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‘साड्डे पुत्तर’ ज़ोहरान ने झंडे गाड़े

द ग्रेट गेम

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रोमांचित करने वाले कुछ घंटों के लिए, आधे भारत ने न्यूयार्क के मेयर पद चुनाव में ज़ोहरान की जीत में किसी अपने का अक्स देखा। उनके माता-पिता भारतीय मूल के हैं व परिवार विविधता की मिसाल। लोकतांत्रिक समाजवाद समर्थक ज़ोहरान की जीत सहमति के उस लुप्त होते विचार का प्रतीक है, जिसने विभाजन के बाद के दशकों में भारत को परिभाषित किए रखा।

भारत ने न्यूयॉर्क में ज़ोहरान ममदानी की जीत को ‘साड्डे पुत्तर ने झंडे गाड़े’ की तरह अपनाया है, मीडिया का जो प्यार अक्सर शाहरुख खान जैसे दिग्गजों के लिए आरक्षित रहता है, वह उसने इस विजय पर उड़ेल दिया। यहां मामला सिर्फ़ उनकी बेबाक मुस्कान या अंगुलियों से बिरयानी खाते हुए वायरल हुई वीडियो का या बेधड़क होकर वामपंथी राजनीति की हिमायत करने (मसलन,फ़लस्तीन मुद्दे पर) भर का नहीं है। पिछले 72 घंटों में, गूगल पर ‘लोकतांत्रिक समाजवाद’ के बारे में सर्च करने वालों की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई है।

ज़ाहिर है, यहां यह बात भी मददगार है कि ज़ोहरान के माता-पिता भारतीय मूल के हैं - अमृतसर की लड़की मीरा नायर, जिन्होंने शिमला के तारा हॉल स्कूल में पढ़ाई की है;उनके पिता, महमूद ममदानी, एक गुजराती खोजा (शिया) मुसलमान हैं–पूर्वी अफ्रीका के तंगानयिका में जन्मे प्रवासी माता-पिता की संतान हैं और युगांडा के कंपाला में पले-बढ़े। नायर-ममदानी परिवार में अंग्रेजी के अलावा पंजाबी, हिंदी/उर्दू, गुजराती और स्वाहिली भाषाएं बोली जाती हैं।

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गत हफ्ते की शुरुआत में न्यूयॉर्क में मंच पर उनकी जीत का जश्न मनाते वक्त ममदानी परिवार की विविधता को देखते हुए–जहां ज़ोहरान के साथ उनके माता-पिता के अलावा पत्नी रमा दुवैजी (सीरीयाई मूल की इस लड़की का परिचय ज़ोहरान से एक डेटिंग ऐप पर हुआ था) और निकाह एक साल पहले दुबई में हुआ - यदि आपके मन में विचार आए कि कहीं वे युनाइटेड कलर ऑफ बेनेटॉन के विज्ञापन के विषयवस्तु तो नहीं, तो इसके लिए आपको माफ़ किया जा सकता है!

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एक पल के लिए, ट्रम्प के पागलपन के बीच, अमेरिका ने खुद को उबार लिया। ‘मुझे अपने पस्त, अपने गरीब...आज़ाद सांस लेने के लिए बेकरार अपने लोग सौंप दो’....स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी की आधारशिला पर अंकित 1883 की एम्मा लाज़रस कविता की पहली पंक्तियां यह कहती हैं। एक बहु-रंगी परिवार ने अमेरिका की द्विध्रुवीय श्वेत-अश्वेत राजनीति पर पार पा लिया और उसे अपना बना लिया (यहां यह मददगार रहा कि न्यूयॉर्क की 40 प्रतिशत आबादी आप्रवासियों की है)।

इसलिए यह दिलचस्प रहा कि बाकी देश की तरह दो हिस्सों में बंटे भारतीय मीडिया ने गत सप्ताह ज़ोहरान ममदानी की जीत को अपनी विजय बना लिया। यह सिर्फ़ ‘धूम मचा ले...’ गाने को लेकर नहीं, हालांकि इससे भी मदद मिली। यह इस तथ्य को लेकर है कि रोमांचित करने वाले कुछ घंटों के लिए सही, भारत के आधे हिस्से ने ज़ोहरान की जीत में किसी अपने का अक्स देखा।

यह वही आधा हिस्सा है जो जवाहरलाल नेहरू के कालजयी भाषण ‘नियति से मिलन’ की भावना के साथ पला-बढ़ा है, जिसे ज़ोहरान ने अपने भाषण की शुरुआत में उद्धृत किया है। उसका अब भी मानना है कि न्यूयॉर्क की सोच– ऊर्जावान एवं जीवंत, अव्यवस्थित एवं प्रामाणिक - अभी भी भारत की सोच हो सकती है, थोड़ा-सा यह और थोड़ा सा वह से बनी, अप्रवासियों का स्वागत करने वाली,जब यह अपने घर में सभी धर्मों, जातियों और पंथों के लोगों को समाहित कर लेती है।

