लो जी, सोना लाख रुपयों के ऊपर पहुंच गया! ये रुपया आम आदमी को ठीक से जीने नहीं देता और सोना आराम से सोने नहीं देता। आदमी रोज की कमाई के लिए मेहनत करता है और भ्रष्टाचारी काली कमाई के करम में जुटे रहते हैं। अभी ज्यादा समय नहीं हुआ, जब मध्य का एक प्रदेश बार-बार सोने की चमक से रोशन हो रहा था। नगदी रुपयों की खनक रात भर लगातार सुनाई देती रही। पचास किलो सोने और दस करोड़ रुपयों ने रास्तों पर दौड़ते हुए व्यवस्था को सोने नहीं दिया था। फिर चौदह किलो सोना और चार करोड़ नगद ने नींद हराम कर रखी थी। सोना और नगदी अक्सर अखबारों की सुर्खियां बनकर डराते रहते हैं।
श्रीमती जनकलाल सुबह-सुबह फिर लुढ़क गईं। श्रीमान जी उन्हें संभालते हुए गुनगुनाने लगे- ओ मेरे सोना रे, सोना रे, सोना रे..., ले लोगे जान महंगा क्यों होना रे...। श्रीमती जनकलाल की तबीयत बिलकुल ठीक है, लेकिन जब भी सोना ऊपर चढ़ता है, वे लुढ़क जाती हैं। इस हालत के लिए जनकलाल खुद को दोषी मानते हैं। पति-पत्नी के बीच का झगड़ा सोने को लेकर रहा है। यह झगड़ा एक साथ सोने को लेकर नहीं है बल्कि असली ‘सोने’ को लेकर है। यह झगड़ा उनकी शादी जितना पुराना है। शादी के कुछ दिन बाद ही शुरू हो गया था। श्रीमती जी को सोना प्यारा है और जनकलाल को ईमानदारी। सोना श्रीमती जी को नहीं सोने देता था और ईमानदारी ने जनकलाल को नहीं सोने दिया। गो कि दोनों का सुख-चैन सोने से जुड़ा है।
जनकलाल को ईमानदारी की बीमारी के चलते व्यवस्था में अनफिट माना जाता रहा। पूरी नौकरी बोरिया-बिस्तर बांधे एक जगह से दूसरी जगह भटकते हुए काटी। तिरस्कार सहते रहे। स्थानान्तरण का दर्द झेलते रहे। बेचारे जनकलाल की सेवानिवृत्ति की जमा पूंजी भी सोने में ही जा उलझी। उनकी बड़ी इच्छा थी कि सामने के टूटे दांत की जगह एक दांत सोने का लगवाएं, जबकि श्रीमती जी को झुमके चाहिए थे। जनकलाल का मानना था कि दांत झुमके से ज्यादा सुरक्षित हैं। लॉकर की भांति मुंह में पड़े रहेंगे। झुमके तो कोई भी झटक लेगा। मामला सुलटने ही वाला था कि सोना लाख के ऊपर पहुंच गया!
सुना है उनके आंगन में कोई मासूम गौरैया आ बैठी और कवि बिट्ठल भाई पटेल का गीत गुनगुनाने लगी- पीतल की पायलिया जो पहनूं मैं पांव में तो सोने का भाव गिर जाए। अब वे आस लगाए बैठे हैं कि कोई नटखट छोरी पीतल की पायलिया पहन कर निकले तो सोने का भाव गिरे।