हर्षदेव
सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाने की नगालैंड की मांग के पक्ष में जल्दी ही सकारात्मक फैसला लिया जा सकता है। असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्व सरमा ने इसका स्पष्ट संकेत दिया है। उन्होंने यह भी इशारा किया है कि असम से भी इस कानून को हटाने पर विचार हो रहा है। यदि ऐसा निर्णय लिया जाता है तो यह निश्चय ही पूर्वोत्तर की राजनीति के लिए सही दिशा में महत्वपूर्ण बदलाव का कदम होगा और इसके सकारात्मक परिणाम सामने आएंगे। पूर्वोत्तर की राजनीति में धुरी की भूमिका निभा रहे मुख्यमंत्री सरमा का कहना है कि पूर्वोत्तर में कबीलाई उग्रवाद की राजनीति के दिन लद चुके हैं, उनकी यह बात काफी हद तक सही भी है। जो नई पीढ़ी आज सक्रिय है उसको अपने भविष्य और रोजगार के अवसरों की तलाश है। वह सात दशक से ज्यादा समय से चली आ रही कबीलाई राजनीति के संकुचित दायरों से बाहर निकलने को लालायित है। वह अपने भविष्य की ओर बढ़ना चाहती है। यह आने वाले समय की क्षेत्रीय सियासत के लिहाज से सकारात्मक दिशा की ओर बढ़ रहा बहुत अहम घटनाक्रम है।
सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाने की मांग करने वालों में नगालैंड के अलावा मेघालय, मणिपुर और असम भी शामिल हैं। नगालैंड को इस बात से भी खासी नाराजगी है कि विवादों के बीच केंद्र सरकार ने इस कानून की अवधि छह महीने और बढ़ा दी है। विगत 4 दिसंबर को राज्य के मोन जिले में सुरक्षाबलों की गोलीबारी में 13 निर्दोष नागरिकों की दुखद मृत्यु की घटना के बाद इस कानून को हटाने की मांग उठाई गई थी, जिसको बाद में विधानसभा ने भी पारित कर दिया। केंद्र सरकार इस बीच यह कानून हटाने की संभावनाओं पर विचार करने के लिए एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन भी कर चुकी है। यूपीए सरकार में गृहमंत्री रहे पी. चिदंबरम ने मौजूदा विवाद के बीच खुलासा किया है कि इस कानून को खत्म करने की सिफारिश साल 2005 में जस्टिस जीवन रेड्डी की कमेटी कर चुकी है। बाद में गठित आयोगों और अन्य कमेटियों ने भी यही राय दी थी।
सुरक्षा बलों को विशेष शक्ति देने वाला 1958 में लागू यह विशेष कानून समूचे पूर्वोत्तर राज्यों की जनता के विरोध का कारण रहा है। इस कानून का इस्तेमाल सुरक्षा बल और पुलिस एक हथियार की तरह करते रहे हैं। इसी वजह से नगालैंड विधानसभा ने पिछले दिनों सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित कर इस कानून को वापस लेने पर सहमति जताई थी। राज्य के अनेक नागरिक और धार्मिक संगठन भी बरसों से ऐसी ही मांग कर रहे हैं। पूर्वोत्तर में नगालैंड अकेला राज्य नहीं है जो इस मांग को लेकर अभियान चलाए हुए है, बल्कि प्राय: सभी राज्य इसमें शामिल हैं।
पूर्वोत्तर के राज्यों में असंतोष और बगावत की चुनौतियां नई नहीं हैं,लेकिन इन चुनौतियों से निपटने के लिए सुरक्षा बल जिस प्रकार कार्रवाई करते हैं उसको लेकर भी गंभीर सवाल उठते रहे हैं। बीते 4 दिसंबर को नगालैंड में जिस प्रकार पहले 6 और बाद में 7 और बेकसूर नागरिक सुरक्षा बलों की गोलियों का शिकार हुए, वह कोई कम चिंताजनक बात नहीं है। उससे पहले नवंबर महीने में मणिपुर के चूड़चंद्रपुर ज़िले में अलगाववादी गुरिल्लों ने असम राइफल्स के एक गश्ती दल पर हमला करके बटालियन कमांडर, उनकी पत्नी और बेटी के अलावा चार सैनिकों की भी जान ले ली थी।
असम के मुख्यमंत्री सरमा जो भी दावा करें, इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि पूर्वोत्तर में आज भी कबीलाई पहचान के प्रति बहुत ज्यादा संवेदनशीलता बनी हुई है। इस कारण विभिन्न गुट अपनी अलग पहचान को लेकर न केवल सुरक्षा बलों वरन आपस में भी टकराते रहते हैं।
इस बात में भी दो राय नहीं है कि सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए एक बड़ा सवालिया निशान है। सुरक्षाबलों को किसी की भी जान लेने की छूट दे देना और उसके खिलाफ कार्रवाई न किए जाने का कानूनी प्रावधान कम से कम लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्वीकार नहीं किया जा सकता। नगालैंड के मुख्यमंत्री नेफियू रियो ने यही बात कही भी है। सुरक्षा विशेषज्ञों का भी मानना है कि इस तरह का विशेषाधिकार कानून सुरक्षा बलों की जनता में विश्वसनीयता और पहुंच को कमज़ोर करता है। ऐसे कानून के रहते सैन्यबल कभी भी भरोसेमंद गोपनीय जानकारियां हासिल नहीं कर सकते और गलत जानकारियों के आधार पर कोई भी कार्रवाई कितनी नुकसानदेह हो सकती है, इसका सबूत तो हम 4 दिसंबर को नगालैंड के मोन ज़िले में हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटना में देख सकते हैं।
इस कानून के प्रति पूर्वोत्तर राज्यों में व्याप्त आक्रोश इतने से ही समझा जा सकता है कि यहां के सभी सात राज्यों में छात्रों द्वारा विशेषाधिकार कानून के खिलाफ जबरदस्त प्रदर्शन चल रहे हैं। प्रदर्शन की अगुवाई करने वाले छात्र संगठनों में खासी स्टूडेंट्स यूनियन, ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन, नागा स्टूडेंट्स फेडरेशन, मिज़ो ज़िरलई पॉल, खासी स्टूडेंट्स फेडरेशन, ऑल मणिपुर स्टूडेंट्स यूनियन, गारो स्टूडेंट्स यूनियन, ऑल अरुणाचल प्रदेश स्टूडेंट्स यूनियन के नाम मुख्य रूप से लिए जा सकते हैं। छात्रों के ये प्रदर्शन खास तौर पर इन राज्यों में राजभवन के सामने और यूनिवर्सिटी में लगातार चल रहे हैं, रोष इतना है कि सरकारें डरी हुई हैं लेकिन मुख्य मीडिया में ये खबरें जगह नहीं बना पा रहीं हैं। केंद्र सरकार को यह ध्यान रखना होगा कि पूर्वोत्तर राज्यों को विलय के समय उनकी विरासत और अलग पहचान की रक्षा का भरोसा दिया गया था और स्थायी शान्ति के लिए जरूरी है कि सरकार की ओर से इस वचन का पालन किया जाए।