गुरबचन जगत
फिलहाल किसान आंदोलन स्थगित है। तीन कृषि सुधार कानूनों को यूनियनों और किसानों के विरोध की आशंका भांपकर अध्यादेश के जरिए लागू किया गया था। इनको बनाते वक्त न तो कृषकों की राय ली, न संसद में चर्चा हुई और न ही किसी संसदीय समिति से सलाह ली गई। इस एकतरफा कार्रवाई ने अभूतपूर्व आंदोलन को जन्म दिया, जो एक साल से ज्यादा चला। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान इत्यादि से आए लाखों कृषकों ने दिल्ली सीमा पर चले धरनों में भाग लिया। सरकार द्वारा किसानों की ज्यादातर मांगों को मानने से आंदोलन को उल्लेखनीय सफलता मिली। यदि पहले ही सलाह-मशविरा या संसद में बहस होती तो ये नौबत न आती।
अत: एकतरफा कार्यकारी शक्ति प्रयोग और संसद को पूरी तरह दरकिनार करने से यह टकराव पैदा हुआ। विडंबना है कि लोकतांत्रिक ढंग से चुनकर आई सरकार ऐसा व्यव्ाहार करे। संसद व संसदीय बहसें प्रजातंत्र का मूल अवयव होती हैं। अफसोस, आज इस प्रक्रिया को नजरअंदाज़ किया जा रहा है। सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा के अहम विषय जैसे कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन की घुसपैठ, लॉकडाउन में मजदूर पलायन, कोविड इत्यादि पर भी अन्यों से विमर्श करना गवारा नहीं किया। आजादी पूर्व महात्मा गांधी ने सफलतापूर्वक अहिंसक जन आंदोलन चलाए थे। इसी तरह मार्टिन लूथर किंग की अगुवाई में 1950 के दशक में रंगभेद ग्रस्त अमेरिका में नागरिक अधिकार आंदोलन हुआ था। क्या वर्तमान सरकार यही चाहती है कि लोगों के पास अपनी मांगों को लेकर बड़ा आंदोलन करना ही एकमात्र रास्ता बचे। इन पर भी ध्यान तब जब चुनाव हारने का डर आसन्न हो?
भारत एक उप-महाद्वीप है जहां विश्व आबादी का छठवां हिस्सा बसता है–अतएव जिंदगी के अनेकानेक पहलुओं पर मतांतर होना स्वाभाविक है। तथापि इन मतभेदों को आंदोलन में तब्दील होने देना, विशेषकर अनसुलझे टकरावों में, इससे आगे सशस्त्र विद्रोह जन्म लेते हैं, यही हुआ और यह कालांतर में केंद्र व राज्यों में आई विभिन्न सरकारों की विफलता का नतीजा है। केंद्र सरकार ने इन टकरावों में और इजाफा किया ।
आइए, कुछ बड़े टकरावों पर नज़र डालें जो लंबे समय से देश में ज्वलंत हैं। उदाहरणार्थ पिछले कुछ दशकों से छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड और महाराष्ट्र के हिस्सों में व्याप्त माओवादी आंदोलन, इसमें दोनों पक्षों की सैकड़ों जानें गईं। कारोबार हेतु कॉर्पोरेट जगत को किसी भी तरह ‘शांति’ चाहिए। साथ ही आर्थिकी हेतु प्राकृतिक स्रोतों की खोज व इस्तेमाल की आतुरता रहती है। दरअसल, समस्या संसाधनों के असमान वितरण में है, यानी इसके नैसर्गिक मालिक स्थानीय लोगों और बाहरी मुनाफाखोरों के बीच। हालिया विश्व असमानता रिपोर्ट के अनुसार देश का 65 फीसदी घरेलू सरमाया 10 प्रतिशत हाथों में सिमटा है। यही समस्या की जड़ है–चहेते पूंजीपतियों को बढ़ावा और उनकी कंपनियों को स्रोतों एवं लोगों की दोहन की छूट जनजातीय क्षेत्रों में ज्यादा दिखाई देती है। फिर विरोध स्वरूप पैदा संघर्ष को धधकने दिया जाता है क्योंकि इससे सत्तासीनों का स्वार्थ सधता है। जायज समस्याओं पर बातचीत का सतत प्रयास नहीं होता। संवाद की अनुपस्थिति में सरकारें स्थिति से निपटने को विशेष शक्ति और कानून बनाकर व केंद्रीय सशस्त्र बल व अनाड़ी राज्य पुलिस बल तैनाती के उपाय करती हैं। इससे अंतहीन टकराव स्थानीय लोगों के दमन-चक्र में बदलता है। दमन से क्षुब्ध समाज के कुछ वर्ग हिंसक प्रतिक्रिया चुनते हैं। हालांकि ऐसा रास्ता कोई समाधान नहीं है, बल्कि इसकी बड़ी कीमत चुकानी होती है। लगता है लोगों के पास अब शांतिपूर्ण आंदोलन करना और स्थानीय नेतृत्व से लंबा चलाने का एकमात्र विकल्प बचा है। वही राह, जिससे हमें आजादी मिली। एक ऐसा जन-आंदोलन, जिससे सत्ताधीशों को चुनावी हार का डर सताए। यही व्यवहार्य राह बची है।
