प्रतिशोध की आग में खुद झुलसा पाक
पाकिस्तान ने 1971 की हार से सबक लेकर रीति-नीति से खुद में सुधार करने के बजाय भारत से बदला लेने को लक्ष्य बना लिया। जिसे सेना ने स्थाई सिद्धांत में बदल डाला। उसकी जि़द ने आर्थिकी व लोकतंत्र को नष्ट किया। पाक अलग-थलग पड़ गया। दरअसल,पाकिस्तान की सबसे बड़ी हार ढाका नहीं, बल्कि उससे सबक न सीखना है।
हर पीढ़ी में, राष्ट्रों को पूछना चाहिए कि उन्हें क्या कुछ याद रहा, बल्कि यह भी कि किस रूप में याद रखना चुना। जब स्मृति प्रतिशोध बन जाए, तो यह भविष्य को अतीत की ज़ंजीरों में जकड़ देती है। इस सिद्धांत का इससे स्पष्ट उदाहरण और कोई नहीं है कि 1971 के बाद से पाकिस्तान बदला लेने का जुनून पाले हुए है।
ढाका में आत्मसमर्पण करने के 53 साल बाद भी, यह सच्चाई अटल है : 1971 में पाकिस्तान के टुकड़े भारत की वजह से नहीं हुए थे– बल्कि पाकिस्तान की अपनी करतूतें थी। यह सिर्फ़ एक युद्ध का अंत नहीं था; यह एक दोषपूर्ण राष्ट्रीय कल्पना का सामने आना था। पूर्वी पाकिस्तान की त्रासदी उनके द्वारा रची गई थी जिन्हें यह देखने से इनकार था कि राष्ट्र को जबरन एकजुट नहीं रखा जा सकता, न ही मुंह बंद कर किसी की पहचान नकारी जा सकती है।
फिर भी, यह सच्चाई स्वीकार करने के बजाय, पाकिस्तानी शासन, खासकर उसके सैन्य प्रतिष्ठान ने एक अलग रास्ता चुना : आत्मचिंतन का नहीं, बल्कि प्रतिशोध का। हार की आग में जलते हुए, बदले की भावना से ओत-प्रोत एक सिद्धांत गढ़ा। ऐसा सिद्धांत जिसने राह सुधारने की बजाए उसे षड्यंत्रकारी बनाया, और राष्ट्रीय पीड़ा को संस्थागत स्थायित्व में बदल दिया। यह सिद्धांत तबसे कई रूप ले चुका है।
वर्ष 1971 के बाद वाले दशकों में, पाकिस्तानी सेना ने सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में घुसपैठ कर ली : अर्थव्यवस्था, शिक्षा, मीडिया, विदेश नीति और यहां तक कि धर्म में भी। पाठ्यपुस्तकें आक्रामकता का महिमामंडन करती हैं और आत्मनिरीक्षण शामिल नहीं है। सरकार भले ही चुनाव से बनती हो, लेकिन फैसले जनरल लेते हैं। आर्थिक स्वायत्तता पाने की जगह रणनीतिक भाड़े पर काम करना चुना। और जब दुनिया से इस हेतु पैसा आना बंद हो गया, तो खालीपन भरने को अन्य ने मौका लपका - चीन, खाड़ी मुल्क, गैर-सरकारी गुप्त संगठन भी – बतौर साझेदार नहीं, बल्कि कठपुतली के रूप में बरतने को। ऐसे ढांचे को कायम रखने के लिए एक दुश्मन जरूरी होता है। अगर भारत का वजूद न होता, तो यह सिद्धांत कोई और दुश्मन गढ़ लेता। और इस तरह, युद्ध कभी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ - बस युद्ध के मैदान से हटकर तौर-तरीके बदल गए। कारगिल, आईसी-814 अपहरण , मुंबई आतंकी हमला, पुलवामा और अब पहलगाम कांड - हर घटना यह दिखाने को कि रग हमारे हाथ में है, अपनी खोई प्रतिष्ठा फिर हासिल करने की या अपमान की इबारत फिर लिखने की कोशिश रही। लेकिन हर बार, पाक के लिए नतीजे उसके इच्छित लक्ष्य से कहीं ज़्यादा बुरे रहे।
