घातक होगा दबाव में विदेशी खाद्यान्न हेतु बाजार खोलना
भारत को उन दिनों में वापस नहीं जाने दिया जा सकता जब देश का पेट भरने के लिए खाद्यान्न समुद्री जहाजों से आया करता था। भूख से आज़ादी सुनिश्चित करने से ज़्यादा ज़रूरी कुछ नहीं है, और वह भी किसी भी कीमत पर।
ऐसे समय में जब अन्न फसलें – गेहूं और धान– की खेती अभी भी अपना वजूद बनाए हुए हैं, शेष लगभग सभी प्रमुख फसलों की चमक फीकी पड़ गई है। चाहे वह दालें हों, तिलहन (सोयाबीन सहित), कपास और मक्का, इनकी कीमतें तेजी से गिर रही हैं। खतरे की घंटियां इससे पहले इतनी ज़ोर से कभी नहीं बजीं। वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने हाल ही में बर्लिन ग्लोबल डायलॉग को संबोधित करते हुए हिम्मत भरा रुख दिखाया है कि भारत ‘सिर पर बंदूक तनवाकर’ सौदे नहीं करता।
इस मुश्किल समय में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कहे गए ये साहसी शब्द मुझे उन दिनों की याद दिलाते हैं जब तत्कालीन कृषि मंत्री जगजीवन राम रोम में संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के मुख्यालय में एक बैठक से गुस्से में बाहर निकल गए थे। यदि मैं उस वक्त के कृषि सचिव डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन ने मुझसे जो कहा था, उसे सही ढंग से बता पाऊं, तो उन्होंने एक वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारी से कहा, ‘भाड़ में जाए तुम और तुम्हारी हमें कृषि निर्यात बेचने की नीयत’ और आगे कहा : भारत कभी भी अमेरिका से खाद्यान्न आयात नहीं करेगा।’ जगजीवन राम 1974 से 1977 तक कृषि एवं सिंचाई मंत्री रहे थे। यह स्वामीनाथन का जवाब था, जब मैंने उनसे पूछा कि आजादी के बाद से लगभग सभी कृषि मंत्रियों के साथ विभिन्न पदों पर काम करने का सौभाग्य मिलने के बाद उन्हें कौन-सा कृषि मंत्री सबसे अच्छा लगा।
इसलिए हमें याद रखना चाहिए कि अमेरिका हमेशा से विशाल भारतीय कृषि बाजार में पैर जमाने की हसरत रखता आया है। कोई आश्चर्य नहीं कि भारत में कृषि उत्पादों के लिए प्रवेश पाना असल में अमेरिका की विदेश नीति की एक बड़ी इच्छा रही है। ऐसा हो नहीं पाया, लेकिन हाल ही में, जब ट्रंप का धक्केशाही वाले और सनकी तरीके से टैरिफ लगाना देशों को नई विश्व व्यवस्था अपनाने को मजबूर कर रहा है, भारत ने चल रही अमेरिका-भारत व्यापार वार्ताओं में अब तो अपनी कृषि, डेयरी और मत्स्य पालन क्षेत्र की रक्षा के लिए बहादुरी से लड़ाई लड़ी है। लेकिन मजबूत घरेलू लॉबियां जो सदा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों के साथ खड़ी रहती हैं और वह भी आत्मनिर्भरता के नाम पर, एक बार फिर सक्रिय हो उठी हैं।
अमेरिका के साथ कपास, सोयाबीन, मक्का, डेयरी, सेब और अन्य स्टोन फ्रूट्स के लिए भारतीय आयात खोलने की जिस दलील को सबके लिए जीत वाला ‘रणनीतिक’ व्यापार सौदा बताया जा रहा है, उसमें घरेलू हकीकतों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। अगला लक्ष्य ज़ाहिर तौर पर चावल होगा, उसके बाद गेहूं, जिसमें अमेरिका का असली हित छिपा है। नीति आयोग ने पहले ही एक वर्किंग पेपर वापस ले लिया है, जिसमें विवादित जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) सेब, मक्का और सोयाबीन को प्रवेश देने का मसौदा था, लेकिन कुछ दूसरे मुख्यधारा के अर्थशास्त्री भी हैं जो कपास पर ज़ीरो ड्यूटी इंपोर्ट की तरह दूध एवं दुग्ध प्रोडक्ट्स के लिए भी भारतीय बाजार खोलने को सही मानते हैं। बिना यह अहसास किए कि अमेरिका में उगाने वाले किसान लगभग 8,000 हैं, जिनके खेतों का औसत आकार 600 हेक्टेयर है,उन्हें आज भी सालाना 100,000 डॉलर से ज़्यादा की सब्सिडी मिलती है। इससे इनकी अंतरराष्ट्रीय कीमतें कम हो जाती हैं, जिसकी वजह से विकासशील देशों के किसानों को नुकसान होता है। वहीं दूसरी ओर, भारत में 98 लाख कपास उगाने वाले किसान हैं, जिनके पास औसतन 1 से 3 एकड़ के खेत हैं। सस्ते और सब्सिडी पाए आयात से उनकी जो भी थोड़ी-बहुत कमाई है, वह भी छिन जाएगी। अगर घरेलू कपास उद्योग इसकी बजाय हमारे किसानों के साथ खड़ा हो जाए, तब यह सच में एक ‘विन-विन सिचुएशन’ है। आयात शुल्क को शून्य करके, भारत ने स्वेच्छा से अपने किसानों को भेड़ियों के आगे डाल दिया है।
