बिहार चुनाव के नतीजों के बाद, अगले दिन की सुबह। स्क्रीन पर तरह-तरह की साड़ियां पहने, सिर ढके, मांगों में लम्बा सिंदूर, माथे पर बिंदी और हाथों में ढेर सारी चूड़ियां। वे एक-दूसरे को गुलाल लगा रही हैं। ढोलक बजाकर गीत गा रही हैं और बिहार में नीतीश कुमार और एनडीए की जीत का जश्न मना रही हैं। ये वे औरतें हैं, जिन्हें अक्सर पढ़ी-लिखी मध्य वर्ग की बहुत-सी अंग्रेजी दां महिलाएं घरेलू कहकर खारिज कर देती हैं। मान लिया जाता है कि इनके पास कोई राजनीतिक समझ नहीं। ये तो वहीं वोट देती हैं, जहां इनके घर के पुरुष वोट डालते हैं या इनसे डालने को कहते हैं। चुनाव के दौरान जब इन महिलाओं की लम्बी-लम्बी लाइनें लगी थीं तो बिहार के इलाकों में जाने वाली तमाम मशहूर पत्रकारों, फेसबुक पर ज्ञान बघारने वाले बहुत से ज्ञानियों का आकलन यही था कि इन महिलाओं की कोई आवाज ही नहीं है।
चुनाव के अंतिम दिन जब चुनाव आयोग ने आंकड़े जारी किए तो पता चला कि इस बार महिलाओं ने पुरुषों के मुकाबले पांच प्रतिशत अधिक वोट किया है। इस बार 59.7 प्रतिशत औरतों ने वोट दिया। पुरुषों के वोट देने का प्रतिशत 54.6 प्रतिशत रहा। व्यावहारिक ज्ञान और किताबी ज्ञान में कितना फर्क है वह महिलाओं के ज्यादा वोट देने से सहज ही देखा जा सकता है।
इसी को जानकर नीतीश कुमार ने अपनी जीत की आशा प्रकट की थी और कहा था कि अंत भला तो सब भला। यानी कि पढ़े-लिखे लोगों को जो महिलाएं वोटर होते हुए भी दिखाई नहीं पड़ रही थीं, उन्होंने नीतीश और एनडीए के भाग्य को बदल दिया।
किसी जगह पर कुछ दिनों के लिए जाने, विलेज टूरिज्म का आनंद उठाने और पंडित बनकर ज्ञान बघारने वाले अक्सर उन बदलावों को देखने में कामयाब नहीं हुए जो महिलाओं की ताकत के रूप में सामने आए। अरे भाई ज्ञान का सारा ठेका सिर्फ अखबारों के पन्नों , चैनल्स के स्टूडियो और फेसबुक, ट्विटर के ज्ञानियों के पास ही नहीं है। आम आदमी भी उतना ही चतुर होता है, जितना चतुर आप खुद को समझते हैं। और महिलाएं यदि चतुर न हों तो घर के मैनेजमेंट को जिस कुशलता से चलाती हैं, वह घर कभी न चले। वे इसका ज्ञान किसी मीडिया इन्स्टीट्यूट में जाकर प्राप्त नहीं करतीं।
इस संदर्भ में नीतीश कुमार का 2005 का कार्यकाल याद आता है। कहा जाता है न कि अगर लड़कियां स्कूल नहीं जा पा रहीं तो स्कूल ही उनके पास चलें आएं। नीतीश ने इसी बात को समझा और स्कूल जाने वाली लड़कियों को साइकिलें दीं। उस समय बहुत से अखबारों ने साइकिल पर स्कूल जाती लड़कियों को चित्र छापे थे। पंक्ति में साइकिल दौड़ाती, चिड़ियों और तितलियों की तरह उड़ती ये लड़कियां किसी इंद्रधनुष सी लगती थीं। इससे न केवल बड़ी संख्या में लड़कियां स्कूल जाने लगीं, बल्कि उनके परिवार वाले भी उन्हें स्कूल भेजने लगे।
