वे कभी-कभी इस देश की समस्याओं की नब्ज की सही पड़ताल कर लेते हैं। पिछले दिनों एक एेसा ही वक्तव्य सामने आया कि जब यहां बड़े उत्साह और कोलाहल के साथ नयी विकास योजनाओं की घोषणा हो जाती है और बरसों बीत जाने के बाद भी वे पूरी नहीं होती, अधबनी सड़कें, अधूरे पुल और बीच में ही बन्द कर दिये गये निर्माण कार्य नजर आते हैं। तब आम आदमी अपने आपको प्रवंचित अनुभव करता है। सफल जिंदगी जीने के शाॅर्टकट तलाश करता है, और किसी न किसी कन्धे का सहारा लेकर अपने जीवन के यथास्थिति वाद से ऊपर उठने का प्रयास करता है। अपने जैसे चन्द लोगों को हथेली पर सरसों जमा रंक से राजा हो जाते देखता है, तो वह अपने ऊपर एक एेसी भ्रष्ट संस्कृति को थोपा हुआ पाता है कि उससे निजात पाने का उसे कोई मार्ग नजर नहीं आता। अन्तत: वह भी उसी संस्कृति का एक कलपुर्जा मात्र बना हुआ अपने आपको पाता है।
पिछले दिनों विश्व के देशों में जड़ जमा चुके भ्रष्टाचार की डिग्री का एक आकलन हुआ। पाया गया कि इन देशों में भ्रष्ट आचरण लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी का एक अनिवार्य अंग बन चुका है। उसके परिणाम के रूप में बड़े आदमियों से लेकर मध्यजनों तक जुड़ा रहना। एक एेसी संपर्क संस्कृति कि जिसको अपनाये बिना शिक्षा, नौकरी या व्यवसाय का कोई मार्ग भारत में आम आदमी के लिए खुलता नहीं।
वैसे यह चाहे केंद्रीय धरातल हो या राज्य स्तर, सरकार से लेकर नौकरशाही तक हर जगह आम जीवन से भ्रष्टाचार को मिटा देने की घोषणायें होती रहती हैं। अभी इस देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी शासन पारी के आठ वर्ष पूरे किये। इस मौके पर उत्सवधर्मी घोषणाअों में से एक घोषणा यह भी की कि उनकी सरकार ने अपनी पूर्ववर्ती सरकारों से बिल्कुल अलग हटकर हर कदम पर भ्रष्टाचार से लोहा लेने का प्रयास किया है। पंजाब में बदलाव की चाह रखने वाले वोटर परिवर्तन की गारंटी देने वाली आप पार्टी की सरकार लाये हैं। इस सरकार ने भी घोषणा की है कि उसने बीस दिन में इस राज्य से भ्रष्टाचार को खत्म कर दिया।
लेकिन आज स्थिति यह है कि इस सरकार के सेहत मंत्री जिन्हें इस राज्य में सेहत क्रांति की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी, वे फंसे हैं। इसकी सूत्रधार दिल्ली की केजरीवाल सरकार के दिल्ली माॅडल में मुहल्ला क्लीनिकों की स्थापना को सरंजाम देने वाले मंत्री महोदय भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण कानून की गिरफ्त में हैं। यही नहीं, धनशोधन भी एक एेसी प्रवृत्ति के रूप में देश के आर्थिक जीवन में कदम जमा चुका है, कि सत्तापक्ष और विपक्ष के बड़े-बड़े नेता इसके अवैध इस्तेमाल के कारण कानूनी जांच और दंड प्रक्रिया के आमने-सामने होते रहते हैं। चाहे वे पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री चन्नी के भानजे, भतीजे हों या देश के मुख्य विपक्षी दल की सर्वेसर्वा।
कहा जाता है कि कोरोना काल में डिजीटल मुद्रा अथवा आभासी मुद्रा का प्रचलन इसका सुविधाजनक मार्ग बन चुका है। लेकिन इस पर कारगर नियंत्रण कर लेने के कोई प्रयास अभी देश की वित्त नीति के स्तर पर सफल नहीं हो सके, वित्तमंत्री की भारी कर लगाने की घोषणाओं के बावजूद। वैसे आदर्श भारत का नाम लेकर देश में नैतिक मूल्यों और आदर्शों के नवजागरण का मंचीय कोलाहल करने में कोई भी स्वनाम धन्य नेता कम नहीं रहता। लेकिन जब-जब चुनाव होते हैं, तो उसमें सत्ता के लिए कूदने वाले उम्मीदवारों के दामन पर प्राय: अपराध के आरोपों के छींटे होते हैं। देश का दंड विधान अपना निर्णय