रचना त्रिपाठी
बड़की माई के घर में रोज कुछ न कुछ खटर-पटर लगा हुआ है। वर्षों से बूढ़ा-बूढ़ी का जीवन गांव में अपनी छोटकी पतोह के साथ बड़े मजे में कट रहा था। कोरोना के बहुत पहिले से उनके बड़का बेटा अपने मेहरारू-लइका लेके बहरवांसू हो गए थे। साल में एक से दू बार दू-चार दिन के लिए इहां आते रहते। एक वो दिन था जब बड़की माई इन्हें देखकर फूले न समाती थी और एक आज का दिन है, बाहर से सब कोई हंसता-खेलता दिखता है फिर पता नहीं क्यों ये फूल के कुप्पा हुए बैठी हैं? अब अंदर की बात कौन जाने! बच्चे जब भी मुंह खोलते हैं, कुछ न कुछ ऐसा कर देते हैं कि दूनों पतोह आपस में बक्क-झक्क कर के अपनी-अपनी कोठरी में कोहना के बइठि जाती हैं। इनके साथ ही रसोई का कुंडा भी अकड़ जाता है। पहले तो वह छोटकी बहुरिया के इशारे पर चलता था लेकिन आजकल वो भी इन दुन्नो जनी के मूड के हिसाब से खुलता और बन्द होता है। बड़की बहुरिया शुरू-शुरू में जब आयीं तो दूनों जनी आपस में मिलकर अपनी-अपनी पाक-कला का ख़ूब प्रदर्शन करती थीं। महीनों हो गया है कोरोना का कहर हटने का नाम नहीं ले रहा है।
इनका उत्साह अब धीरे-धीरे ठंडा हो गया है। अक्सर दूनों जनी का मूड अब गरम रहने लगा है… चूल्हे की आग ठंडी पड़ने लगी है… और रसोई में कुकर की सिटी शांत रहने लगी है। शायद अब जी ऊब गया है उनका। वो भी क्या करें बेचारी! यहां घर का तिल से ताड़ तक सब कुछ अपने हाथ से ही उन्हें करना पड़ता है। चौका-बर्तन के लिए इसके पहिले एक आती रही। बूढ़ा-बूढ़ी ने उसे भी मना कर दिया कि ‘कोरोना गरेस देगा मत आना।’ बड़की बहुरिया तो बम्बई से लौटी थीं। वहां रसोई घर से लेकर स्नानघर सब एक्कै कोठरी में सना हुआ था। जियादा उठने-बइठने की आदत तो रही नहीं और गांव में घर के पिछवाड़े तक उठके जाना उनके लिए पहाड़ हो गया है। मजबूरन उनके कोठरी में ही एक गुसलखाना बनवाना पड़ा है। कोरोना की यही ख़ूबी रही कि उसने सबको बराबर माना। अब उनके इहां भी दूनों जनी में बराबरी का होड़ लग गया है। उनकी छोटकी बहुरिया आजकल कोप भवन में चली गई हैं। छोटका बबुआ और उनके बाल-गोपाल मनुहार में लगे हैं। बड़की माईं बुढऊ से कह रही थीं कि लॉकडाउन में काम धंधा बन्द हैं और सबका खर्चा-पानी आसमान पर है। ‘जेकर जिनगी एहि खेत-खलिहान में बीत गइल, अब का… त उनहूं के अपने कोठरी में अलगे संडास चाहीं!’
साभार : टूटीफूटी डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम