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मिले सुर मेरा तुम्हारा... पर क्या सच में मिल रहा

द ग्रेट गेम

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नए भारत की दिक्कत यह है कि अब लोगों में परस्पर संवाद की कमी सामने आ रही है। शायद सबसे बड़ा असर भारत की विदेश नीति और खासकर भारत की अमेरिका को लेकर नीति पर होने वाली बहस पर है। जबकि लोकतंत्र कायम रखने के लिए मतभेद व असहमतियां जीवित रहनी जरूरी हैं।

बीते शुक्रवार पीयूष पांडे का निधन हो गया, उसी हफ़्ते जब फ्रांसेस्का ओरसिनी को भारत में प्रवेश से वर्जित कर दिया गया। विज्ञापन जगत के इस गुरु, जिन्होंने 1988 में दूरदर्शन के लिए 5.36 मिनट के ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ गीत के बोल लिखे थे, अगर उन्हें पता चलता कि स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज़ की इस प्रसिद्ध हिंदी-उर्दू विदुषी को मार्च माह में वीज़ा शर्तों का उल्लंघन करने की वजह से गत सप्ताह लंदन वापस भेज दिया गया, तो उन्हें दु:ख होता। हालांकि यह ठीक है, उस समय ओरसिनी पर्यटक वीज़ा पर थीं, फिर भी शोधकार्य कर रही थीं - स्पष्टतः गृह मंत्रालय ने 40 सालों से भारत में काम कर रही इस प्रसिद्ध बहुभाषी इतिहासकार को स्वीकार नहीं किया। शायद, उनके सुर नहीं मिले।

पीयूष पांडे को उनके फेविकोल एड कैंपेन के लिए भी याद किया जाएगा, जिसने विविधतापूर्ण ऐसे राष्ट्र के बारे में एक अहम संदेश दिया, जो कुछ भी हो, अच्छे-बुरे, हर समय में एकजुट रहकर सफलता अर्जित करता है।

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यहां मुख्य बात है, ‘एकजुटता कायम रहना’। भारत 78 साल का हो गया और यह एकजुटता कमोबेश बनी रही - कभी ज़्यादा, कभी कम। आपके वैचारिक रुझान के आधार पर, हम इस पर बहस कर सकते हैं कि चीजें किस हद तक बिखर रही हैं या नहीं। जो इस विचारधारा के हैं कि चीज़ें बिखर नहीं रहीं वे मिसाल देंगे कि पंजाब में कार्यरत करीब 10 लाख बिहारी प्रवासी मज़दूर, जिनको तीन दिवसीय छठ पूजा उत्सव मनाने के लिए घर ले जाने वाली ट्रेनों का आवागमन सुव्यवस्थित करने में भाजपा कृत संकल्प है–एक कहावत प्रयोग करें तो, भाजपा यह सुनिश्चित करने में कसर नहीं छोड़ रही कि यह प्रक्रिया सुचारू रहे। यह एक चतुर चाल है। बेशक, इसका मकसद दोनों राज्यों में भाजपा की राह आसान करना है - बिहार में चुनाव नजदीक हैं, छठ के तुरंत बाद, और पार्टी को आस है कि घर वापसी की सुखद रेल यात्रा बिहारी मजदूरों को तय करने में मदद करेगी कि उन्हें किस तरफ वोट करना है।

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जिन्हें लगता है कि चीज़ें बिखर रही हैं, वे उदाहरण देंगे भारत से फ्रांसेस्का ओरसिनी के निष्कासन का– पहेली यह कि ऐसा क्यों किया गया, क्योंकि ‘वीज़ा शर्त उल्लंघन’ के अलावा कोई असल कारण नहीं बताया। पंजाब विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर शैली वालिया ने ‘द ट्रिब्यून’ में पिछले कल अपने लेख में शैक्षणिक स्वतंत्रता कायम रखने की दलील दी है, लेकिन उल्लेखनीय है कि कुछ बुद्धिजीवियों - रामचंद्र गुहा, मुकुल केसवन आदि - के अलावा देश में लेक्चरर्स, शिक्षकों या प्रोफेसरों का कोई समूह भारत से ओरसिनी के निष्कासन का विरोध करने को खड़ा नहीं हुआ।

शायद बढ़ती खामोशी ही समस्या की जड़ है। कम लोग ही अपनी बात रख रहे हैं। चूंकि लोकतंत्र मतभेद व असहमतियां जीवित रखने को विपक्षी दलों पर निर्भर रहते हैं—सिवाय इसके कि आजकल विपक्षी दल या तो सिमटे पड़े हैं या फिर अप्रासंगिक हो रहे हैं- बहस करने वाले भारतीय दुर्लभ और पस्त हैं। शायद सबसे बड़ा असर भारत की विदेश नीति और खासकर भारत की अमेरिका को लेकर नीति पर होने वाली बहस पर है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप ने अमेरिका में भारत के राजदूत विनय मोहन क्वात्रा के नाम का गलत उच्चारण कर इसे आसान नहीं बनाया। जो व्हाइट हाउस में अपने डेस्क पर बैठ ‘हैप्पी दिवाली’ का संदेश लिख रहे ट्रंप के दाईं ओर खड़े दिखे। वह संदेश जिसका मंतव्य भारत के लिए बधाई का क्षण होना था – आखिर कितने राष्ट्राध्यक्षों ने आपके त्योहार को अपना मानकर अपनाया है?– पर यह मौका बड़ा हास्यास्पद क्षण बनकर रह गया।

