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ताश के पत्तों जैसा राजनीति का खेला

तिरछी नज़र

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सहीराम

बताते हैं कि ताश के खेल में यह होता है कि खिलाड़ी ने अगर एक बार कोई पत्ता फेंक दिया तो फिर वह उसे वापस नहीं ले सकता। जैसे कई बार बाजी हाथ से निकल जाती है, वैसे ही पत्ता भी हाथ से निकल जाता है। हालांकि यह कोई तीर नहीं होता कि कमान से छूटा तो वापस लौटकर नहीं आता। पत्ता ही होता है, लेकिन आप चाहकर भी उसे वापस नहीं ले सकते। इस तरह वह उस बीते हुए वक्त की तरह होता है, जो लौटकर वापस नहीं आता। लेकिन राजनीति में ऐसा नहीं होता। राजनीति में आप अपना पत्ता वापस ले सकते हैं और उसकी जगह दूसरा पत्ता चल सकते हैं, अर्थात‍् अपना उम्मीदवार वापस ले सकते हैं और उसकी जगह दूसरे उम्मीदवार को मैदान में उतार सकते हैं।

यह खेला इधर खूब हो रहा है। राजनीति में अब खेला ही होता है और इसका श्रेय ममता बनर्जी को देना चाहिए जिन्होंने बंगाल के पिछले विधानसभा चुनाव में डायलॉग मारा कि खेला होबे। खेला होबे, शोले के अरे ओ सांबा की तरह एकदम हिट गया है। खैर जी, राजनीति में यह खेला खूब हो रहा है। हालांकि राजनीति की ताश के खेल से तुलना आज तक हुई नहीं है। ज्यादा से ज्यादा इसकी तुलना शतरंज से की जा सकती है। क्योंकि वह भी वैसे ही खेला जाता है, जैसे युद्ध लड़ा जाता है। लेकिन जैसे शतरंज में राजा और वजीर वगैरह होते हैं, वैसे ही ताश में भी बेगम बादशाह तो होते ही हैं। लेकिन इसमें गुलाम भी होता है, जिसे अक्सर जोकर कह दिया जाता है। राजनीति में अपने विरोधी को अक्सर जोकर भी कहा जाता है।

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अलबत्ता जब मंत्रिमंडलों में फेरबदल होता है तो लोगों को जरूर ताश का खेल याद आ आता है कि लो जी, ताश के पत्तों की तरह से फिर फेंट दिया मंत्रिमंडल को। वैसे राजनीति में ताश की तरह ही तुरुप का पत्ता भी होता है। कभी कोई मुद्दा तुरुप का पत्ता बन जाता है तो कभी कोई नेता ही तुरुप का पत्ता बन जाता है। ताश में और भी कई तरह के खेल होते हैं। राजनीति में भी कई तरह के खेल होते हैं। जैसे इधर भाजपा अपने हाथ में ऐसे पत्ते जोड़ने में लगी है, ताकि बाजी उसके हाथ रहे।

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ताश में मनोवैज्ञानिक तौर-तरीके भी खूब चलते हैं और कमजोर पत्तों के बावजूद हारने वाला भी जीतने जैसे हाव-भाव दिखाता रहता है। राजनीति में इसे वार ऑफ नर्व्स कहा जाता है। मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने, बढ़त बनाने की कोशिश की जाती है। तो जनाब राजनीति में भी ताश की तरह ही तरह-तरह के खेल होते हैं। लेकिन ऐसा कभी नहीं होता कि एक बार पत्ता फेंक दिया तो उसे वापस लेकर दूसरा पत्ता चल दो। जबकि राजनीति में इधर तो ऐसा खूब हो रहा है। नहीं क्या?

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