इमरान खान पाकिस्तान के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने वर्तमान सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा और उनकी जगह लेने की महत्वाकांक्षा रखने वाले और अपने चहेते पूर्व आईएसआई मुखिया ले. जनरल फैज़ हमीद के बीच रार पैदा करवाने की ‘शोहरत’ हासिल की है। बाजवा का कार्यकाल 1 नवंबर, 2022 तक है। यह फैज़ हमीद वही हैं जिन्होंने अफगानिस्तान पहंुचकर आईएसआई के कुख्यात चेले हक्कानी नेटवर्क का प्रयोग करके मुल्ला अब्दुल गनी बरादर को बेदखल कर काबुल से कंधार जाने को मजबूर कर अंतर्राष्ट्रीय कुख्याति पाई थी। जबकि बरादर का प्रधानमंत्री बनना लगभग तय था। तत्पश्चात तत्कालीन इस आईएसआई प्रमुख की भागीदारी और उपस्थिति में अफगानिस्तान की नई काबीना को शपथ दिलवाई गई। जाहिर है इमरान खान को इस तमाम कार्रवाई का इल्म था और समर्थन भी, लेकिन यह करवाना खुद के लिए नई समस्या पैदा करना था। ऐसी कोई वजह नहीं कि ले. जनरल फैज हमीद की जगह बने नए आईएसआई प्रमुख ले. जनरल नदीम अहमद अंजुम भी अपने पूर्ववर्ती की तरह इमरान खान की धुन पर खुशी-खुशी नाचेंगे।
यह सब उस समय हो रहा है जब बांग्लादेश पाकिस्तानी शिकंजे से निजात लेकर पाई आज़ादी की 50वीं वर्षगांठ मना रहा है। पाकिस्तान की सोच थी कि बांग्लादेश विदेशी खैरात पर पलने वाला एक भिखारी मुल्क बनकर रह जाएगा। आज अधिकांश आर्थिक सूचकांकों में बांग्लादेश ने पाकिस्तान को पछाड़ दिया है। यह छवि खुद को दुनियाभर के कट्टर इस्लामिक संगठनों का अग्रणी चैंपियन होने का दिखावा करने वाले पाकिस्तान से एकदम जुदा है।
कुछ पाकिस्तानी जैसे कि नामचीन भौतिक विज्ञानी परवेज़ हुडबॉय का कहना है, ‘आज कुछ अर्थशास्त्री मानते हैं कि बांग्लादेश अगला एशियन टाइगर होने जा रहा है। पिछले साल उसकी आर्थिक वृद्धि दर 7.8 प्रतिशत रही थी, जो भारत के 8 फीसदी के बराबर है और पाकिस्तानी की 5.8 प्रतिशत से काफी ऊपर। आज एक बांग्ला नागरिक पर कर्ज औसतन 434 डॉलर है जो एक पाकिस्तानी के सिर चढ़े 974 डॉलर के आधे से कम है। बांग्लादेश का विदेशी मुद्रा भंडार 32 बिलियन डॉलर है जो कि पाकिस्तान के 8 बिलियन डॉलर से चार गुणा है। हकीकत में पाक का विदेशी मुद्रा भंडार बांग्लादेश का एक-चौथाई तो 640 बिलियन डॉलर वाले भारत का महज 1.2 फीसदी है।’
दुनिया को ताजुब्ब हुआ कि अफगानिस्तान के पांच पड़ोसी मुल्क– कज़ाख़िस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्केमेनिस्तान, किर्गिज़स्तान और उज्बेकिस्तान के विदेश मंत्री इस्लामाबाद में हुए इस्लामिक देशों के सम्मेलन को बीच में छोड़कर नई दिल्ली में आयोजित विदेश मंत्री बैठक में भाग लेने को रवाना हो गए थे। भारत ने यह वार्ता अफगानिस्तान में तालिबान शासन के बाद पैदा हुई समस्याओं पर क्षेत्रीय सहयोग पर विमर्श को बुलाई थी। इस्लामाबाद वाले सम्मेलन का उद्घाटन इमरान खान ने किया था। हालांकि जिन देशों ने शिरकत करी, उनसे सउदी अरब के अलावा आयोजन हेतु मदद पाने की उम्मीद ज्यादा नहीं थी, उसे बतौर अंतर्राष्ट्रीय इस्लामिक संगठन संस्थापक इमदाद करनी पड़ी।