तो क्या यह पूछने का सही समय है कि क्या मोदी सरकार की अमेरिका नीति ने भारत को असफल बना दिया? निश्चित रूप से, ट्रंप उन नेताओं में नहीं जिनके साथ दोस्ती आसान हो– वे एक आत्मकेंद्रित और अहंकारी व्यक्ति हैं। लेकिन यह भी असलियत है कि भारत ने इससे कहीं ज़्यादा विकट संकटों का सामना किया और वजूद बनाए रखा। ऐसे दो उदाहरण हैं - पहला, 1998 के परमाणु परीक्षणों उपरांत प्रतिबंध काल, जब बिल क्लिंटन और उनकी सरकार ने पूरी तरह भारत पर दबाव बना रखा था; तथापि, अमेरिका में भारत के तत्कालीन राजदूत नरेश चंद्रा ने धैर्य रखा व झुकने से इनकार कर दिया। दो साल बाद क्लिंटन भारत आए व पांच दिन खुशी-खुशी बिताए।

दूसरा उदाहरण है जब जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने भारतीय राजदूत रोनेन सेन की थोड़ी मदद से, अपनी रणनीतिक टीम के प्रभाव से बाहर निकल,भारत के साथ परमाणु समझौता किया था। सेन ने इस काम में खासकर अमेरिकी व्यवसायियों को लगाया था- जिनमें कई भारतीय मूल के थे।

तब फिर इस साल की शुरुआत में ट्रंप की व्हाइट हाउस में वापसी होने और टेक्सास के एक स्टेडियम में ‘अब की बार... ट्रंप सरकार’ के नारे की गूंज के बीच प्रधानमंत्री मोदी के साथ की परिक्रमा की यादें पूरी तरह भुला देने के बाद से हालात क्यों बिगड़ते गए? यह सवाल कई बार पूछा गया- पहले तब जब ज़ंजीरों में जकड़े भारतीयों को, जिनमें अधिकांश पंजाबी मूल के थे, हवाई जहाजों में भरकर भारत वापस भेजा गया- इससे पूर्व ट्रंप सत्ता में आने पर ‘ बाहरी अवांछित लोगों’ को वापस भेजने की हुंकार भर रहे थे और इसका पहला निशाना भारतीयों को बनाया। गत सप्ताह उन्होंने रूस से आयात किए जाने वाले सस्ते तेल की मात्रा कम करने के लिए विवश करके भारत को एक और शर्मिंदगी झेलने को मजबूर किया –यह तेल आपूर्ति शुरू होने के तीन साल बाद, मामले पर काफी पैरवी करने के बाद, आखिरकार मोदी सरकार को झुकना पड़ा।

लेकिन बात यहां तक पहुंची क्यों? कैसे विदेश मंत्रालय ने उचित सलाह न देकर प्रधानमंत्री मोदी को निराश किया? अपने सबसे महत्वपूर्ण रिश्ते यानि अमेरिका के साथ संबंध पर, भारत की विदेश नीति इतनी चुक क्यों गई कि अब उसमें पूरी तरह बदलाव की जरूरत हैै?

समस्या रूस से सस्ता तेल ख़रीदना बंद करने की नहीं है - इससे पहले भी, 2012 में, जब अमेरिका ने ईरान से तेल ख़रीद रोकने पर मजबूर किया था, तब भी भारत ने चुप्पी साध ली थी। दिक्कत यह है कि वाशिंगटन डीसी में भारत का कोई बहुत नजदीकी दोस्त नहीं बचा है, जो नुकसान की सूरत बनने पर उसे यह यकीन दिला सके कि इसमें हानि परस्पर है अर्थात दोनों एक ही पाले में हैं। याद कीजिए, जब रूस भारत को एस-400 मिसाइलें बेच रहा था, तब भी भारत ने उस पर लगे प्रतिबंधों में विशेष छूट देने के लिए अमेरिका को मना लिया था?

नए भारत की त्रासदी यह है कि अब लोगों के बीच संवाद कम हो रहा है। हम नहीं जानते कि हिंदी-उर्दू की इतिहासकार फ्रांसेस्का ओरसिनी को भारत से क्यों निकाला गया - कोई नहीं बता रहा। हमें नहीं पता कि ट्रम्प अब हमें पसंद क्यों नहीं करते, हालांकि कुछ सबसे होशियार अमेरिकी, भारतीय मूल के हैं। या फिर आधे पड़ोसी मुल्कों - नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश- के साथ हमारी तनातनी क्यों है।

मिले सुर मेरा तुम्हारा‍?

पर क्या असल में मिल रहा है?

लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं

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