इसी तरह देश का उत्तर-पूरबी भाग दशकों से अस्थिर है। इस मामले में, केंद्र द्वारा वहां का निज़ाम अधिकांश समय रिमोट कंट्रोल के जरिए चलाने वाली व्यवस्था के परिणाम बेहतर नहीं रहे। दिल्ली में बैठे नौकरशाह वहां की स्थिति से निपटते रहे, वह भी ज्यादातर संयुक्त-सचिव स्तर वाले। आलम यह था, बहुत सालों तक मुख्यमंत्री उक्त संयुक्त-सचिवों नौकरशाहों से ही मिल पाता था, उनसे ऊपर किसी से नहीं। यह रवैया नेताओं व स्थानीय लोगों के लिए अपमानजनक था। इन अधिकांश राज्यों में दशकों से लागू सशस्त्र बल विशेष शक्ति अधिनियम (अफस्पा) नागरिक को तंग करने के अलावा कुछ विशेष नहीं रहा। इस व्यवस्था का होना ही एक असफल सरकार का द्योतक है न कि खास हालातों का, जैसा कि हमें यकीन दिलाने को बताया जाता है। तिस पर प्रशासन भ्रष्ट और अप्रभावी है और राजनेताओं की मिलीभगत है। सीमा जगह-जगह खुली है। विद्रोही लड़ाकों की आवाजाही से छोटे हथियार, गोला-बारूद व नशीले पदार्थों की आमद होती है।
बड़े पैमाने पर व्याप्त भ्रष्टाचार से विशेष विकास फंड और विशेष विभागों का गठन स्थानीय लोगों की समस्याओं को दूर करने में निष्प्रभावी रहे हैं। विभिन्न फंड व विभागों में भर्तियों का बड़ा भाग सरकारी कर्मियों और भूमिगत तत्वों के बीच बंट जाता है। तथ्य तो यह है कि नागालैंड-मणिपुर जैसी जगहों में, फंड का अधिकांश हिस्सा अंदरखाते भूमिगत तत्वों तक पहुंचता रहा है। इसके अलावा ट्रांसपोर्टरों, व्यवसायियों और दुकानदारों से ‘टैक्स’ अलग से उगाहते हैं। बंद-हड़तालें थोपकर ये लोग सूबे और लोगों को बंधक बनाए हुए हैं। नागालैंड में शांति-स्थापना समझौते के बाद सरकार एक तरह से भूमिगत तत्व चला रहे हैं। यूं तो मध्यस्थ वार्ताकार दो दशकों से परिदृश्य पर हैं, लेकिन दिखाई न देने वाले परिणाम के साथ। हमेशा कहा जाता है कि हल बस अगले मोड़ पर है, लेकिन मोड़ कभी नहीं आता। इसलिए स्वार्थी तत्वों को बीच में डाले बिना सरकार और लोगों के बीच सीधी बातचीत जरूरी है। नागालैंड और मणिपुर में सिविल अधिकार आंदोलनकर्ता इस तरह का संवाद बनाने में मजबूत और समर्थ हैं। हो सकता है इनके न होने पर वे शांतिपूर्ण जन-आंदोलन की राह अपनाएं। सरकार और लोगों के बीच अविश्वास की गहरी खाई है, टकराव का हल निकालने को उसे पाटना होगा। इसकी पहल सरकार करे। एक स्वच्छ-ईमानदार प्रशासन का विकल्प मुफ्त की वस्तुएं-रियायतें नहीं बन सकती, जो जनता को लगाया जाना वाला नया नशा है।
समस्या में आगे जटिलता हमारी आपराधिक न्याय व्यवस्था की विफलता से बनी है। राजनेता हर हुक्म बजाने को उद्यत अफसरों और न्याय व्यवस्था के सदस्यों की मार्फत इसका इस्तेमाल अपने हिसाब से कर रहे हैं। इन सरकारों ने विशेष आपातकालीन शक्तियों का निर्माण कर बड़े पैमाने पर अर्धसैनिक बलों की तैनाती और सेना बुलाने का इंतजाम कर रखा है। सेना एक वह खड्ग है, जिससे बाहरी दुश्मन से बचाव किया जाता है। चीन-पाकिस्तान से लगती वास्तविक नियंत्रण रेखा पर मौजूदा स्थिति के मद्देनजर उसकी उपस्थिति वहां होना और भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसी तरह अर्धसैन्य बल का उपयोग अत्यंत हिंसा और गड़बड़ी वाली स्थिति से निपटने हेतु बना है न कि रोजमर्रा की कानून-व्यवस्था को संभालने को। किसी भी सूरत में, इनका इस्तेमाल आतंकवादियों, कट्टरवादी और देश को अस्थिर करने पर बाजिद हुए संगठनों के खिलाफ करने के लिए है, रोजाना की कानून-व्यवस्था का हल हेतु तो कतई नहीं।