इमरान खान के शासन में पाकिस्तान ने तालिबान राज से पैदा हुई वैश्विक चिंताओं पर, खुद को राजनयिक तौर पर धुरी पेश कर, हर संभव तरीके से भुनाने की कोशिश की है। लेकिन अपनी घरेलू समस्याओं की वजह से इमरान खान के समक्ष अनेकानेक गंभीर चुनौतियां हैं। इमरान खान का एक तरह से तालिबान का प्रवक्ता बनकर उसकी रूढ़ियों को जायज ठहराना, मसलन, महिलाओं को शिक्षा और रोजगार के मौकों से महरूम रखना, निश्चित तौर पर अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगी व खुद कई इस्लामिक मुल्कों को यह रुख पसंद नहीं आया है। सबसे महत्वपूर्ण है जरूरी वस्तुओं की किल्लत झेल रहे अफगानिस्तान को अतंर्राष्ट्रीय सहायता पहुंचाना। भारत, ईरान और मध्य एशियाई सहयोगी देश उपाय करके, ईरान के चाबहार बंदरगाह का ज्यादा इस्तेमाल करते हुए अफगानिस्तान तक सामग्री-आपूर्ति गलियारा बना सकते हैं। ब्लूचिस्तान के लोगों में पाकिस्तान और खासकर उसका ‘सदाबहार’ दोस्त चीन लोकप्रिय नहीं हैं। मछली पकड़ने वाली चीनी नौकाओं द्वारा ब्लूचिस्तान के तटों के काफी नजदीक आकर स्थानीय मत्स्य खजाने में सेंध लगाने से खफा हुए बलूचों से निपटने में पाकिस्तान को बहुत मशक्कत करनी पड़ती है।
इमरान खान के लिए 2023 के आम चुनाव के मद्देनज़र आगामी दो साल बहुत महत्वपूर्ण हैं। इससे भी पहले, सेनाध्यक्ष बाजवा नवम्बर, 2022 में सेवानिवृत्त होने को अग्रसर हैं, अगले सेना प्रमुख का फैसला बहुत अहम होगा । इमरान खान और बाजवा के बीच संबंध पहले काफी मधुर थे लेकिन हाल ही में मतभेद उभरकर सार्वजनिक हो गए जब इमरान खान ने बाजवा द्वारा अपने चहेते और पूर्व आईएसआई प्रमुख ले. जनरल फैज़ हमीद की बदली बतौर कोर कमांडर करने वाले आदेश पर दस्तखत करना टाले रखा। हालांकि बाद में किरकिरी करवाकर अंततः इमरान खान को बाजवा के नामांकित ले. जनरल नदीम अहमद अंजुम की नियुक्ति बतौर आईएसआई प्रमुख स्वीकार करनी पड़ी। अमेरिका के ‘आतंक के खिलाफ’ युद्ध में भूमिका निभाने के पाकिस्तानी दावों के बावजूद उस पर तालिबान की अंदरखाते मदद करने के इल्जाम लगातार जारी रहे थे। इस लड़ाई में मदद के नाम पर दो दशकों तक अमेरिका को आर्थिक एवं सैन्य रूप से दुहने वाला पाकिस्तान आज खुद को अमेरिका से हताश हुआ बता रहा है। जबकि ज्यादातर अमेरिकियों को अहसास है कि वे पाकिस्तान की दोहरी चाल के शिकार बने रहे।
भारत ने अफगानिस्तान में अमेरिका के उक्त ‘आतंक के खिलाफ’ युद्ध में सैन्य शिरकत न करके सही किया था, हालांकि निर्वाचित अफगान सरकार को रक्षा एवं आर्थिक सहायता प्रदान जारी रखी थी। राष्ट्रपति बाइडेन आज भी पाकिस्तान के प्रति गर्मजोशी रखते हैं। उन्होंने बहुप्रचारित लोकतंत्र शिखर सम्मेलन में भाग लेने को पाकिस्तान को आमंत्रित किया, जबकि पाकिस्तान के राष्ट्रीय जीवन में सेना सदा मुख्य खिलाड़ी रही है। जबकि बाइडेन ने दक्षिण एशिया के स्थापित लोकतंत्र जैसे कि श्रीलंका और बांग्लादेश को बुलाना सही नहीं समझा। लेकिन इमरान खान ने यह निमंत्रण स्वीकार नहीं किया। राष्ट्रपति पुतिन की हालिया भारत यात्रा से साफ हो गया है कि भारत अपनी सामरिक सार्वभौमिकता शिद्दत से कायम रखेगा। सामरिक भागीदारी किससे रखनी है या नहीं, यह निर्णय भारत बाइडेन के दबाव में आकर नहीं लेगा।
रोचक यह भी है कि तालिबान सैनिकों ने हाल ही में पाक-अफगान अंतर्राष्ट्रीय सीमा– ड्यूरंड रेखा– पर बाड़ लगाने के पाकिस्तानी यत्नों को विफल कर दिया है। यह सीमा रेखा ब्रिटिश साम्राज्य ने अफगानिस्तान पर थोपी थी। अफगान रक्षा मंत्रालय के एक प्रवक्ता एनातुल्लाह ख्वारिज़मी ने पाकिस्तानी सीमा बाड़ को अवैध ठहराया है। आगे यह देखना मजेदार होगा कि पाकिस्तान और उसका तैयार किया तालिबान चेला सिराजुद्दीन हक्कानी 2600 किलोमीटर लंबी सीमा रेखा पर इस किस्म के सीमा संबंधी विवादों पर कैसी प्रतिक्रिया रखेंगे।
लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।