बात जब दालों की की जाए, तो मांग एवं पूर्ति वाला समीकरण काम करता दिखाई नहीं देता। पिछले पांच सालों में, दालों की खेती का रकबा काफी कम हो गया है, जो कि 30.7 मिलियन हेक्टेयर से घटकर 27.6 मिलियन हेक्टेयर हो गया है, लेकिन फिर भी ज़्यादा मांग के बावजूद; किसानों को मंडी में मिलने वाली कीमतें बढ़ी नहीं हैं। हकीकत यह है, मौजूदा कीमतें घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से लगभग 30 प्रतिशत कम हैं। उत्पादन में कमी को सस्ते आयात से पूरा किया जा रहा है; असल में यह ज़रूरत से दोगुनी मात्रा है, और कई फलीदार दालों (मटर नस्ल) पर आयात शुल्क शून्य है। अकेले 2024-25 में ही 7.6 मिलियन टन दालें आयात की गई हैं। खबरों के मुताबिक, पिछले पांच सालों में यह लगभग चार गुणा हो गया है, जहां 2020-21 में दालों के आयात पर 12,153 करोड़ रुपये खर्च हुए थे वहीं 2024-25 में आयात की मात्रा पहले ही 47,000 करोड़ रुपये को पार कर चुकी है।
खाने के तेलों में आत्मनिर्भरता हासिल करने के नाम पर, जीएम सोयाबीन इंपोर्ट को सही ठहराना, फिर से एक दिग्भ्रमित कोशिश है। हालांकि मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के सोयाबीन काश्त पट्टी में किसान आश्वस्त कीमत पाने के लिए परेशान हैं, और पंचायत लेवल पर कई ट्रैक्टर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, लेकिन सोयाबीन का मौजूदा मंडी भाव घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य 5,328 रुपये की बजाय 3,500 से 4,000 रुपये प्रति क्विंटल के बीच है। आश्वस्त कीमत का नदारद रहने (और साथ ही मौसम की मार) के कारण बुवाई रकबे और उत्पादन में गिरावट आ रही है, जीएम सोयाबीन इंपोर्ट की खबरों का कड़ा विरोध हो रहा है। राजस्थान उच्च न्यायालय का हालिया आदेश, जिसमें केंद्र सरकार द्वारा नियम बनाए जाने तक जीएम खाद्यान्न के आयात और बिक्री पर रोक लगा दी है, एक अन्य रुकावट बनेगा।
यह मुझे उस समय की याद दिलाता है जब अमेरिका ने पहले भी जीएम सोयाबीन आयात के लिए भारत पर दबाव डाला था। नई दिल्ली स्थित फोरम फॉर बायोटेक्नोलॉजी एंड फूड सिक्योरिटी के नेतृत्व में एक अभियान के बाद, इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (आईसीएआर) ने आखिरकार भारतीय बंदरगाहों पर आने पर सोयाबीन की श्रेणियों को अलग-अलग करने के लिए कहा था। इसका अमेरिकी निर्यातकर्ताओं (वरिष्ठ यूएसडीए अधिकारियों के समर्थन से) ने पुरजोर विरोध किया, लेकिन भारत ने घरेलू जीएम नियामक व्यवस्था को दरकिनार कर झुकने से इनकार कर दिया था। यदि आयात किसी भी हाल में ज़रूरी हो जाए तो जीएम सोयाबीन आयात के लिए भी अब यही तरीका अपनाना चाहिए। इसी तरह, मक्का के मामले में भी, मीडिया खबरों के बाद कि आयात शुल्क मौजूदा 50 परसेंट से घटाकर 15-16 प्रतिशत किया जा सकता है, घरेलू कीमतें पहले ही बहुत गिर गई हैं। खबरों के अनुसार 2,400 रुपये प्रति क्विंटल के घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य के मुकाबले, कुछ जगहों पर बाज़ार कीमतें गिरकर 1,100 से 1,200 रुपये प्रति क्विंटल तक आ गई हैं।
दूध के मामले में भी, भारत को कभी भी ‘रणनीतिक’ व्यापार फायदे के तहत प्रयोगबाजी नहीं करनी चाहिए, जैसा कि कुछ विशेषज्ञ सलाह दे रहे हैं, क्योंकि अमेरिका में भी, पिछले 15 सालों में 93 प्रतिशत छोटे डेयरी फार्म बंद हो गए हैं। फ्रांस में, डेयरी फार्मों को आर्थिक रूप से व्यवहार्य बनाए रखने के लिए दूध के लिए थोड़ी ज़्यादा कीमत चुकाने के लिए एक मज़बूत उपभोक्ता अभियान उठ खड़ा है।
भारत को उन दिनों में वापस नहीं जाने दिया जा सकता जब देश का पेट भरने के लिए खाद्यान्न समुद्री जहाजों से आया करता था। भूख से आज़ादी सुनिश्चित करने से ज़्यादा ज़रूरी कुछ नहीं है, और वह भी किसी भी कीमत पर।
लेखक कृषि एवं खाद्य मामलों के विशेषज्ञ हैं।