लड़कियों का ड्राप आउट रेट भी घटा। इसी साइकिल ने न केवल लड़कियों बल्कि उनके परिवार वालों के जीवन को बदला। जहां लड़कियों के जीवन में गति आई, पढ़ाई के लिए स्कूल की दूरी घटी वहीं जब वे घर लौट आतीं तो यही साइकिल परिवार के लोगों के काम आती। और सबसे बड़ा चमत्कार तो तब हुआ जब अगले चुनाव में इन्हीं साइकिलों पर बिठाकर लड़कियां अपने-अपने परिवार के लोगों को वोट देने के लिए ले आईं। कारण था नीतीश, जिन्होंने उनका जीवन बदला, उनकी जीत जरूर हो। इसके अलावा, केंद्र सरकार की महिलाओं के लिए चलाई जाने वाली योजनाओं, उज्ज्वला, विधवा पेंशन, वृद्धावस्था पेंशन, जनधन खाता में पैसे सीधे ट्रांसफर होने का लाभ भी महिलाओं को मिला। बहुत-सी मुसलमान महिलाओं ने भी कहा था कि उन्हें इन योजनाओं का लाभ मिला है। नीतीश ने न केवल लड़कियों को साइकिलें दीं, बल्कि उच्च शिक्षा के लिए पचपन हजार रुपए की राशि, पंचायतों में पचास प्रतिशत आरक्षण भी दिया। इस तरह उन्होंने महिलाओं के जीवन में रोजमर्रा की जो मुश्किलें आती हैं, जैसे पैसे की कमी, कहीं आने-जाने के लिए ठीक व्यवस्था न होना, आदि का समाधान किया। इससे उनकी पैठ महिलाओं के बीच में बढ़ी। इसीलिए जब वोटों के आंकड़े सामने आए तो नीतीश ने अपनी जीत की आशा प्रकट की।
वे लड़कियां, जिन्हें 2007 में तेरह साल पहले नीतीश ने साइकिलें दी थीं, इस योजना की न केवल देश में बल्कि दुनियाभर में तारीफ हुई थी। इसे लड़कियों की शिक्षा के लिए गेम चेंजर कहा गया था। बिहार के स्कूलों में सातवीं से आठवीं में जाने वाली लड़कियों की संख्या 2014 में जहां 7,25000 थी, वहीं यह बढ़कर 2017-18 में 11,70,000 तक जा पहुंची क्योंकि साइकिल उन्हीं लड़कियों को दी जानी थी जो आठवीं करके नवीं कक्षा में दाखिला लेंगी। एक तरीके से साइकिल के जरिए लड़कियों को पढ़ाने के लिए घर वालों को भी प्रोत्साहित किया। साइकिल से लड़कियों का स्कूल जाना तो आसान हुआ ही, उनके जीवन में एक गति आई। कुछ करने की लालसा भी बढ़ी। इससे पढ़ने वाली लड़कियों की संख्या में काफी बढ़ोतरी दर्ज हुई।
ये ही लड़कियां, अब बड़ी होकर युवतियां बन गई होंगी। बहुतों का हो सकता है विवाह भी हो गया हो। पढ़-लिख गई हैं तो बहुत सी कहीं न कहीं काम भी करती होंगी। इस बार के चुनाव में महिलाओं के बढ़े वोटों में बहुत से वोट इन लड़कियों के भी होंगे। क्या पता उन्हीं की साइकिलों पर चढ़कर उनके परिवार वाले वोट देने आए हों। ऐसी तस्वीरें भी दिखाई दीं जहां लड़कियां अपने परिवार के लोगों को साइकिलों पर बिठाए वोट के लिए स्याही लगी उंगलियों को दिखाती दिखीं। इन महिलाओं के वोटों के गणित का सही अनुमान न विपक्ष लगा सका और न मीडिया के धुरंधर ही। एक नामी अंग्रेजी पत्रकार ने परिणामों की जब घोषणा आ रही थी तो अपनी इस चूक को माना भी। कहा कि हम महिलाओं के वोटों का आकलन करने में सही साबित नहीं हुए। महिलाएं ही सही साइलेंट वोटर साबित हुईं।
नतीजों के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने भी कहा कि बहन-बेटियों के वोट ने बिहार को आत्मनिर्भर बना दिया।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।