मुकुल व्यास
दुनिया में कोविड महामारी अभी थमी नहीं है। सर्वसुलभ वैक्सीनों के जरिए टीकाकरण बढ़ाकर ही कोरोना वायरस और उसके नए वैरिएंट्स को रोका जा सकता है। अमीर देशों में अधिकांश लोगों को कोविड की वैक्सीन लग चुकी है लेकिन दुनिया के बहुत बड़े हिस्से में रहने वाली आबादी के टीकाकरण का काम अभी पूरा नहीं हुआ है। पश्चिमी देशों में प्रयुक्त आरएनए वैक्सीनें उच्च लागत,स्टोरेज और ट्रांसपोर्ट की दिक्कत की वजह से गरीब देशों में उपलब्ध नहीं हो पाई हैं। अब अमेरिका के मैसाचुसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) और बेथ इस्राइल डिकॉनेस मेडिकल सेंटर ने एक ऐसी नई वैक्सीन विकसित करने का दावा किया है जो कम लागत पर गरीब देशों में टीकाकरण की आवश्यकता पूरी कर सकती है। नई वैक्सीन को आरएनए वैक्सीनों का कारगर विकल्प बताया जा रहा है। इन्हें स्टोर करना भी आसान है।
शोधकर्ताओं ने एक नए शोध पत्र में नई वैक्सीन की जानकारी दी है। नई वैक्सीन में सार्स-कोव-2 वायरस के स्पाइक प्रोटीन के टुकड़ों को एक वायरस जैसे कण पर जमाया गया है। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह वैक्सीन तगड़ा इम्यून रिस्पांस उत्पन्न करती है और जानवरों को वायरस से सुरक्षा प्रदान करती है। वैक्सीन का डिजाइन कुछ इस तरह से किया गया है कि इसे खमीर (यीस्ट) से पैदा किया जा सकता है। इसके लिए फर्मेंटेशन की सुविधाएं दुनिया में पहले से मौजूद हैं। भारत का सीरम इंस्टिट्यूट भारी मात्रा में इस वैक्सीन का उत्पादन कर रहा है। उसने अफ्रीका में इस वैक्सीन का क्लिनिकल ट्रायल शुरू करने की योजना बनाई है।
एमआईटी के प्रोफेसर जे. क्रिस्टोफर लव का कहना है कि प्रोटीन आधारित सब-यूनिट वैक्सीन कम लागत वाली एक सुस्थापित टेक्नोलॉजी है जो वैक्सीन की निरंतर सप्लाई को सुनिश्चित कर सकती है। एक अच्छी बात यह है कि दुनिया के कई हिस्सों में यह टेक्नोलॉजी स्वीकार की जा चुकी है। लव की लैब ने बेथ इस्राइल सेंटर की लैब के साथ मिल कर दो साल पहले कोविड वैक्सीन विकसित करने के लिए रिसर्च शुरू की थी। उनका उद्देश्य एक ऐसी वैक्सीन विकसित करना था जो न सिर्फ कारगर हो बल्कि आसानी के साथ निर्मित भी की जा सके। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए उन्होंने प्रोटीन सब-यूनिट वैक्सीनों पर अपना ध्यान केंद्रित किया।
दरअसल, प्रोटीन सब-यूनिट वैक्सीन में वायरस प्रोटीन के छोटे हिस्से सम्मिलित किए जाते हैं। इस टेक्नोलॉजी से हेपेटाइटिस बी सहित कई मौजूदा वैक्सीनें निर्मित की जा चुकी हैं। लव का कहना है कि सब-यूनिट वैक्सीन उन जगहों के लिए बहुत उपयोगी है जहां महंगी वैक्सीन खरीदना एक बहुत बड़ी चुनौती है। वे लोग भी इसे अपना सकते हैं जिन्हें नई टेक्नोलॉजी पर आधारित वैक्सीनों को लेकर झिझक है। प्रोटीन सब-यूनिट वैक्सीनों का एक बड़ा लाभ यह है कि इन्हें फ्रिज में रखा जा सकता है। इन्हें आरएनए वैक्सीनों की तरह बहुत निम्न तापमान पर रखने की जरूरत नहीं होती। शोधकर्ताओं ने नई सब-यूनिट वैक्सीनों के लिए सार्स-कोव-2 वायरस के स्पाइक प्रोटीन के एक छोटे टुकड़े को इस्तेमाल करने का फैसला किया।
