लोकतंत्र को विश्व की सबसे बेहतर शासन प्रणाली माना जाता है और राजनीति को जन सेवा का माध्यम बताया जाता है, लेकिन हमारा आचरण इन्हें निरंतर सत्ता पाने और फिर उसे बनाये रखने के माध्यम तक सीमित करता नजर आता है। आने वाले समय में जिन राज्यों में चुनाव हैं, वहां अभी तक अपनी चाल और चरित्र के प्रति लापरवाह रहने वाले राजनीतिक दल और उनका नेतृत्व चेहरे बदलने की मानो प्रतिस्पर्धा में जुटे हैं। चेहरे बदल कर सत्ता विरोधी भावना को ठंडे बस्ते में डालने का यह खेल नया नहीं है। अतीत में भी मतदाताओं की नाराजगी से बचने के लिए सांसद-विधायक प्रत्याशी तो अक्सर ही बदले जाते रहे हैं, कभी-कभी मंत्री-मुख्यमंत्री भी बदल कर चुनाव वैतरणी पार करने की चाल चली जाती रही है। यह चाल कितनी कारगर रही, यह शोध का विषय है, लेकिन चेहरों के साथ ही नाकामी को भुला देने की यह कवायद बदस्तूर जारी है। ज्यादा अतीत में न लौटें तो फिलहाल इसकी शुरुआत कर्नाटक से मानी जा सकती है, जहां भाजपा ने दो साल के शासन के जश्न के साथ ही उम्रदराज दिग्गज बी. एस. येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से चलता कर दिया।
बेशक येदियुरप्पा भाजपा में लागू सत्ता राजनीति के अघोषित आयु सीमा के सिद्धांत के दायरे में भी आ गये थे, इसलिए उनकी मुख्यमंत्री पद से विदाई को उससे जोड़ कर देखा-दिखाया जा सकता है, लेकिन उत्तराखंड में थोड़े से अंतराल में ही दो बार मुख्यमंत्री बदलने और गुजरात में पूरा मंत्रिमंडल ही बदल देने तथा पंजाब का मुख्यमंत्री बदले जाने की कवायद के संकेत-संदेश से साफ है कि भाजपा हो या कांग्रेस, इन दलों का आलाकमान अपनी ही राज्य सरकारों की कारगुजारियों का बोझ अगले चुनाव में उठाने को तैयार नहीं। जाहिर है, इन सरकारों के खातों में ऐसा कुछ नहीं लगा होगा, जिसके सहारे चुनाव वैतरणी पार की जा सके। उलटे जन आकांक्षाओं पर इनकी नाकामी के बोझ से पार्टी के ही डूब जाने की आशंका प्रबल नजर आयी होगी। बेशक सामान्य समझ भी यही कहती है कि नाकामी के बोझ की गठरी उठा कर चुनाव वैतरणी में नहीं उतरना चाहिए, लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कौन है? इन सरकारों की नाकामियां अंतत: तो संबंधित राज्यों और उनके निवासियों पर ही भारी पड़ीं, जिसकी भरपाई का कोई तरीका नहीं है।
कर्नाटक के येदियुरप्पा हों या उत्तराखंड के त्रिवेंद्र सिंह रावत अथवा गुजरात के विजय रुपाणी या फिर पंजाब के कैप्टन अमरेंद्र सिंह—इनमें से कोई भी जबरदस्ती मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जाकर नहीं बैठ गया था। इन्हें इनके दल के आलाकमान ने या फिर आलाकमान के इशारे पर विधायकों ने नेता चुना था। दोनों ही स्थितियों में निर्णय आलाकमान का ही था। मुख्यमंत्री ही क्यों, मंत्रिमंडल के सदस्य और सरकार के प्रमुख निर्णय तक आलाकमान की सहमति से ही लिये जाते हैं, तो फिर उसी आलाकमान ने नाकामी की जिम्मेदारी सिर्फ मुख्यमंत्री के कंधों पर डाल कर उन्हें चलता क्यों कर दिया? मान लेते हैं कि आलाकमान भी आखिर मानव ही है। उससे भी निर्णय लेने में गलती हो सकती है, पर इसका अहसास चुनाव से पहले ही क्यों होता है? जैसा कि पहले भी लिखा गया है, कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन का कारण अलग रहा, लेकिन उत्तराखंड से लेकर पंजाब तक नेतृत्व परिवर्तन के मूल में तो अगला चुनाव जीतने के लिए बिसात बिछाना ही है। अगर ये मुख्यमंत्री पार्टी के नीति-सिद्धांतों का अनुसरण करते हुए जन आकांक्षाओं के अनुरूप काम नहीं कर रहे थे, तो फिर इन्हें पहले क्यों नहीं बदला गया? चार–साढ़े चार साल तक मूकदर्शक बना रहने वाला आलाकमान अगर ठीक चुनाव के पहले जागता है तो दरअसल यह मतदाताओं के साथ छल ही है। आखिर मतदाता तो दल और उसके नेतृत्व पर विश्वास कर जनादेश देते हैं।