इस सिद्धांत की कीमत उसे अंदरूनी पतन के रूप में और बाहरी दुनिया में अलग -थलग पड़ चुकानी पड़ी है। इस बदले से हासिल क्या हुआ? दरअसल, आतंकवाद एक दोधारी तलवार बन गया : वह जिसका इस्तेमाल कभी दूसरों को गहरी सामरिक चोट देने के वास्ते किया, अब वही बेखौफ होकर देश के अंदर हमला कर रहा है। आर्थिक बर्बादी यानी मुद्रास्फीति, ऊर्जा संकट, संप्रभुता का हनन। कूटनीति कुंद पड़ी, यहां तक कि पारंपरिक सहयोगी भी अब मदद करने से पहले शर्तें मनवा रहे हैं। नागरिक समाज का क्षरण : पत्रकारों का मुंह बंद करना, अल्पसंख्यकों को सताना, असहमति जुर्म बना दी गई। यह राष्ट्रीय सुरक्षा नहीं , राष्ट्रीय स्व-क्षति के सिद्धांत को जामा पहनाना है। जो सेना कभी ‘विचारधारा का संरक्षक’ होने का दावा करती थी, अब रियल एस्टेट और मीडिया चैनल मालिकों की चौकीदारी कर रही है। दरअसल, यह अपनी ही अक्षमता की रचयिता और बंदी बन चुकी है। फिर आन पहुंचे असीम मुनीर! जब ऐसा लगने लगा कि बदले की आग कुछ मद्धम पड़ रही है, एक शख्स आया जिसने उसे फिर भड़का दिया। जनरल मुनीर, जिन्हें असफलता के विचार से घृणा है, 1971 के बाद रची पाकिस्तान की पटकथा को ठंडा पड़ते देख सह न सके, और जम्मू-कश्मीर से अनु. 370 हटाना तो बिल्कुल असहनीय रहा। उन्होंने फिर पूरे सिद्धांत को चिंगारी दे दी।
मुनीर अपने भाषणों में द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का जोर-शोर से आह्वान करते हैं, उग्रवाद को शह और शत्रुता को नए सिरे से भड़काने को सड़क पर भीड़ उतारना एवं राज्य स्तर पर माहौल बनाना चाहते हैं। लेकिन इस बार, क्षेत्र ने प्रतिक्रिया अलग तरह की दी। ऑपरेशन सिंदूर न केवल भारत की सैन्य सुस्पष्टता, बल्कि कूटनीतिक संयम की भी मिसाल रहा। मुनीर को इसकी कीमत स्पष्ट पता चल गई - न केवल भारत की प्रतिरोधी कार्रवाई से, बल्कि अलग-थलग पड़ने में भी। विडंबना यह कि जिन नेताओं को उन्होंने चुनावी लाथ पहुंचाकर सशक्त बनाया, अब उन्हें ही उनका कोपभाजन बनना पड़ रहा है। जिस सिद्धांत ने कभी प्रतिष्ठा बनाने का वादा किया, वही बोझ बन सिर पर सवार है।
रक्त बहाकर जन्मा और कभी दृढ़ पुनर्निर्माण का प्रतीक रहा बांग्लादेश अब एक संकटपूर्ण रास्ते पर चल निकला है। यह उन्हीं आवेगों का प्रतिबिम्ब है, जिन्होंने कभी उसे सताया था - सत्ता को मुट्ठी में रखना, विपक्ष को दबाना और असहमति को गद्दारी ठहराने जैसी पुरानी इबारत का लौटना। बांग्लादेश के अब फिर उस हालत में पहुंचने का डर बन गया है, जिसपर कभी इसने जीत पाई थी।
