगाई नियंत्रण के एक औजार के रूप में रहेगा तब तक किसानों को मुश्किलों की उस गहरी दलदल से केवल कोई चमत्कार ही बाहर निकाल सकता है। अपनी इस मौजूदा स्थिति के लिए किस्मत को ही दोष देने वाले किसान शायद ही कभी समझ सकें कि कैसे हकीकत में वे उस दोषपूर्ण आर्थिक प्रारूप के शिकार हैं जो उनके समाज में निचले पायदान पर जैसे–तैसे गुजर-बसर को यकीनी बनाता है।

खरीफ सीजन की फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में बढ़ोतरी के प्रस्ताव पर नीति आयोग, वित्त मंत्रालय के व्यय विभाग और वाणिज्य मंत्रालय ने अन्य मुद्दों के साथ ही बढ़ती मुद्रास्फीति को चिंता का विषय बताते हुए शंकाएं जताई थीं। बीती 29 अगस्त को राष्ट्रीय अंग्रेजी दैनिक समाचारपत्र में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, जहां वाणिज्य मंत्रालय ने सार्वजनिक स्टॉकहोल्डिंग के लिए विश्व व्यापार संगठन के मानदंडों के तहत दायित्वों की बात कहकर आपत्ति जताई, वहीं खाद्य और नागरिक आपूर्ति मंत्रालय ने मूल्य वृद्धि के परिणामस्वरूप अतिरिक्त वित्तीय बोझ पड़ने की बात सामने रखी। संक्षेप में, ऐसा लगता है कि प्रत्येक संबंधित मंत्रालय को किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य में अनुमानित बढ़ोतरी से समस्या थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में मंत्रिमंडल ने आखिरकार ख़रीफ़ सीज़न के एमएसपी को 6 से 10 फीसदी के बीच कीमतों में वृद्धि को मंजूरी दे दी। यह देखते हुए कि कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) द्वारा गणना की गई उत्पादन लागत में भी उसी अनुपात में वृद्धि हुई है, एमएसपी की घोषणा मुश्किल से उस बढ़ी हुई लागत को पूरा करती है जो किसानों ने फसल उगाने में लगाई।

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इसमें रिज़र्व बैंक की मैक्रो-प्रबंधन नीतियां शामिल करें, जो सुनिश्चित करती है कि मुद्रास्फीति 4 प्लस/माइनस 2 प्रतिशत के निर्धारित मानक के भीतर बनी रहे; किसानों के पास कम से कम अपनी खेती की लागत पूरी करने के तरीके खोजने के लिए अपना संघर्ष जारी रखने के अलावा कम ही विकल्प बचा है। यह मानते हुए कि कुल उपज का केवल 14 प्रतिशत सरकारी एजेंसियों द्वारा खरीदा जाता है, देश की बाकी 86 फीसदी फसल बाजारों की दया पर निर्भर रहती है। अगर बाजार किसी भी तरह से किसानों के प्रति उदार होता, तो देश में एमएसपी के लिए कानूनी पवित्रता की मांग को लेकर किसान आंदोलनों न बढ़ते।

एमएसपी जो सरकार साल में दो बार, रबी और खरीफ सीजन के लिए अलग-अलग घोषित करती है, भी हमेशा सवालों के घेरे में रही है। जबकि सीएसीपी उत्पादन लागत और समग्र मांग पूर्ति की स्थिति के लिए अखिल भारतीय भारित औसत के आधार पर कीमतें तय करता है, और वैश्विक कीमतों को भी देखता है, इस पद्धति पर लगातार सवाल उठे हैं। दिलचस्प यह कि हाल में एक समाचारपत्र में प्रकाशित अन्य न्यूज रिपोर्ट के अनुसार, कम से कम नौ प्रांतीय सरकारों ने अपने-अपने राज्यों में बढ़ी उत्पादन लागत के लिए विभिन्न कारणों का उल्लेख करते हुए कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय से कीमतों को संशोधित करने के लिए कहा था।

यह पहली बार नहीं था कि कुछ सरकारों ने बनिस्बत ज्यादा कीमतों की मांग की। असल में, मेरा मानना है कि अब कुछ दशकों से राज्य सरकारें जो उत्पादन लागत और अनुशंसित कीमत भेजती हैं वे सरकारी वित्त-पोषित कृषि विश्वविद्यालयों से तय की जाती हैं। मसलन, पंजाब ने इस साल धान के लिए 3,234 रुपये कीमत का सुझाव दिया था, जबकि अंतिम अनुशंसा की कई कीमत 2,183 रुपये प्रति क्विंटल थी। केरल ने धान के लिए 3,600 रुपये प्रति क्विंटल की कीमत का सुझाव दिया था, इसी तरह ओडिशा ने 2,930 रुपये प्रति क्विंटल, छत्तीसगढ़ ने 2,800 रुपये क्विंटल, तमिलनाडु ने 2,300 रुपये क्विंटल और पश्चिम बंगाल ने 2,500 रुपये प्रति क्विंटल। इसी प्रकार, ख़रीफ़ की दूसरी फसलों के लिए, इन प्रांतों ने फसल मूल्य के सुझाव दिए, जो अंततः घोषित की गई कीमत के मुकाबले अधिक थे।

