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जन ‘मन’ की थाह न ले पाया कोई

हेमंत पाल मध्य प्रदेश के चुनाव नतीजों ने उन सारे अनुमानों को पलट दिया, जो इस बार बीजेपी के सत्ता से बाहर जाने की संभावना जता रहे थे। निस्संदेह, परिणामों से खुद भाजपा भी अचरज में होगी! जनता के मन...

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हेमंत पाल

मध्य प्रदेश के चुनाव नतीजों ने उन सारे अनुमानों को पलट दिया, जो इस बार बीजेपी के सत्ता से बाहर जाने की संभावना जता रहे थे। निस्संदेह, परिणामों से खुद भाजपा भी अचरज में होगी! जनता के मन में जो था, वो भाजपा के अनुमानों से भी अलग निकला। मध्य प्रदेश में बीजेपी फिर सरकार बनाएगी, इस बात के आसार तो पार्टी को थे, पर उसके इस विश्वास में कहीं न कहीं शंका-कुशंका थी। निस्संदेह, 18 साल से ज्यादा लंबे शासनकाल में एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर को भी सोचकर चला जा रहा था। बीजेपी के नेताओं को लगा कि जनता की खामोशी कहीं उनके खिलाफ न जाए! लेकिन जो नतीजे सामने आए और बीजेपी को जितनी सीटें मिलीं, वो उसके अनुमान से कहीं ज्यादा मानी जाएंगी। इसलिए कि बीजेपी को कांटाजोड़ मुकाबले में 130 से 135 सीटों का अनुमान था, पर आंकड़ा 160 से आगे तक पहुंच जाएगा, ये सोचा नहीं गया था। वास्तव में जो हुआ, वो राजनीतिक जानकारों के लिए एक शोध का विषय हो सकता है कि इतने लंबे शासनकाल के बाद भी कोई पार्टी जनता के दिल में कैसे बसी हुई है! जबकि, पड़ोसी छत्तीसगढ़ और राजस्थान में मतदाताओं ने बाजी पलट दी।

मध्य प्रदेश में सरकार वापसी के लिए पार्टी ने इस बार हरसंभव प्रयास किए। सबसे बड़ा प्रयोग यह था कि पार्टी के एक राष्ट्रीय महासचिव के अलावा सात सांसदों को भी चुनाव लड़ाया गया। इनमें अधिकांश वे सीटें थीं, जहां से बीजेपी पिछले दो या तीन चुनाव हारी थी। अधिकांश जगह बीजेपी की स्थिति इस बार भी बेहतर नहीं बताई गई थी। तभी यहां सांसदों को चुनाव लड़ाया गया और नतीजा अच्छा रहा। जहां सांसदों को मैदान में उतारा गया, उन जिलों में बीजेपी का प्रदर्शन बेहतर रहा। चुनाव की घोषणा से पहले 39 उम्मीदवारों की घोषणा करना भी बीजेपी की एक महत्वपूर्ण चुनाव रणनीति का हिस्सा रहा। लेकिन, फिर भी कहीं न कहीं पार्टी के मन में जीत को लेकर सवाल तो थे! राजनीतिक पंडित भाजपा की सीटों के कम होने व कांग्रेस की बढ़त के आकलन कर रहे थे।

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अब सवाल यह कि एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर का क्या हुआ? मतदाताओं में इतने साल बाद भी भरोसा क्यों रहा कि उसके लिए बीजेपी का ही सरकार में बने रहना जरूरी है। कह सकते हैं कि कांग्रेस सारी कोशिशों के बाद भी लोगों का भरोसा नहीं जीत सकी। हकीकत तो यह है कि कांग्रेस की हार के लिए कोई और नहीं खुद कांग्रेस ही जिम्मेदार है। दरअसल, कांग्रेस सिर्फ भाजपा की गलतियों में ही अपनी जीत को ढूंढ़ने की कोशिश में थी। कांग्रेस के नेता हमेशा यही देखते रहे कि भाजपा कहां गलती कर रही है और उसे कैसे पटखनी दी जाए! खुद को आगे बढ़ाने या जनता का विश्वास जीतने के लिए उतने गंभीर प्रयास नहीं किए, जितने किए जाने चाहिए। जबकि, चुनाव जीतने के लिए प्रतिद्वंद्वी पार्टी को पीछे छोड़ने के अलावा खुद के आगे बढ़ने का माद्दा भी होना चाहिए, जो कांग्रेस नहीं कर सकी। कांग्रेस के पास भविष्य की जनहितकारी योजनाओं का कोई ठोस खाका भी नहीं था। यहां तक कि बीजेपी की ‘लाड़ली बहना योजना’ से मुकाबले के लिए कांग्रेस ने भी योजना की घोषणा की, पर वो विश्वास के धरातल पर खरी नहीं उतरी।

