Tribune
PT
Subscribe To Print Edition About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

अब कोई नहीं कहता गरीबी में गीला आटा

तिरछी नज़र

  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
Advertisement

डॉ. हेमंत कुमार पारीक

इस बार सोच रहे थे कि इलेक्शन के टाइम थाली पर कम्पीटिशन होगा। पिछली दफे दो रुपये तक गिर गए थे एक थाली के भाव। मगर इस दफे सुनाई नहीं दी थाली। तीन साल पहले हम सबने थाली बजायी थी और कोरोना के वायरस को भगाने की कोशिश की थी। भाग तो गया दुष्ट। पर अब थाली को भूल गए हैं लोग। थाली की जगह ताली बजाने में लगे थे। ताली भी ऐसी वैसी नहीं चार सौ वाली। छप्पन प्रकार के व्यंजनों वाली। मगर उसमें दाल-रोटी ही मिल सकी। मगर अफसोस इस वक्त उस थाली की बात कोई भी नहीं कर रहा। हम तो सोच रहे थे कि चुनावी मौसम में दो रुपये से कम में उतरेगी। बोली लगेगी।

पड़ोसी देश में खाली थाली बजी तो हमने ताली मारी थी। कारण कि आटे पर हायतौबा मची थी। कपड़े फाड़ प्रतियोगिता चल रही थी। बड़े-बड़े लाइन में लगे थे। मगर हमारे यहां तो भिखारी भी आटे-दाल की बात नहीं करते। सीधे पैसे की बात करते हैं। इशारों में बताते हैं-पहले पैसा फिर भगवान, बाबू दस-बीस रुपया देते जाना दान। अठन्नी-चवन्नी को कोई पहचानता तक नहीं। जब से देश की इकाेनॉमी में बिलियन और ट्रिलियन आ गए हैं, गिनती भूल गए हैं लोग। वरना तो एक लाख तिजोरी में आते ही फूल के कुप्पा हो जाते थे। अब भिखारी के भी मंदिर के हिसाब से रेट हो गए हैं। इस बखत जिस मंदिर में ज्यादा रौनक है, वहां के रेट सबसे ज्यादा हैं। भिखारी वहां कटोरा थैले में रखता है और क्यूआर कोड सामने कर देता है। उसकी भी कोई इज्जत है और पैसा ट्रांसफर करने वाले की भी। भिखारी ने भी क्या धोबी पछाड़ मारी है? यह भी विकासशील भारत की तस्वीर का एक रंग है। क्यू-आर ने उसकी हैसियत बदल के रख दी है।

Advertisement

आजकल भिखारी की तरह आम आदमी भी सोचने लगा है। मशहूर होने के जरिए तलाश रहा है। एक वक्त था जब टाटा और बाटा धुप्पल में मशहूर हो गए थे। कहते थे, देश का लोहा गला मशहूर टाटा हो गया, देश में जूता चला मशहूर बाटा हो गया। अब देख लो टाटाजी नोन तेल पर उतर आए हैं। और बाटा अभी तक जूते चप्पल ही बेच रहा है। वक्त के साथ बहुत कुछ बदल जाता है। समझने वाले को इशारा ही काफी होता है। कभी जिनके बाप-दादों के कपड़े लंदन जाते थे धुलने। अब उनकी औलादें मोची की दुकान के चक्कर काट रही हैं। सीना पिरोना सीख रही हैं।

Advertisement

Advertisement
×