दूसरा आधा हिस्सा ज़ोहरान की तीखी आलोचना करने वालों का है क्योंकि वे गुजरात और उसके बाद प्रधानमंत्री मोदी की राजनीति की आलोचना करते हैं, उनका मानना है कि ज़ोहरान हिंदुओं के खिलाफ ‘कट्टरता और पक्षपात’ को बढ़ावा दे रहे हैं और ये लोग इस्राइल एवं गाजा पर उनके विचारों से पूरी तरह असहमत हैं - ममदानी का मानना है कि इस्राइल गाज़ा में नरसंहार कर रहा है, जबकि भारत ने पीएम मोदी के शासनकाल में इस्राइल के साथ संबंधों को खूब बढ़ावा दिया है। (विडंबना यह है, और शायद इसीलिए इसे विडंबना कहा जाता है कि जिस दिन न्यूयॉर्क ने ममदानी के लिए मतदान किया, उस रोज़ इस्राइली विदेश मंत्री गिदिओन सा'आर भारत में थे)। स्वाभाविक था, मोदी सरकार के किसी भी सदस्य ने ममदानी की जीत पर स्वागत या बधाई नहीं दी। जिस दिन न्यूयॉर्क में मतदान हुआ, उस दिन भाजपा की राज्यसभा सांसद और राष्ट्रीय महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष रेखा शर्मा ने एक्स पर दक्षिणपंथी भावना व्यक्त करते हुए कहा ः ‘इस मामले में मैं श्री ट्रम्प के साथ हूं। भारतीय मूल के लोगो, वोट देते वक्त दो बार सोचिएगा। ममदानी की मां का भारतीय मूल की होना, उसे भारत का शुभचिंतक नहीं बनाता’।

यह जानना दिलचस्प होगा कि न्यूयॉर्क में बसे प्रवासी भारतीयों में मोदी समर्थकों ने वोट किसको दिया - वे सब जो प्रधानमंत्री के सार्वजनिक कार्यक्रमों में बिन बुलाए पहुंच जाते हैं, क्या वे भी ममदानी के पक्ष में थे या उनके ख़िलाफ़? अगर उन्होंने ममदानी के पक्ष में वोट दिया, तो इससे मोदी सरकार की प्रवासी नीति पर क्या असर पड़ेगा, जिसके साथ वह दशकों से इतनी गहराई से जुड़ी हुई है?

लंबे अर्से बाद, पहली बार, भारतीय मूल का एक अमेरिकी नागरिक शक्तिशाली बनकर अपने देश के सामाजिक-राजनीतिक विभाजन का प्रतिनिधित्व इतने स्पष्ट रूप से करने जा रहा है। घरेलू राजनीति से लेकर विदेश नीति तक, ज़ोहरान की जीत सहमति के उस लुप्त होते विचार का भी प्रतीक है, जिसने विभाजन के बाद के दशकों में भारत को परिभाषित किए रखा - जब आप अपनी मान्यताओं पर कायम रहते हुए भी किसी और की खुशी में भी शामिल होते थे, भले ही आपको उस व्यक्ति से ज़्यादा लगाव न भी हो। इसलिए भारतीय मीडिया द्वारा ममदानी का क्षणिक जश्न मनाना महत्वपूर्ण है। कुछ घंटों के लिए, बिहार चुनावों की ताबड़तोड़ कवरेज और पंजाब विश्वविद्यालय के कायाकल्प पर विवाद के बाद ‘धूम मचा ले’ ने जगह बनाई, यह बॉलीवुड गाना,जिसके लिए कुछ लोगों का कहना है, एक इंडोनेशियाई पॉप गीत से प्रेरित है - फिल्मी संगीत में खिचड़ी का एक आदर्श उदाहरण, थोड़ा-सा यह और थोड़ा-सा वह डालकर बनी।

यह खिचड़ी वह चीज़ है, जब आप विभिन्न अनाज एक बर्तन में डाल देते हैं और कुछ ऐसा बनकर निकलता है जिसका निराला स्वाद केवल दाल और चावल से कहीं बढ़कर होता है, वह जो आपकी स्वाद इंद्रियों पर छा जाए, वह जो न्यूयॉर्क के स्वाद को भारतीय चटखारे से जोड़ दे– ये दोनों जगहें भोजन कला के लिए जानी जाती हैं।

‘साड्डे पुत्तर’ ज़ोहरान ने अपने न्यूयॉर्क शहर में झंडा गाड़ दिया है - 34 साल की उम्र में, उसे डर से ज्यादा मतलब भी नहीं। इधर यहां चंडीगढ़ में, जब अखबार आपके हाथों में आया होगा, एक खबर यह भी है कि पंजाब विश्वविद्यालय के छात्रों ने विश्वविद्यालय की कार्य प्रणाली में बदलाव करने के केंद्र सरकार के फैसले को वापस लेने पर मजबूर कर दिया है, यह भय न रहने की प्रतिध्वनि है।

युवा कह रहे हैं -हट जाओ, हम पुरानी व्यवस्था को बदलने जा रहे हैं, उस नई व्यवस्था का रास्ता बना रहे हैं, जो लोकतांत्रिक समाजवादी या सरल शब्दों में लोकतांत्रिक है, हमारा समय आ गया है।

लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।

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