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अब हिमालय बसाओ अभियान की जरूरत

हिमालय के संकट
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हिमालय बचाओ नीति में विकास योजनाओं के पर्यावरण व जन जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों पर अंकुश लगाने का मुद्दा प्रमुख रहा। विकास कार्यों में स्थानीय भागीदारी, रोजगार व पुनर्वास प्रमुख मुद्दे थे। लेकिन अब हिमालय बचाओ नीति में हिमालय बसाओ नीति की रणनीति का भी समावेश करना होगा।

साठ के दशक में भारत में पहली बार ‘हिमालय बचाओ’ का नारा चर्चा में आया था। उस समय तक तिब्बत में चीन जम गया था। भारत-चीन युद्ध हो चुका था। स्वाभाविक था कि उस समय के हिमालय बचाओ अभियान के उद्देश्य प्रमुखतया सामरिक व सांस्कृतिक थे। इसमें पड़ोसी हिमालयी देशों में आपसी विश्वास व मेलजोल बनाना भी शामिल था। डॉ‍. राममनोहर लोहिया इस विचार के प्रवर्तकों में से एक थे। तिब्बत से एकजुटता को भी इससे जोड़ा गया।

सत्तर के दशक में वैश्विक मंचों में पर्यावरण की बातें मुख्य मुद्दा बनने लगी थीं। 1970 व 80 के दशक में हिमालय में भी व्यावसायिक वन कटान तथा अंधाधुंध खनन से मानव व प्रकृति को होने वाले नुकसान के खिलाफ जन आन्दोलन प्रारंभ हुए। चमोली में सफल चिपको आन्दोलन हुआ। मसूरी, देहरादून, टिहरी गढ़वाल में चूना खदानों से हिमालय व हिमालय वासियों कोे नुकसान के मद्देनजर खनिज खदानें बन्द करवाने को लेकर आन्दोलन हुए।

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पर्यावरणीय चेतना और टिहरी बांध विरोधी आन्दोलन के दौरान सुन्दरलाल बहुगुणा के आह्वान पर मई, 1992 में पुनः नये संदर्भों में ‘हिमालय बचाओ’ अभियान को जन्म दिया गया। इसके तहत टिहरी बांध जलाशय में समाहित पुरानी टिहरी के भागीरथी तट पर हिमालय से जुड़े सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक व वैज्ञानिक कार्यकर्ताओं का सम्मेलन हुआ। इस अभियान ने मुख्यतया हिमालयी वनों की तबाही रोकने की अपील की गई।

आमजन को भी अनुभव होने लगा कि वन उपज और खनिज के लिए खोखला होता हिमालय अब उसके कुदरती जल संसाधनों के व्यावसायिक दोहन के कारण भी आघात ग्रस्त हो रहा है। उसके पारम्परिक जलस्रोत और नदियां सूख रही हैं। उसकी नदियों को कहीं मोड़ा जा रहा है, कहीं सुरंगों में डाला जा रहा है तो कहीं सुखाया जा रहा है। इक्कीसवीं सदी में हिमालय बचाओ अभियान में नदियों और नदी घाटियों को बचाने के मुद्दे प्रमुख बन गये हैं। बीते दशकों में हिमालयी नदियों पर बने जलाशयी बांधों के कुप्रभावों का अनुभव विस्थापन व नदियों की उपजाऊ घाटियों को डुबाये जाने के परिणामों से होने लगा है। वर्ष 2012 की हिमालय लोक नीति के तैयार प्रारूप में कहा गया था कि अधिकतर हिमालयी राज्यों की सरकारों ने नदियों को रोककर विद्युत ऊर्जा बनाने के लिए सैकड़ों हाइड्रो प्रोजेक्ट निर्माण का बीड़ा उठा लिया है। लेकिन इन जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण से पहले जन जीवन पर असर व इनसे सम्पूर्ण हिमालयी जन-जीवन खतरे में पड़ता नजर नहीं आ रहा है। इन परियोजनाओं से आजीविका के प्राकृतिक संसाधनों का अतिक्रमण भी हो रहा है। इस समय हिमालयी क्षेत्रों में प्रस्तावित, निर्माणाधीन व निर्मित करीब 1000 हाइड्रो प्रोजेक्ट हैं। इनके कारण लोगों का बड़ी संख्या में विस्थापन चिंता की बात है।