यहां फिर से वही दक्षिण एशिया है – जिसे सबक लेना गवारा नहीं। पाकिस्तान की सेना अभी भी एक शून्य-योग भ्रम में फंसी हुई है - मीडिया सुर्खियों को रणनीति और पतन को गरिमा समझ रही है। और ऐसा करके, वह अपने नागरिकों को असुरक्षा और मोहभंग में और ज्यादा गहरे धकेल रही है। यहां यह पूछना ज़रूरी है: ऐसे सिद्धांत का क्या फ़ायदा जो देश की किसी भी संस्था को मज़बूत न करता हो, उसके किसी भी घाव को न भर सके और किसी भी व्यक्ति को सुरक्षित न कर सके? प्रतिशोध एक घटिया शिक्षक होता है। पिछली गलतियों के दोहराव के अलावा कुछ नहीं सिखाता।
आगे के विकल्प स्पष्ट है: बदला-सिद्धांत जारी रहना और ‘हम खुद भी पीड़ित हैं’ वाला मिथक कायम रखा जाए, जिससे सेना का ही खजाना भरेगा। - या फिर इस नीति को फिर से लिखना – नकारात्मक होकर नहीं, बल्कि गरिमा बनाने के संकल्प के साथ। ऐसी नीति जो पुरानी गलतियां स्वीकार करे, छद्म दुस्साहस से विमुख करे, रक्षा पर जोर के बजाय विकासोन्मुखी हो।
भारत को अपने पड़ोसी का पतन देख खुश होने की जरूरत नहीं। संयम भारत का सभ्यतागत दिशासूचक रहा है। लेकिन स्पष्टता का अर्थ क्रूरता नहीं हो सकता। इस क्षेत्र का भविष्य किसी एक सिद्धांत के पतन का बंधक नहीं रह सकता। उस आईने का सामना करना सबसे मुश्किल होता है जो विरोधी का नहीं अपना अक्स दिखाए। पाकिस्तान की सबसे बड़ी हार ढाका नहीं, बल्कि उससे सबक न सीखना है। 1971 की पीड़ा अधिक समावेशी, लोकतांत्रिक, संघीय कल्पना को जन्म दे सकती थी। इसकी बजाय, वह अधिनायकवादी निजाम का बहाना बन गयी। अब तो रणनीतिक तौर पर भारत की बराबरी करने की मृगतृष्णा भी धुंधली पड़ चुकी है। बचा है तो एक मौका – जो नई पटकथा लिख सकता है। साझी दुश्मनी अच्छे दोस्त बनाती है, पर तब तक ही जब तक आप खुद अपने सबसे बड़े दुश्मन न बन जाएं। फिर वही दोस्त आपके साथ खेल करने लगते हैं। यह रणनीति न होकर, धीमा आत्मसमर्पण है। समय है इसे दुरुस्त करने का – शायद पुरानी गलतियों को भी। दक्षिण एशिया के लिए यही सबक है।
सार्क को दक्षिण एशिया के मित्र संघ की तरह विकसित किया जाए– सहयोग, आपसी संपर्क और साझी सभ्यता वालों का एक स्वैच्छिक, मूल्य-जागरूक मंच – जो क्षेत्र के उन देशों के लिए खुला हो, जिनकी जड़ें साझा भौगोलिकता व सभ्यता में हैं और क्षेत्र की तरक्की हेतु दूरदर्शी सोच रखते हैं। वह आपसी समझ आधारित हो। असल शांति चाहने वाले हर देश को इसमें जगह मिले। अगर पाकिस्तान फिर भी अलग खड़ा होना चुनता है, तो उसकी कुर्सी खाली रखी जाए – ताड़ना के तौर पर नहीं, बल्कि उस भविष्य की मूक याद के रूप में, जिसकी कल्पना उसने कभी की थी, और जिसे वह पुनः हासिल कर सकता है।
लेखक सेना की पश्चिमी कमान के पूर्व कमांडर और पुणे इंटरनेशनल सेंटर के संस्थापक ट्रस्टी हैं।