Tribune
PT
About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

आत्मनिर्भरता से ही सुधरेगी देश की सेहत

दाल उत्पादन

  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
Advertisement

भारत ने वर्ष 2030-31 तक दलहन उत्पादन को 252 लाख टन से बढ़ाकर 350 लाख टन करने का लक्ष्य तय किया है। इसके लिए 35 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त भूमि को खेती में शामिल किया जाएगा, ताकि दालों के आयात पर निर्भरता घटे और देश दलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर बन सके।

दलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर होने के लिए वर्ष 2030-31 तक उत्पादन को 252 लाख टन से बढ़ाकर 350 लाख टन करने का लक्ष्य तय किया है। इस हेतु 35 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त भूमि दलहन उत्पादन के दायरे में लाई जाएगी। विडंबना देखिए, भारत दुनिया का सबसे बड़ा दलहन उत्पादक और उपभोक्ता देश है, लेकिन दालों की आपूर्ति आयात पर निर्भर है।

आहार में पौष्टिक तत्वों का कारक मानी जाने वाली दालें, बढ़ते दामों के कारण गरीब की शारीरिक जरूरत पूरी नहीं कर रही हैं। ये हालात मानसून के दौरान औसत से कम या ज्यादा बारिश होने से तो उत्पन्न होते ही हैं, किसान के नकदी फसलों की ओर रुख करने के कारण भी हुए हैं। यही नहीं, यह स्थिति इसलिए भी बनी, क्योंकि पूर्ववर्ती सरकार की गलत नीतियों के चलते किसान को खाद्य वस्तुओं की बजाय, ईंधन और फूलों की फसल उगाने के लिए, कृषि विभाग ने जागरूकता के अभियान चलाए। यही वजह रही कि भूमंडलीकरण के दौर में दालों की पैदावार लगातार कम होती चली गई। दाल उत्पादन का रकबा लगभग 15 हजार हेक्टेयर कम हो गया। भारत में दालों की सालाना खपत 220 से 230 लाख टन है। मांग और आपूर्ति के इस बड़े अंतर के चलते जमाखोरों और दाल के आयातक व्यापारियों को भी बार-बार करने का मौका मिल जाता है।

Advertisement

पौष्टिक आहार देश के हरेक नागरिक के स्वस्थ जीवन से जुड़ा अहम प्रश्न है। संविधान के मूलभूत अधिकारों में भोजन का अधिकार शामिल है। चूंकि दालें प्रोटीन और पाैष्टिकता का महत्वपूर्ण जरिया हैं, इसलिए इनके आयात होने के कारण इनके भाव भी बीच-बीच में बढ़ जाते हैं। इस कारण मध्यवर्गीय व्यक्ति की थाली से दाल गायब होने लगती है। चूंकि दाल व्यक्ति की सेहत से जुड़ी है और बीमारी की हालत में तो रोगी को केवल दाल-रोटी खाने की ही सलाह चिकित्सक देते हैं। वर्ष 1951 में प्रतिव्यक्ति दालों की उपलब्धता 60 ग्राम थी, जो वर्ष 2010 में घटकर 34 ग्राम रह गई। जबकि अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार यह मात्रा 80 ग्राम होनी चाहिए। दालें भारत में प्रोटीन का प्रमुख स्रोत मानी जाती हैं। लेकिन स्थानीय मांग पूरी करने के लिए दाल उत्पादन में किसान को बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। तुअर दाल की फसल आठ माह में तैयार होती है। बावजूद किसान को उचित दाम नहीं मिलते हैं। गोया, किसान साल में एक फसल उगाने में रुचि कैसे लें? विदेशों में रहने वाले भारतीय भी सबसे ज्यादा तुअर की दाल खाना पसंद करते हैं। देश में सबसे अधिक चने और अरहर की खेती होती है। इनके अलावा मूंग और उड़द दालें पैदा होती हैं। देश में 10 राज्यों के किसान दालों की खेती करते हैं। इनमें सबसे अधिक उत्पादक राज्य महाराष्ट्र है। दालें मुख्य रूप से खरीफ की फसल हैं, जो वर्षा ऋतु में बोई जाती हैं। इस ऋतु में करीब 70 प्रतिशत दालों का उत्पादन होता है।

Advertisement

केंद्रीय उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय के अनुसार दालों के तात्कालिक भाव 85.42 रुपये प्रति किलो से लेकर 112.88 रुपए प्रति किलो तक हैं। भावों में इस उछाल का कारण जमाखोरी और सट्टेबाजी के साथ आयात का कुचक्र है। टाटा, महिंद्रा, ईजी-डे और रिलायंस जैसी बड़ी कंपनियां जब से दाल के व्यापार से जुड़ी हैं, तब से ये जब चाहे तब मुनाफे के लिए दाल से खिलवाड़ करने लग जाती हैं। जब कंपनियां बड़ी तादाद में दालों का भंडारण कर लेती हैं, तो भावों में कृत्रिम उछाल आ जाता है। हालांकि केंद्र सरकार ने दालों का भंडारण सितंबर 2024 से सीमित किया हुआ है। इस कारण भाव नियंत्रण में हैं। मीडिया दाल के बढ़ते भावों को गरीब की थाली से जोड़कर उछालता है। तब सरकार दाल के आयात के लिए विवश हो जाती है। मसलन देसी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हर हाल में पौ-बारह बने रहते हैं। इन कंपनियों का दबदबा इतना है कि कोई भी राज्य सरकार इनके गोदामों पर छापे डालने का जोखिम उठाने का साहस नहीं जुटा पाती। लिहाजा कालाबाजारी बदस्तूर रहती है। ये कंपनियां मसूर और मटर की दाल कनाडा से, उड़द और अरहर की दाल बर्मा के रंगून से, राजमा चीन से और काबुली चना ऑस्ट्रेलिया से आयात करती हैं। इनके अलावा अमेरिका, रूस, केन्या, तंजानिया, मोजांबिक, मलावी और तुर्की से भी दालें आयात की जाती हैं। कनाडा ने मसूर दाल के भाव पिछले साल की तुलना में दोगुने कर दिए हैं। कनाडा एशियाई देशों में सबसे ज्यादा दालों का निर्यात करने वाला देश है।

इस नाते यह कहने में कोई दो राय नहीं कि विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बात तो छोड़िए, देशी कंपनियां भी भारतीय कृषि को बदहाल बनाए रखना चाहती हैं। आयात की जब इन्हें खुली छूट मिल जाती है तो ये जरूरत से ज्यादा दाल व तेल का आयात करके भारत को डंपिंग ग्राउंड बना देती हैं। तय है, कालांतर में भारत की तरह दूसरे देशों में यदि मौसम रूठ जाता है तो दाल और प्याज की तरह खाद्य तेल के भाव भी आसमान छूने लगते हैं। सस्ते तेल का आयात जारी रहने की वजह से ही भारत में तिलहन का उत्पादन प्रभावित हो रहा है। बावजूद हमारे नेता ऐसी नीतियों को बढ़ावा देने की कोशिशों में लगे रहे हैं कि दलहन और तिलहन के क्षेत्र में भारत पूरी तरह स्वावलंबी बना रहे।

मौजूदा केंद्र सरकार ने 100 पिछड़े जिलों में दालों के उत्पादन का दायरा बढ़ाकर आत्मनिर्भरता की दिशा में महत्वपूर्ण पहल की है।

Advertisement
×