हिमालयी नीति, जिसे बनाने के लिए बार-बार केन्द्र पर दबाव डाला जाता रहा है, केवल हिमालय बचाओ नीति तक ही सीमित नहीं हो सकती है। इसमें हिमालय बसाओ नीति की रणनीति का भी समावेश करना होगा। क्योंकि कई क्षेत्र सामरिक महत्व के भी हैं। हालांकि आये दिन जलवायु बदलाव व मानवीय लालच से आपदा झेलते भारतीय हिमालय में बसाओ का काम भी आसान नहीं। सूची में रोज ऐसे गांव-कस्बे जुड़ रहे हैं जो भूधंसाव व भूस्खलनों के कारण वहां के बाशिन्दों के लिए असुरक्षित हो गये हैं। विकास व पर्यावरण संरक्षण को लेकर स्थानीय समुदाय की आकांक्षाओं व आशंकाओं दोनों को नजरअन्दाज किया जा रहा है। यह मानव अधिकारों का भी मुद्दा है। निस्संदेह पहाड़ों के विकास और पहाड़ी जन के विकास में द्वंद्व को मिटाना होगा।

यदि हिमालय के पहाड़ी गांवों को बचाना व बसाना है तो खेती को लाभकारी बनाना ही होगा। पहाड़ की खेती के लिए टेक्नोलॉजी व संसाधन पर खर्च बढ़ाना होगा। टेक्नोलॉजी व कृषि प्रसार के समय इसका भी ध्यान रखना होगा कि पहाड़ों में प्राथमिक किसान वहां की महिलाएं ही होती हैं। बड़े पैमाने पर जलागम प्रबंधन करना होगा। खेती के लिए जंगलों से स्थानीय जन को लघु वन उत्पादों को जरूरत भर लेेेेने की छूट देनी होगी। पहाड़ी खेती में, सततता बनाये रखने को पचास प्रतिशत से ज्यादा वन संसाधनों का पारम्परिक उपयोग होता है।

पहाड़ों को बसाने के क्रम में पहाड़ी कस्बों को बसाने की स्थानीय परिवेश के अनुरूप विशेष नीति, टेक्नोलॉजी, विज्ञान व मल मूत्र कचरा निस्तारण का ज्ञान अर्जित करना होगा, व उसे अमल में भी लाना होगा। बाजारों व आपदा लाने की आशंका से रहित पहाड़ी सड़कें कैसे बनायी जा सकेंगी, इसकी हिमालयी विकास नीति में ठोस राह तय करनी होगी। पहाड़ों पर जो भार न बनें, ऐसे उद्योग तलाशने होंगे। मौसमी भविष्यवाणी तंत्र को स्थानीय पहुंच के अनुरूप भरोसमंद बनाना होगा। दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में अलग-थलग पड़े होने के अहसास को कम करने के लिए किफायती मोबाइल टेलीफोन सुविधा का प्रसार भी आवश्यक है।

संवेदनशील हिमालय आपदाओं का घर भी है। भूस्खलन, बादल विस्फोट, दावानल, बाढ़ जैसी बारम्बार आने वाली आपदाएं हैं। भूकम्प भी आते रहे हैं। जलवायु बदलाव हिमालय के तापक्रम को तेजी से बढ़ा रहा है। इससे आर्थिक, खाद्य व आवासीय सुरक्षा पर असर पड़ रहा है। इसके लिए हिमालय से बाहर रहने वालों की जरूरतें पूरी करने को हिमालय के अंगभंग की नीति ज्यादा जिम्मेदार हैं। आपदा ग्रस्त क्षेत्रों में कई बार पूरे के पूरे गांवों को अन्यत्र पुनर्वासित करना आवश्यक हो जाता है। अकेले उत्तराखंड में ही 2000 में अलग राज्य बनने के बाद 400 से ज्यादा गांवों को पुनर्वास के लिए चिन्हित किया गया। इस संदर्भ में भी हिमालय बसाओ के तहत हिमालय के आपदाग्रस्त क्षेत्रों व व्यक्तियों के लिए एक अलग पुनर्वास व आपदा क्षति आकलन नीति होनी चाहिये। यह भी हिमालय नीति का अंग हो।

विडम्बना है, पहाड़-सी समस्याओं के बीच मूल पहाड़ी सरकारी कर्मचारी भी पहाड़ों में सेवा देने के लिए तैयार नहीं होता है। इसीलिए स्कूल बिना शिक्षक, अस्पताल बिना डाक्टर के हो जातेे हैं। परिणामस्वरूप पहाड़ वालों के लिए सुशासन पाना भी दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है।

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता व पर्यावरण वैज्ञानिक हैं।

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