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मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कुछ महीने पहले ‘लाड़ली बहना योजना’ की बड़ी घोषणा की थी। इस योजना ने प्रदेश में बीजेपी की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह योजना एक तरह से ‘मास्टर स्ट्रोक’ साबित हुई। साल भर पहले बीजेपी को ये अंदाजा हो गया था कि इस बार का चुनाव आसान नहीं है। यही कारण है कि मुख्यमंत्री ने गरीब महिलाओं को हर महीने हजार रुपये देने की घोषणा की और इसे आगे बढ़ाकर तीन हजार करने का भरोसा दिलाया। इसका व्यापक असर हुआ। ‘लाड़ली बहना योजना’ ने न सिर्फ बीजेपी की स्थिति को संभाला, बल्कि आसमान फाड़ जीत भी दिला दी।

शिवराज सिंह चौहान ने महिलाओं की एक सभा में मंच पर घुटनों के बल बैठकर इस योजना की घोषणा की थी। इसमें बीजेपी ने प्रदेश की 1.32 करोड़ से ज्यादा महिलाओं को पहले 1000 रुपये फिर 1250 रुपये महीने देना शुरू किया। यही नहीं, लाड़ली बहनों को घर देने तक का ऐलान किया। महिलाओं को फायदा होने का मतलब है कि परिवार को फायदा। इस योजना ने एक परिवार के औसतन 5 वोट पर असर डाला जो सीधे बीजेपी के खाते में गए। जबकि, पहले कहा जा रहा था कि बीजेपी जीत के प्रति आश्वस्त नहीं थी। लेकिन, बीजेपी को महिलाओं की इस योजना ने जीत दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। योजना के प्रचार के तरीके ने अपना अलग असर छोड़ा।

इस बार चुनाव में कांग्रेस के पिछड़ने का एक सबसे बड़ा कारण यह भी रहा कि उसकी मध्य प्रदेश की राजनीति पूरी तरह दिग्विजय सिंह और कमलनाथ पर केंद्रित रह गई है। पार्टी की राजनीति के हर फैसले उनके अनुरूप रहे। किसी भी तीसरे नेता या यूथ लीडरशिप को कांग्रेस ने आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया। यहां तक कि यूथ कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. विक्रांत भूरिया भी इसलिए बनाए गए कि वे कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया के बेटे हैं। कांग्रेस ने इस आदिवासी युवा को अध्यक्ष बनाकर बताने की कोशिश जरूर की कि वो आदिवासियों के प्रति संवेदनशील है। लेकिन, यूथ लीडरशिप में जो जुझारूपन होना चाहिए, वो उनमें कहीं नजर नहीं आया। भूरिया झाबुआ तक सीमित होकर रह गए। इसके विपरीत बीजेपी के पास एक दर्जन से ज्यादा ऐसे युवा नेता हैं, जो पार्टी का नेतृत्व करने में सक्षम हैं।

वहीं भाजपा किसी भी नेता को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में सामने नहीं लायी। चार बार के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के शासन में चुनाव लड़ा गया, वे पार्टी के स्टार प्रचारक भी रहे, उनकी योजनाओं और उनकी ही चुनावी योजनाओं पर चुनाव लड़ा गया, लेकिन वे मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट नहीं किए गए। पार्टी ने चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष भी केंद्रीय मंत्री नरेंद्र तोमर को बनाया। इसके अलावा भाजपा ने कई समितियां बनाकर यह चुनाव लड़ा। निस्संदेह, भाजपा रणनीतिक तौर पर कांग्रेस से बहुत आगे रही। साथ ही जनता को यह विश्वास दिलाया कि मध्य प्रदेश और यहां के लोगों के हित के लिए भाजपा का चुनाव जीतना ज्यादा जरूरी है। फलत: भाजपा ने सरकार बनाने लायक बहुमत से आगे जाकर सम्मानजनक आंकड़ा पा लिया। जबकि, कांग्रेस में दिग्विजय सिंह और कमलनाथ ही रणनीति बनाते और चुनाव लड़ाने के साथ खुद भी सार्वजनिक रूप से लड़ते रहे।

निस्संदेह, बीजेपी की इस जीत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वपूर्ण भूमिका रही। उन्होंने प्रदेश में धुआंधार जनसभाएं कीं। आदिवासी इलाके झाबुआ, अलीराजपुर के अलावा मालवा-निमाड़ में जहां भी कांग्रेस को जीत का प्रबल दावेदार माना जा रहा था, वहां नरेंद्र मोदी की जनसभाओं ने मतदाताओं को प्रभावित करने में कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस के बारे में कहा जाता है कि वो हर राज्य में अलग रणनीति के साथ आगे बढ़ती है। किसी राज्य में वो मुस्लिम वोटों को लुभाने की कोशिश करती है, तो किसी राज्य में ‘सनातन’ के आधार पर वोट पाने की रणनीति अपनाती है। निस्संदेह, कमलनाथ हनुमान जी के भक्त हैं। लेकिन, वे सिर्फ चुनाव के दौरान ही अपनी भक्ति दिखाते हैं। वहीं दिग्विजय सिंह अपनी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति के कारण कई बार आलोचनाओं का शिकार हो चुके हैं। ये और ऐसे बहुत से कारण हैं जो कांग्रेस की हार और भाजपा की जीत का कारण बने। अब कांग्रेस को आत्ममंथन करना होगा कि उनकी हार के असली कारण क्या रहे!

लेखक मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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