अब तो बारह महीने लाड़ली बहनों का त्योहार
सावनी फुहारों के साथ रक्षाबंधन का पर्व फिर आ गया। इस बार सावन ज़रा झूमकर बरसा। बारिश की झड़ी में सड़कें सिकुड़ गईं। गड्ढे खिल उठे। कॉलोनियां डूब गईं। नदियों में बाढ़ आ गई। पुल बह गए। साथ ही संपन्नता की बरसात भी झमाझम होती रही। इसकी झड़ी में गरीबी सिकुड़ गई! भ्रष्टाचारी खिल उठे! लोग डिज़िटली लबालब हो गए! संचार-क्रांति में डाटा की बाढ़ आ गई! और लोगों को आपस में जोड़ने वाले संस्कारों के पुल बह गए!!
बहरहाल, अब धूम-धाम से त्योहार मनाने के अच्छे दिन आ गए हैं। सब सुखी हैं। लाड़ली बहनें सक्षम हो गई हैं। उनके घर बारहों महीने उत्सव का माहौल बना रहता है। पति भी मज़े में है। छीना-झपटी में उन्हें मारते-पीटते नहीं हैं। लाड़ करते हैं। मन का खाते हैं। जी-भर पीते हैं। पति परमेश्वर हो गए हैं। वे बढ़िया बढ़िया राखी, रूमाल और मिठाइयां खरीद सकतीं हैं। हालांकि, उनके भाई बेरोजगार हैं। बहनों को राखी बंधवाने का गिफ्ट भी नहीं दे पाते।
पिछले हफ्ते श्रीमती जनकलाल खरीदारी के लिए निकलीं। बाज़ार की अनोखी चमक-दमक देखकर दंग रह गईं। राखी, रूमाल और मिठाइयों के दाम सुनकर उन्हें चक्कर आ गया। वे बीच बजरिया बेहोश होकर लुढ़क ही गई होतीं, यदि लाड़ली ने दौड़कर उन्हें संभाला नहीं होता। वे कराहीं, ‘मेरी आंखों के आगे दिखाई दे रहे हैं... ताऽरे जमीं पर...र...।’ भीड़ में से किसी राहगीर ने बताया, ‘ये चम-चम करते तारे-वारे नहीं हैं मैडम! आप बाजार-हाट की जमीं पर हैं और असली राखियों की चम-चम से आंखें चौंधिया रही हैं, अपने आप को संभालिए।’ लाड़ली उनके यहां काम करती है। वह उनकी हमउम्र है। वे उसे प्यार से लाड़ली-बहना कहकर पुकारती हैं। खुश्ाबू, लिपिस्टिक और साड़ी में लकदक वह भी खरीदारी करने निकली थी। जब उसने बर्तन-झाड़ू और पोंछा करने का काम पकड़ा था तब वह ऐसी नहीं थी। दीन-हीन और जरूरतमंद समझकर श्रीमती जनकलाल ने उसे काम पर रख लिया था। आज वह पहचानी नहीं जा रही थी। दरअसल, विकास में योजनाओं की अहम भूमिका होती है।
विकास का असर दिखता है। श्रीमती जनकलाल को पैसे जोड़ना सिखा दिया है और ‘लाड़ली’ को खर्चना। मेहनत सदा ही पैसे जोड़ना सिखाती रही है। बहरहाल, श्रीमती जनकलाल कुछ ठीक हुईं और दुकानों पर मोल-भाव करती हुईं आगे निकल गईं। तभी लाड़ली आई और कुछ राखियां उनको थमाते हुए ढांढस बंधाया, ‘मैडम जी! ये आप रखिए और घर जाइए। पैसे की चिंता मत करना। तबियत का ध्यान रखना। मैं चार दिन नहीं आऊंगी।’ और वह फुर्र हो गई। श्रीमती जनकलाल बाज़ार का चक्कर काटते हुए घर लौट लीं।