उत्तराखंड में भाजपा ने कांग्रेस से सत्ता छीनी थी। त्रिवेंद्र सिंह रावत पूरी तरह आलाकमान की पसंद थे। वह जन आकांक्षाओं के साथ-साथ आलाकमान की अपेक्षाओं पर भी खरा नहीं उतर पाने के बावजूद चार साल तक मुख्यमंत्री बने रहे तो जिम्मेदार और जवाबदेह कौन है? उनके स्थान पर जिन तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया गया, वह तो चार महीने भी पद पर नहीं रह पाये और उनके स्थान पर पुष्कर सिंह धामी लाये गये। इन नाटकीय परिवर्तनों की जिम्मेदारी-जवाबदेही कौन लेगा? गुजरात में तो भाजपा आलाकमान ने और भी कमाल किया। मुख्यमंत्री विजय रुपाणी ही नहीं, पूरे मंत्रिमंडल को बदल दिया गया। यह संभवत: पहला मौका है, जब नये मंत्रिमंडल में पिछले मंत्रिमंडल के किसी भी सदस्य को शामिल नहीं किया गया। क्या रुपाणी मंत्रिमंडल के किसी भी सदस्य ने अच्छा काम नहीं किया? अगर नहीं तो ऐसे नाकारा लोगों के चयन के लिए जिम्मेदार-जवाबदेह कौन है? क्या इसका उद्देश्य मतदाताओं के बीच एकदम क्लीन स्लेट लेकर जाना ही नहीं है? इस पर भाजपा के वरिष्ठ विधायकों में तीव्र प्रतिक्रिया की खबरें तो आयीं, पर उसके बाद सब कुछ शांत हो जाने से स्पष्ट है कि भाजपा में आलाकमान वाकई आलाकमान है। आनंदी बेन पटेल को हटा कर मुख्यमंत्री के रूप में विजय रुपाणी का चयन जितना अप्रत्याशित था, पहली बार विधायक बने भूपेंद्र पटेल का उनके उत्तराधिकारी के रूप में चयन उससे भी ज्यादा चौंकाने वाला है। हां, इतना अवश्य है कि बाद में राज्यपाल बना दी गयी आनंदी बेन पटेल की विधानसभा सीट से ही भूपेंद्र पटेल विधायक बने हैं।
भाजपा के गुजरात प्रयोग के उलट पंजाब में नेतृत्व परिवर्तन कांग्रेस आलाकमान के लिए मुश्किलें पैदा करता नजर आ रहा है। भाजपा अंतर्कलह और मुखर गुटबाजी से मुक्त ही नजर आती है, जबकि शायद ही कोई राज्य हो, जहां कांग्रेस आपस में ही लड़ती नजर न आये। कभी सांसद प्रताप सिंह बाजवा मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह के विरुद्ध मोर्चा खोलते नजर आते थे, लेकिन बाद में यह काम भाजपाई से कांग्रेसी बने नवजोत सिंह सिद्धू ने संभाल लिया। कमेंट्री और कॉमेडी शो से जुड़े रहे पूर्व क्रिकेटर सिद्धू अपनी मुखरता से भी ज्यादा बड़बोलेपन के लिए जाने जाते हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि पंजाब कांग्रेस का कलह मीडिया में अकसर सुर्खियां बनता रहा। कैप्टन की राय को दरकिनार कर आलाकमान ने जब दो माह पहले सिद्धू को पंजाब कांग्रेस की कमान सौंपी, तब लगा था कि शायद पार्टी एकजुट होकर चुनाव में उतर पायेगी, लेकिन पिछले सप्ताह अचानक मामले ने नाटकीय मोड़ ले लिया। मुख्यमंत्री को बताये बिना ही आलाकमान द्वारा विधायक दल की बैठक बुलाना शायद कैप्टन की बेआबरू विदाई का स्पष्ट संकेत था। राजनीति के पुराने खिलाड़ी अमरेंद्र ने इसे समझने में कोई गलती भी नहीं की, और विधायक दल की बैठक से पहले ही राजभवन जाकर इस्तीफा दे दिया।
यह शायद कैप्टन के इस दांव और फिर तीखे तेवरों का भी परिणाम रहा कि उन्हें हटवाने के बावजूद सिद्धू मुख्यमंत्री नहीं बन पाये। सुनील जाखड़ समेत कई नाम चले, पर अंतत: लॉटरी चरणजीत सिंह चन्नी की खुली। कैप्टन पर बतौर मुख्यमंत्री निष्क्रिय रहने का आरोप कांग्रेस सबसे गंभीर मानती है, पर उसके बावजूद उन्हें साढ़े चार साल पद पर बने रहने देने की जिम्मेदारी-जवाबदेही किसकी है? यह भी कि जिन चन्नी को सिद्धू हर जगह हाथ पकड़ कर ले जा रहे हैं, वह पांच महीने में ऐसा क्या चमत्कार कर देंगे कि कांग्रेस की चुनावी नैया पार लग जाये? लंबे समय से जो कैप्टन पंजाब में कांग्रेस के खेवनहार रहे, उन्होंने ही आलाकमान के व्यवहार से अपमानित महसूस करते हुए अब अन्य विकल्प खुले होने की चेतावनीनुमा चुनौती दे दी है तो बहुकोणीय मुकाबले में कांग्रेस की चुनावी राह आसान तो हरगिज नहीं होने वाली। जाहिर है, आने वाले चुनाव नयी सरकार ही तय नहीं करेंगे, यह भी बतायेंगे कि चेहरे बदल कर चाल और चरित्र छिपाने वाली राजनीति मतदाताओं को भरमाने में कितनी सफल होती है।
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