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तार्किक सोच ही बनाएगी एक स्वस्थ समाज

अंधविश्वासों का धंधा

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दीपिका अरोड़ा

विज्ञान के क्षेत्र में नित नए प्रतिमान स्थापित करता भारतवर्ष भले ही अंतरिक्ष तक अपनी पहुंच बना चुका है किंतु वैचारिक जागृति के स्तर पर हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी रूढ़िवादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाया है। वह सोच जो काला जादू, भूत-प्रेत जैसी अतार्किक बातों से जोड़ते हुए तथाकथित दिव्य उपचार शक्तियों पर भरोसा करने के लिए उकसाती है। बिना विचारे कि परिणाम कितना भयंकर हो सकता है। हाल ही में, गुरदासपुर (पंजाब) के गांव सिंघपुरा में शरीर से भूत भगाने के नाम पर एक पादरी ने अपने साथियों सहित 30 वर्षीय व्यक्ति को इतना पीटा कि उसकी मृत्यु हो गई। पिछले कुछ समय से बीमार चल रहा, 3 बच्चों का पिता परिवार का इकलौता कमाऊ सदस्य था।

इसी शृंखला में स्मरण आता है गत वर्ष का हृदयविदारक कोच्चि प्रकरण, जब जादू-टोने के उद्देश्य से एक तांत्रिक ने दो महिलाओं की बलि दे दी थी। जनवरी, 2018 में तेलंगाना के हैदराबाद निवासी एक व्यक्ति ने तो चंद्रग्रहण के दिन पूजा के उपरांत अपने ही बच्चे को घर की छत से नीचे फेंक दिया था। तांत्रिक के कथनानुसार, ऐसा करने से उसकी पत्नी लंबी बीमारी से छुटकारा पा सकती थी।

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सूची बहुत लंबी है। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, पिछले दस वर्षों में अंधविश्वास के कारण एक हजार से अधिक लोगों की जान जा चुकी है। वर्ष 2012 से 2021 के दौरान जादू-टोना देश भर में 1,098 लोगों की मौत का कारण बना। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा आंध्र प्रदेश तथा तेलंगाना के दृष्टिगत जारी आंकड़े बताते हैं, वर्ष 2000 से 2012 के दौरान 350 लोग दूसरों पर काला जादू करने के संदेह में मार दिए गए।

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दरअसल, हमारे उदार लोकतंत्र के मौलिक सिद्धांत हमें उन बातों पर भी विश्वास की आज़ादी देते हैं, जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं। यही आबादी तथाकथित धर्मगुरुओं एवं ढोंगी बाबाओं के लिए सबसे बड़ा हथियार बन जाती है। अनुयायियों की भीड़ से घिरे, आस्था की आड़ में मानवीय संवेदनाओं से खेलने में पारंगत स्वयंभू होने का दावा करने वाले ये निर्मल वेशधारी ख़ुद को जादुई शक्ति सम्पन्न चिकित्सक के रूप चित्रित करते हैं। कई बार शिक्षित कहलाने वाले लोग तक इनके झांसे में आ जाते हैं।

बीते जुलाई माह में इसी के दृष्टिगत सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दाख़िल की गई। उत्तर प्रदेश के हाथरस में सत्संग के दौरान मची भगदड़ के कारण 121 लोगों के मारे जाने एवं दिल्ली के 2018 के बुराड़ी कांड में एक घर के 11 सदस्यों की मौत को ऐसे ही मामले बताते हुए, याचिकाकर्ता ने समाज में सक्रिय अवैज्ञानिक गतिविधियों की रोकथाम हेतु कठोर अंधविश्वास-टोना विरोधी कानून बनाने की आवश्यकता पर बल दिया।

कानूनी नज़रिए से देखें तो भारतीय संविधान की धारा 295-ए ऐसी कुप्रथाओं को हतोत्साहित करती है। अंधविश्वास के चलते किसी की जान जाने पर आरोपी के विरुद्ध भारतीय कानून के अनुसार, हत्या की सज़ा के तहत कार्रवाई बनती है। दिव्य तरीके से किसी रोग के उपचार का दावा करने वालों पर ‘ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीका एक्ट, 1954’ के तहत दंडात्मक कार्रवाई का प्रावधान है। बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, राजस्थान, असम, महाराष्ट्र, कर्नाटक में अंधविश्वास रोकने हेतु राजकीय स्तर पर कानून लागू किए गए किंतु अंधविश्वास से जुड़ी अनेक घटनाएं फिर भी होती हैं।

दरअसल, अंधविश्वास से संबद्ध प्रकरणों पर अंकुश लगाने के लिए केवल कानून लागू होना ही काफी नहीं अपितु लोगों को इस ओर धकेलने वाले सामाजिक मुद्दों को संबोधित करने की जरूरत है। वहीं शिक्षा प्रणाली के माध्यम से वैज्ञानिक स्वभाव तथा आलोचनात्मक सोच को बढ़ावा देना उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण बन जाता है। यही नहीं, अंधविश्वासों को परंपराओं व रीति रिवाज़ों से सर्वथा अलग रखना भी अनिवार्य है।

ठीक इसी प्रकार आस्था व अंधविश्वास के मध्य स्थित अंतर स्पष्ट होना भी ज़रूरी है। इष्ट के प्रति आस्था मानसिक सुदृढ़ता प्रदान करती है जबकि अंधविश्वास आंतरिक स्तर पर निर्बल ही बनाता है।

निराधार विश्वास न केवल समूचे समाज के लिए घातक हैं बल्कि देश की साख़ के साथ राष्ट्रीय विकास को भी प्रभावित करते हैं। कानून को उन प्रथाओं पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो स्वाभाविक तौर पर शोषणकारी हैं अथवा मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती हैं। समाज की मानसिकता बदले बिना, मात्र कानून के दम पर अंधविश्वासों का अंत संभव नहीं। तार्किक सोच ही स्वस्थ समाज का मार्ग प्रशस्त कर सकती है।

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