कृष्ण प्रताप सिंह
कांग्रेस आज सत्ता के साथ संभावनाएं तक गंवाने के कगार पर जा पहुंची है। कई लोग उसे यह अर्धसत्य याद दिलाने से भी गुरेज नहीं कर रहे कि महात्मा गांधी ने आजादी मिलने के तुरंत बाद ही उसकी भूमिका समाप्त मान ली थी और उसे भंग कर देने के पक्ष में थे। विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद वह ज्यादातर दूसरे विपक्षी दलों की विश्वासपात्र नहीं है। सत्ताधीश उसे न तीन में मानते हैं, न तेरह में। फिर भी कांग्रेसमुक्त भारत का आह्वान करते हैं और देश की हर समस्या का ठीकरा उसी पर फोड़ते हैं।
जैसे ही वह स्वतंत्रता संघर्ष और उसके मूल्यों से मंडित बहुलवादी भारत के विचार की वारिस होने का दावा करती है, उसे एक परिवार, मां-बेटे या भाई-बहन की पार्टी बताने और अपने सुनहरे दिनों में तात्कालिक राजनीतिक लाभों के लिए ‘सुविधाजनक’ रास्ते के उसके चयन की मिसालें गिनाने लग जाते हैं। दूसरी ओर, विपक्षी पार्टियों को लगता है कि अपने मूल चरित्र में वह उनकी सत्तारूढ़ भाजपा जैसी ही दुश्मन है क्योंकि न वह देश में तीसरी ताकतों को फूलती-फलती देखना चाहती है, न उसकी जगह सत्ता की ‘स्वाभाविक’ पार्टी बन रही भाजपा।
वे कहती हैं कि नरेन्द्र मोदी ने जब अपनी हिन्दुत्व की परियोजना को शक्तिशाली राजनीतिक विचार में बदलना आरंभ किया तो उसका कारगर जवाब कांग्रेस को ही ढूंढ़ना था। आज कौन कह सकता है कि 2004 के लोकसभा चुनाव में अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा पूर्ण बहुमत से सत्ता में लौट आती तो वही सब न करने लग जाती, जो आज नरेन्द्र मोदी की सरकार कर रही है, लेकिन कांग्रेस जैसे-तैसे उन्हें हराकर निश्चिंत होकर बैठ गई। इस गफलत में कि उसने सारी लड़ाई जीत ली है।
2014 में मोदी के ‘महानायकत्व’ से हारने के बाद भी वह मुकाबले में आने के लिए उनकी किसी बड़ी गलती की ही प्रतीक्षा करती रही। यह इंतजार, इंतजार ही रह गया तो भी उसने कुछ नहीं सीखा और गत लोकसभा चुनाव में भी उसने उन्हें उन्हीं के हथियारों से हराना चाहा। भाजपा से उसकी सारी लड़ाई हिन्दुत्व के ही दो नरम व गरम रूपों के बीच केन्द्रित हो गई। राहुल गांधी आज भले ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार से विचारधारा के स्तर पर लड़ने की बात कह रहे हैं, उस वक्त वे अपना जनेऊ दिखा और गोत्र बताकर खुद को ‘बेहतर हिन्दू’ सिद्ध करने में लगे थे। शायद इसलिए कि 2014 की हार की समीक्षा हेतु गठित पार्टी की एंटनी कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि मतदाता उसे ‘मुसलमानों की पार्टी’ मानने लगे हैं।
आज भी कांग्रेस से यह नहीं हो पा रहा कि निर्णायक क्षणों में थोड़ा जोखिम उठाकर दाहिनी या बायीं करवट लेकर खुद को बचाने की सोचे। सोचे भी तो उसके भीतर के विघ्नसंतोषी आत्मघाती विस्फोट करने लगते हैं। इसकी एक मिसाल ग्रुप-23 का ऐन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के वक्त ही उसके संगठन चुनाव का मुद्दा उठाना और पश्चिम बंगाल व असम के गठबंधनों पर एतराज उठाना है।
ठीक है कि 2019 की हार के बाद राहुल थोड़ी बदली-बदली, टू द प्वाइंट और बेलौस राजनीति करते नजर आ रहे हैं। पिछले दिनों संभवतः कांग्रेस की अतीत की गलतियों का बोझ ढोने की नियति से निजात पाने के लिए उन्होंने 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा देश पर थोपे गये आपातकाल को बड़ी गलती भी करार दिया। साथ ही यह भी कहा कि 1975-77 के दौरान देश में जो कुछ हुआ था, और आज जो हो रहा है, दोनों बिल्कुल अलग-अलग चीजें हैं।
लेकिन क्या कांग्रेस के भविष्य के लिए इतना ही पर्याप्त है? नहीं, राहुल या कांग्रेस आपातकाल को बड़ी गलती मानते हैं तो उन्हें यह भी समझना चाहिए कि वही बड़ी गलती कांग्रेस के जमीन से उखड़ने का सबसे बड़ा कारण बनी। उन्हें यह भी समझना चाहिए कि राजनीति में सिर्फ कोरे आदर्शों से काम नहीं चलता। हकीकत यह है कि आपातकाल से खस्ताहाल होना शुरू हुआ कांग्रेस का संगठन आज बुरी तरह ध्वस्त हो चुका है। हर चुनावी शिकस्त के बाद वह खुद भी इसे मानती है, लेकिन फिर अगली हार तक के लिए भुला देती है। इसीलिए आज उसकी असहायता उसे राहुल के अलावा किसी और नेता में अपना भविष्य नहीं देखने दे रही। टूट-फूट के डर से गांधी परिवार से बाहर का अध्यक्ष तक नहीं चुनने दे रही। राहुल अपनी कैजुअल नेता की छवि से बाहर नहीं निकल पा रहे और कई जरूरी अवसरों पर उनकी छुट्टी व विदेश यात्रा शर्मिन्दगी का कारण बन जाती रही है।
सवाल है कि ऐसे में आगे का रास्ता क्या हो? कांग्रेस सेवादल के कार्यकर्ता सुझाते हैं कि कांग्रेस का सेवादल, जिसकी स्थापना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से दो साल पहले 1923 में की गई थी, आज भी साम्प्रदायिक प्रचारों का जवाब देकर देश के सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक विमर्श में कांग्रेस की खोई जगह वापस ला सकता है।