महामारी के आरंभ में जानवरों पर किए गए प्रयोगों से पता चला कि अकेले वायरस प्रोटीन के इस हिस्से से तगड़ा इम्यून रिस्पांस पैदा नहीं होगा। अतः इम्यून क्षमता बढ़ाने के लिए शोधकर्ताओं ने एक वायरस जैसे कण पर प्रोटीन की अनेक प्रतियां रखने का फैसला किया। उन्होंने वायरस के सांचे के तौर पर हेपेटाइटिस बी एंटीजन का प्रयोग किया। इस कण पर प्रोटीन के टुकड़ों की परत बिछाने से अकेले प्रोटीन की तुलना में ज्यादा दमदार रिस्पांस उत्पन्न हुआ। शोधकर्ता चाहते थे कि उनके द्वारा विकसित वैक्सीन आसान और कारगर तरीके से निर्मित हो। इस समय अनेक प्रोटीन सब-यूनिट वैक्सीनों का निर्माण स्तनपायी जीवों की कोशिकाओं के जरिए किया जाता है। लेकिन इन कोशिकाओं के साथ काम करना बहुत कठिन होता है। एमआईटी की टीम ने वायरस के एक ऐसे प्रोटीन का डिजाइन तैयार किया जिसका उत्पादन पिचिया पेस्टोरिस नामक यीस्ट द्वारा किया जा सकता है। इस यीस्ट को औद्योगिक बायोरिएक्टर में आसानी से उगाया जा सकता है। वैक्सीन के दोनों हिस्सों, प्रोटीन के टुकड़े और वायरस के कण को यीस्ट में अलग-अलग उगाया जा सकता है।
ध्यान रहे कि दुनिया भर में वैक्सीन उत्पादन के लिए बायोरिएक्टरों में पिचिया पेस्टोरिस यीस्ट का प्रयोग किया जाता है। शोधकर्ताओं ने यीस्ट कोशिकाएं तैयार होने के बाद उन्हें बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए सीरम इंस्टिट्यूट भेज दिया। नए रिसर्च पेपर के प्रमुख लेखक नील डाल्वी का कहना है कि हमारी वैक्सीन दूसरी वैक्सीनों से इस मायने में अलग है कि यीस्ट जीवाणुओं में वैक्सीन उत्पादन की सुविधाएं दुनिया के उन हिस्सों में पहले से मौजूद हैं जहां वैक्सीनों की सबसे ज्यादा जरूरत है। वैक्सीन तैयार होने के बाद शोधकर्ताओं ने गैर मानव प्राइमेट जानवरों पर एक ट्रायल में उसका परीक्षण किया। इन अध्ययनों के जरिए शोधकर्ताओं ने दर्शाया कि इस वैक्सीन द्वारा उत्पन्न एंटीबॉडीज़ का स्तर कुछ मान्यता प्राप्त कोविड वैक्सीनों द्वारा उत्पन्न एंटीबॉडीज़ के बराबर ही था। उन्होंने यह भी देखा कि जानवरों को सार्स-कोव-2 वायरस से एक्सपोज करने पर टीके वाले जानवरों में वायरस का लोड बिना टीके वाले जानवरों से काफी कम था।
शोधकर्ताओं ने इस वैक्सीन के लिए स्पाइक प्रोटीन के जिस हिस्से का प्रयोग किया वह सार्स-कोव-2 के मूल स्ट्रेन के सिक्वेंस पर आधारित था जो 2019 में प्रकट हुआ था। आस्ट्रेलिया में पहले चरण के क्लिनिकल ट्रायल में इस वैक्सीन का परीक्षण किया जा चुका है। इसके पश्चात शोधकर्ताओं ने वैक्सीन की इम्यून उत्पादन क्षमता को बढ़ाने के लिए वायरस के दो म्युटेशनों को शामिल किया जो डेल्टा और लैम्बडा वैरिएंट्स में पहचाने गए म्युटेशनों की तरह ही थे। यदि क्लिनिकल ट्रायलों में यह वैक्सीन मौजूदा आरएनए वैक्सीनों की सुरक्षित और प्रभावी विकल्प साबित होती है तो इसका उपयोग उन देशों में टीकाकरण के लिए किया जा सकता है जहां वैक्सीन की उपलब्धता बहुत सीमित है। इसके अलावा इससे बूस्टर वैक्सीनें बनाने में भी मदद मिलेगी जो सार्स-कोव-2 की विविध किस्मों और दूसरे कोरोना वायरसों के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करेंगी।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।