मोटे तौर पर खाद्य वस्तुएं उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) में भारित औसत का 45 फीसदी हिस्सा होने के चलते सभी का ध्यान खाद्य महंगाई काबू करने पर रहता है। खाद्य वस्तुओं में से किसी की भी कीमत में मामूली तेजी मीडिया में सुर्खी बनती है। इस साल टमाटर की कीमतों का मामला ही लें। जबकि इसकी खुदरा कीमतों ने कुछ समय के लिए ही 200 रुपये प्रति किलोग्राम के आंकड़े को छुआ, समाचार माध्यमों ने मुद्दे को दिन-रात उछाले रखा। पर जब इसके थोक भाव 14 से 10 रुपये किलोग्राम तक गिर गये, मीडिया चुप हो गया। इस मुद्दे को सही संदर्भ में रखने के लिए, कर्नाटक कृषि मूल्य आयोग की एक नवीनतम रिपोर्ट पर नजर डाल कर देखी जाये। उसके मुताबिक, यदि स्वामीनाथन फॉर्मूला (विस्तृत लागत + 50 प्रतिशत लाभ) का प्रयोग करके कीमत की गणना की जाती है, तो टमाटर की फार्म गेट कीमत 20 रुपये प्रति किलोग्राम ठहरती है। मान लीजिये कि चार सदस्यों वाले परिवार के लिए टमाटर की औसत जरूरत प्रति सप्ताह लगभग 3.75 किलोग्राम है। यदि वे इसका उपभोग करते हैं तो यह दैनिक वेतन का बमुश्किल 3 फीसदी बैठता है। लेकिन मीडिया जो हंगामा पैदा करता है उससे ऐसा आभास होता है कि जैसे कीमतें बढ़ने से गरीब कामगारों को अपना पेट भरना मुश्किल हो जाता है।

लेकिन जब किसानों के लिए फसल के भाव गिरते हैं उससे किसानों और दैनिक वेतनभोगियों की आजीविका की सुरक्षा का क्या होगा, इस पर कभी बात नहीं होती है। भारत जैसे देश में जहां तकरीबन 50 फीसदी जनसंख्या कृषि पर निर्भर है, जब तक किसान की आय का स्तर बेहतर नहीं होगा, बाजार मांग कम ही बनी रहेगी। दरअसल यह एहसास ही नहीं कि किसान भी एक उपभोक्ता है। जब तक उसे बनिस्बत अधिक आय नहीं प्राप्त होती, वह उस वर्ग में शामिल होने में समर्थ नहीं होगा जिससे उपभोग खर्च में वृद्धि होती है। दरअसल, जब भी कीमतें बढ़ती हैं तो सरकार महंगाई घटाने के लिए आयात करती है या निर्यात में कटौती कर देती है। यानी इरादा किसानों को मिलने वाली कीमतों में वृद्धि नहीं होने देने का है।

निस्संदेह, किसानों को जानबूझकर गरीब रखना ‘सबका साथ सबका विकास’ फलीभूत करने का तरीका नहीं है। समग्र संवृद्धि हासिल करने के लिए, विकास के फायदे उस बहुसंख्यक आबादी तक पहुंचाने होंगे, जो भारत में कृषि क्षेत्र में संलग्न है। खेती को आर्थिक तौर पर व्यवहार्य और फायदे का काम कैसे बनाया जाए, अमृत काल के दौरान इस पर फोकस करना होगा। कृषि को सुधार जरूरी हैं, लेकिनै पहले एमएसपी को किसानों का कानूनी अधिकार बनाया जाये। यदि देश के 86 फीसदी किसान बाजार की अस्थिरता और अनिश्चितता से दो-चार होते हैं (14 प्रतिशत को एमएसपी मिलता है), तो समाज के सबसे निचले तबके के लोगों के लिए बहुत कम उम्मीद है। इसके अलावा, विश्व बैंक के अनुसार, भारत की आबादी का लगभग 91 प्रतिशत रोजाना 4 डॉलर यानी प्रतिदिन 280 रुपये से भी कम में गुजर-बसर करता है। वजह यह है कि आर्थिक सुधारों का लक्ष्य अब तक केवल औद्योगिक क्षेत्र ही रहा। यदि तरक्की के सैकिंड इंजन के रूप में कृषि पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, तो 4 डॉलर रोजाना से कम पर जीवनयापन करने वाली आबादी में काफी कमी आएगी। निस्संदेह, अगले पांच वर्ष खेती को दे दीजिए। कृषि के विकास को पर्याप्त आर्थिक पैकेज और प्रोत्साहन दें, जैसे इंडस्ट्री को मिलेे हैं। उससे सामाजिक-आर्थिक बदलाव सिर्फ शानदार ही नहीं होगा बल्कि आजादी के सौ साल पूर्ण होने तक देश को नवीन ऊंचाइयों पर ले जाएगा।

लेखक कृषि मामलों के जानकार हैं।

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