दूसरी ओर आंध्र प्रदेश ने विद्रोही गतिविधियों का मुकाबला अपने बूते सफलतापूर्वक कर दिखाया है, सबसे महत्वपूर्ण है कि केंद्रीय बलों को शामिल किए बिना, राज्य पुलिस ने प्रतिबद्ध अफसरों की अगुवाई में सुनियोजित ढंग से प्रशिक्षित किए पुलिस वालों के संकल्प से बगावत को खत्म किया है। इस दौरान, दोनों पक्षों में पर्दे के पीछे गुप्त-वार्ताएं भी हुईं, इसने भी संघर्ष का हल निकालने में मदद की। वहां भले ही अलग-अलग विचारधारा वाली सरकारें आई-गईं, लेकिन सबने मूल नीति यही रखी। आज आंध्र प्रदेश कट्टर माओवादी विद्रोहियों से मुक्त है और अब राज्य के बेटे-बेटियां न केवल सूबे में बल्कि विदेशों में भी ऊंचे ओहदों पर आसीन हैं। आम आदमी को तो मुफ्ती वस्तुओं-रियायतों की क्षणिक राहत की बजाय माकूल रोजगार से स्थाई शांति, शिक्षा, स्वास्थ्य और अच्छे जीवनस्तर की दरकार होती है।
जम्मू-कश्मीर एक अलग तरह का खेल है, क्योंकि वहां पाक की दखल से विदेशी एजेंटों, हथियारों-नशे की तस्करी से हालात बने हैं। भौगोलिकता भी ऐसी है कि सीमा पूरी तरह सील नहीं हो सकती और कहीं न कहीं आतंकियों को विभिन्न तरीकों वाली सीमित ही सही, स्थानीय मदद प्राप्त है। यहां भी, मुख्यधारा के राजनीतिक दल और प्रशासन विशेष मददगार नहीं रहे। विभिन्न स्तरों पर बड़ी मात्रा में फंड हड़पा जाता है। प्रशासन न तो चुस्त है न ही जनसरोकार से सहानुभूति रखने वाला। सरकार का लोगों से सीधा संवाद जरूरी है, वहीं विकास कार्यों में जनता की सक्रिय भागीदारी हो। जनप्रतिनिधियों व स्थानीय प्रशासकों के बीच निरंतर राब्ता कायम हो। अकेले अफस्पा जैसे कठोर कानूनों से परिणाम नहीं मिलेंगे। सीधी बातचीत के अभाव में स्थानीय युवा ज्यादा संख्या में विद्रोही संगठनों में शामिल होने लगे हैं, खासकर श्रीनगर शहर में।
संक्षेप में, सरकार व लोगों के बीच गांवों से लेकर शीर्ष तक, बिना मध्यस्थों के सीधा व लगातार संवाद हो। केंद्रीय बलों की दखलअंदाजी कम-से-कम व राज्य पुलिस की भागीदारी ज्यादा हो। वास्तविक सीमा रेखा के हालात के मद्देनज़र सेना व अर्ध-सैन्य बलों को सीमा सुरक्षा के लिये मुक्त रखा जाए, जो उनका मुख्य काम भी है। देश में कहीं आपातकालीन स्थिति बनने पर वह तैनाती को उपलब्ध तो रहेगी ही। हमारी सेना एक उच्च प्रशिक्षित, अनुशासित व प्रेरित बल है, आंतरिक स्थिति से निपटने को उसका इस्तेमाल अंतिम हथियार के रूप में हो। सिविल झगड़े निपटाने को तैनाती सिविलियन क्षेत्र में लंबे समय तक न हो।
अंत में मीडिया कुछ शब्द- टीवी, अखबार और सोशल मीडिया के अपने मित्रों के लिए। बदलाव के लिए, अपने आलीशान दफ्तरों से बाहर निकलकर उन जगहों पर जाएं और लोगों से हकीकत में मिलें, जिनके बारे में लिखते हैं या अपने चैनलों पर अलग रूप में पेश करते हैं। यदि आप लोग अपना फर्ज सही ढंग व ईमानदारी से निभाएं तो समस्याएं बहुत कम समय में ज्यादा दोस्ताना तरीके से हल हो जाएंगी। चीजों को समस्याग्रस्त आम आदमी के नजरिए से देखने की कोशिश करें और उनकी मुसीबतें बढ़ाने की बजाय हल निकालने में सहायक बनें।
लेखक मणिपुर के राज्यपाल,
संघलोक सेवा आयोग अध्यक्ष एवं
जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।