घोषित करने में समय लगाता है, और मुकदमों की सुनवायी तारीख पर तारीख के मृग जाल में फंसी दिखायी देती है। इसलिए यह विधानसभायें हों, या भारतीय संसद के निर्वाचित प्रतिनिधि- सब जगह इनके दामन पर आरोपों के छींटे साफ नजर आते हैं। एेसी अवस्था में जब सत्ता पक्ष अथवा विपक्ष की बेंचों से यही निर्वाचित प्रतिनिधि शुचिता और नैतिकता की दुहाई देते नजर आते हैं या देश में नव आदर्शों और नव जागरण का संदेश देने की बात करते हैं, तो बड़ा अजब लगता है। चाहे सब ओर भारतीय लोकतंत्र की गरिमा का बखान करते हुए यह कहा जाता है कि यहां वोटर के पास अपार शक्ति है। वह इस शक्ति का प्रयोग करके इस देश में राष्ट्रपति अथवा प्रधानमंत्री की कुर्सी पर किसी गरीब से गरीब अथवा कमजोर से कमजोर आदमी को बिठा सकता है।
लेकिन वस्तुत: एेसा होता नहीं। देश के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन में धनिक घराने कहीं बहुत गहरे धंसे हुए दिखायी देते हैं। हमारे देश का संविधान प्रजातान्त्रिक समाजवाद की स्थापना का नाम लेता है, लेकिन पिछले चन्द वर्षों में डाॅॅ. मनमोहन सिंह के आर्थिक उदारवाद का स्थान सार्वजनिक-निजी क्षेत्र की भागीदारी के नाम पर निजी क्षेत्र ने ले लिया है। कारण यह बताया जा रहा है कि सार्वजिनक क्षेत्र की नौकरशाहों की लालफीताशाही की कछुआ चाल ने हमें विकास मार्ग से खदेड़ दिया था। अब देखना है कि राष्ट्रीयकृत क्षेत्रों में भी निजी क्षेत्र की भागीदारी उसे द्रुत या खरगोश चाल बख्शेगी।
खैर वक्त बदलने के साथ-साथ आर्थिक नीतियों के सुधार और परिवर्तन की गुंजायश हमेशा रहती है। इस परिवर्तन को चाहे डिजीटल मार्ग के साथ लाया जाये या आॅनलाइन क्रांति के साथ। फिर स्वत: स्फूर्त भारत का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कोई भी क्षेत्र अस्पृश्य नहीं है, चाहे वह निजी क्षेत्र हो या सार्वजनिक क्षेत्र।
लेकिन निजी क्षेत्र की ओर अतिरिक्त झुकाव भ्रष्टाचार के नये दरवाजे न खोल दे, इसका ध्यान हमेशा रखना होगा। यह सत्य समझा जाता है और याद रहना चाहिये कि निजी क्षेत्र लाभभावना से प्रेरित होता है, और सार्वजनिक क्षेत्र जनकल्याण भावना से। द्रुत आर्थिक विकास की दौड़ में देशी-विदेशी निजी निवेश को भारत की ओर आकर्षित करना है। यह इक्कीसवीं सदी की आवाज है। लेकिन इस अंध दौड़ में कहीं देश का साधारण जन और उसके हित उपेक्षित न हो जायें, इसका ध्यान रखना होगा। परन्तु अभी कोरोना काल से मुक्त होते भारत में जो सर्वेक्षण आंकड़े सामने आ रहे हैं, वह यही बताते हैं कि इस विकटकाल में अरबपति तो खरबपति हो गये लेकिन देश का आम आदमी कम आपूर्ति, कम रोजगार, अधिक महंंगाई और अधिक भ्रष्टाचार के संकट में कुछ इस कदर घिर गया है कि विभिन्न राज्यों से, जिनमें पंजाब भी शामिल है, हत्याओं से अधिक आत्महत्याओं के मामले रिपोर्ट हो रहे हैं।
अच्छे-भले काम पर लगे नौजवान महामारी की विभीषिका से पैदा आर्थिक मंदहाली के कारण बेकार हो गये हैं। इन बेकार हो गये युवकों में से एक बड़ी संख्या अपने गांव-घरों की ओर वापस पलायन कर गयी है, जहां कोई क्रांति नहीं घटी, उनकी रोजी-रोटी का कोई ठौर-ठिकाना आज भी नहीं है।
यह ठिकाना बन सकता है अगर यहां लघु और कुटीर उद्योगों के विकास के साथ विनिर्माण की एक नयी दुनिया रच दी जाये। किताबी भाषणों और घोषणाओं के स्तर पर तो यह रच भी दी गयी है। लेकिन इसके कदम अभी उभरकर ग्रामीण जिंदगी को सराबोर नहीं कर सके। जिस दिन इनकी घोषणायें यथार्थ हो जायेंगी, तब निश्चय ही ग्रामीण भारत स्वर्णिम भारत कहलाने लगेगा।
लेखक साहित्यकार हैं।