समाज में माता का ऋण सर्वोपरि है। जो संसार में कुछ करने का अवसर देती है! पिता ही समाज से परिचित कराकर जीवन की ऊंच-नीच बताते हैं। गुरु हमारे जीवन से अज्ञान मिटाते हैं।
डॉ. योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
निरंतर आत्मकेंद्रित होते समाज में व्यक्ति का चरम भौतिकतावादी होना किसी भी समाज के लिये खतरे की घंटी है। जीवन मूल्यों का यह पराभव कालांतर में हमारे रिश्ते-नातों को लीलता है। लोक उपकार की भावना तिरोहित होती है। कुल मिलाकर मानवता का हनन होता है। व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य में कमी कालांतर में समाज की दिशा-दशा भी प्रभावित करती है। आज समाज में आर्थिक उपलब्धियों को तो सफलता का पर्याय मान लिया जाता है, लेकिन किसी को भी ‘संस्कारों’ के खोने की कोई चिंता नहीं! अक्सर विभिन्न समाचार-पत्रों व सूचना के अन्य माध्यमों में यह सुनने को मिलता है कि किसी बेटे-बहू ने अपनी मां को घर से निकाल दिया या पिता के साथ रहने से उन्हें परेशानी है तो सहज ही लगता है कि हम अपने मूल भारतीयता के संस्कार पीछे छोड़ते जा रहे हैं!
समाज में जीवन मूल्यों और संस्कारों को पराभाव से उपजी टीस के बीच एक प्रेरक और मार्मिक प्रसंग पढ़ने को मिला है, जिसने मुझे उद्वेलित कर दिया है। वह प्रसंग मैं सुधी पाठकों से साझा करना चाहता हूं!
एक समय की बात है कि एक बहुत ही गरीब पिता ने मेहनत-मज़दूरी करके अपने बेटे को पढ़ाया-लिखाया और बेटे ने भी पिता की प्रेरणा से जमकर परिश्रम किया। फिर एक दिन ऐसा आया कि बेटा आईएएस की परीक्षा पास कर विभिन्न पदों से गुजरता हुआ ‘जिलाधिकारी’ बन गया! पिता की प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं था! बेटे की सफलता से पिता का सीना गर्व से फूल गया। लेकिन उसने सोचा कि क्या मेरे दिए संस्कार बेटे में विद्यमान हैं। बड़ा अधिकारी बनने के साथ उसमें मानवीय मूल्य पहले की तरह ही विद्यमान हैं? उसने बेटे की परीक्षा लेनी चाही। फिर जिस दिन बेटा ‘जिलाधिकारी’ की कुर्सी पर बैठा तो गर्वित पिता वहां पहुंचा और उसने अपने बेटे के सिर पर हाथ रखकर पूछा, ‘बेटे, संसार में सबसे बड़ा कौन है?’
पिता के सवाल के जवाब में बेटे ने कहा, ‘पिता जी, मुझसे बड़ा कोई नहीं है!’ पिता को अपने बेटे का उत्तर सुनकर एक झटका-सा लगा। उन्हें लगा कि बेटा विभागीय तरक्की की परीक्षा में तो पास हो गया है, लेकिन लगता है संस्कारों की परीक्षा में सफल नजर नहीं आता। वे निराश भाव से लौटने लगे तो बेटे ने पिता से कहा, ‘पिताजी, अब फिर से अपना सवाल मुझसे नहीं पूछेंगे?’ पहले तो पिता को बेटे के सवाल पर आश्चर्य हुआ। लेकिन फिर उन्होंने बेटे से पूछ ही लिया कि ‘संसार में सबसे बड़ा कौन है?’ तो बेटे ने उत्तर दिया’ ‘पिताजी, आपसे बड़ा कोई भी नहीं है!’ लौटते पिता ने रुक कर पूछा, ‘कुछ देर पहले तो तुमने कहा था कि तुमसे बड़ा और कोई नहीं है, तो अब क्या हुआ?’ बेटे ने शांत भाव से उत्तर दिया, ‘पिताजी, आपने सवाल किया था, तब आपका हाथ मेरे सिर पर रखा हुआ था, इसीलिए मैंने कहा था कि मुझसे बड़ा संसार में कोई नहीं है! लेकिन यह एक हकीकत है कि पिता जी ‘आपसे बड़ा’ तो हो ही नहीं सकता क्योंकि अपने पुत्र को संस्कार देने वाले पिता के अलावा दुनिया में कोई नहीं हो सकता।’
निस्संदेह, इस हृदयस्पर्शी मार्मिक प्रसंग ने मेरे हृदय को गहरे तक प्रभावित किया। इसमें दो राय नहीं कि आज की युवा-पीढ़ी को संस्कारों की सच्ची दौलत देने की सख्त आवश्यकता है। इस दिशा में समाज को फिर से प्रयास करने होंगे। निर्विवाद रूप से भारतीय संस्कृति में जिन तीन पूज्य व्यक्तित्वों को शीर्ष स्थान दिया गया है, उनमे माता, पिता और गुरु को रखा गया है। जैसे कहा भी गया है कि ‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव और आचार्यदेवो भव’!
इसमें दो राय नहीं किसी भी समाज में माता का ऋण सर्वोपरि है चूंकि मां ही जन्म देकर इस संसार में कुछ करने का अवसर देती है! पिता ही हमें समाज से परिचित कराकर जीवन की ऊंच-नीच से अवगत करते हैं। इसके अलावा हमारे गुरु हमारे जीवन से अज्ञान को मिटाकर हमें ज्ञान देते हैं। तभी हम समाज में कहीं कुछ बन पाते हैं! ये आज के वक्त की विडंबना ही है हम अपनी युवा-पीढ़ी को तमाम भौतिक सुख-सुविधाएं चांदी-सोना तो खूब देना चाहते हैं, लेकिन संस्कारों को शून्य बनाते जा रहे हैं! महाकवि तुलसीदास ने तो ‘रामचरित मानस’ में स्पष्ट कहा है :-
‘प्रात काल उठि के रघुनाथा!
मातु पिता गुरु नावहिं माथा!’
यह तथ्य विचारणीय है कि आखिर क्यों हम आज पश्चिमी भौतिकता की आंधी में फंस कर अपनी इन संस्कारों की बेशकीमती दौलत को भूल गए हैं? क्यों हमने भारतीय समाज के सबसे बड़े चिंतन को भुला दिया है, जिस में कहा गया था :-
‘गोधन, गजधन, बाजिधन,और रतन धन खान!
जब आवै सन्तोष धन, सब धन धूरि समान!’
निस्संदेह, आज बहुत आवश्यक हो गया है कि ‘सन्तोष धन’ अर्थात ‘आत्म-संतोष’ के उच्चतर जीवनमूल्य को फिर से स्थापित करने के गंभीर प्रयास हम करें! हमें सदैव याद रखना चाहिए कि तमाम सुख और शांति जीवन में भौतिक उपलब्धि हासिल करके नहीं पायी जा सकती बल्कि जीवन के ‘संस्कारों’ से उन्हें पाया जा सकता है! जिस दिन हृदय में ‘सन्तोष का भाव’ आ जाता है, उस दिन हमें सच्चे सुख की अनुभूति सहज ही होने लगेगी!