गुरबचन जगत
वर्ष 1973 की गर्मियों में मेरी नियुक्ति बंठिडा में बतौर एसएसपी हुई। स्थानांतरण की इस खबर को मैंने कुछ ऊहापोह के साथ लिया क्योंकि मैं बहुत छोटे से जिला, कपूरथला से निकलकर विशालकाय बठिंडा जिला मंडल का कामकाज संभालने जा रहा था। जैसे ही हमने बठिंडा की ओर रवानगी की तो फरीदकोट से परे परिदृश्य बदलने लगा। सड़क के दोनों ओर रेत के टिब्बे दिखाई देने लगे। कहीं-कहीं ऊंटों पर सवार या साथ चले हुए लोग थे, जो हथियार और कारतूस जड़ी पट्टी से लैस थे। यह हम कहां आ गए और अनुभव कैसा रहेगा? ऐसा मंज़र मैंने पहले कभी नहीं देखा था। बाद में मुझे पता चला कि ये बंदूकें अकारण नहीं हैं और इन्हें ‘मालवे का गहना’ कहा जाता है। नए आए व्यक्ति के लिए बठिंडा एक ऐसा क्षेत्र है जिसने सदियों तक युद्ध देखे हैं। पुराने शहर में बना किला मुबारक इन लड़ाइयों का गवाह है। इस दुर्ग ने गज़नी, गौरी, पृथ्वीराज चौहान, रज़िया सुल्तान और बहुत से राजा-रानियां देखी हैं। सिख इतिहास में भी गुरुसर और मुक्तसर की लड़ाई इस क्षेत्र की किंवदंती है। मुदकी और फिरोज़शाह के युद्ध एंग्लो-सिख लड़ाई में प्रमुख युद्ध हैं। गिनाने बैठें तो इनकी सूची बहुत लंबी है।
इस इलाके में लोगों और राजनेताओं की एक बड़ी मांग बंदूक का लाइसेंस पाने की रही है। चाहे इसकी एवज में एक बांह या टांग क्यों न देनी पड़े! बंदूक इनके लिए गहना है– हाथ में बंदूक, सीने पर तिरछी पट्टी में सजे कारतूस और अकड़कर चलना, अन्यत्र दुर्लभ दृश्य थे। जब मुझसे मिलने वाले आने शुरू हुए तो मैंने उनकी बोली भी कुछ अलहदा ढंग की पाई, जिसे समझने के लिए कई मर्तबा सहायकों की जरूरत पड़ती थी। स्थानीय संस्कृति को समझने में कुछ समय लगा। एक बार एक विधायक महोदय आए और मुझे मानसा में हुई हत्या के बारे में बताया, जिसकी जांच वे किसी वरिष्ठ अफसर से करवाना चाहते थे। मैं उनकी बताई तफ्सील भूल गया सो दरियाफ्त के लिए वहां के एसएचओ को फोन लगाया। अब यहां एक नई मुश्किल पैदा हुई क्योंकि बीते सप्ताह सात हत्याएं हुई थीं। मैं सन्न रह गया क्योंकि कपूरथला में सालभर में एक या दो हत्या की वारदात होती थी। फिर हर जानकारी को बहुत सावधानी से सहेजने लगा, क्योंकि ज्यादातर मांग हत्या की जांच फिर से करवाने की होती थी। इससे भ्रष्टाचार का अपना एक चक्र बनता है और केस कमजोर होता है।
एक बार एक ग्रामीण हत्या की जांच को लेकर शिकायत करने आ गया। मैंने कहा यदि उसे एसएचओ की जांच से तसल्ली नहीं है तो मामला डीएसपी को सौंप दूं। उसका जबाव आया ‘थाना गांठ लिया है’ यानी जांच वहीं किसी और से करवाई जाए। मैं सिर खुजाता रह गया पर आगे कुरेदने पर अहसास हुआ कि विरोधियों ने डीएसपी समेत सारी स्थानीय पुलिस गांठ रखी है। मैं असमंजस में था क्योंकि एक ओर मुझे उसकी कही पर यकीन था और ठीक इसी वक्त अफसरों को लेकर अपना मन नहीं बना पा रहा था। एक ही रास्ता बचता था कि मामला एसपी रैंक के अफसर को सौंपा जाए और यदि फिर भी बात न बने तो सीआईडी को। बाद में मुझे पता चला कि हत्या के मामलों में, योजनाबद्ध वध करने से पहले भारी पैसा पुलिस वालों को चढ़ा दिया जाता है। जांच शुरुआत से ही सीधे वरिष्ठ अधिकारियों को सौंपने से इस समस्या से काफी हद तक पार पा लिया गया। मामले पर नजदीकी निगरानी बनाकर, जांच में वरिष्ठ अधिकारी शामिल कर और शिकायतकर्ताओं से सम्पर्क बनाकर हम इस अलामत से निबट पाए। शिकायतकर्ता भी खेल करते हैं और उन्हें प्राथमिकी में वास्तविक आरोपियों के अलावा अन्य लोगों का नाम जोड़ने की आदत है ताकि पूरे परिवार को मुकद्दमेबाजी में घसीट सकें। झूठ में से सच को सावधानी से छांटकर अलग करना पड़ता है क्योंकि जैसे ही किसी बेगुनाह का नाम अभियोगपत्र से हटाया नहीं कि पुलिस पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने शुरू। फिर भी, यदि पुलिस की तफ्तीश न्यायोचित हो तो ये आरोप खुद-ब-खुद खत्म हो जाते क्योंकि इलाके के लोगों को सच का पता होता था।
हत्या का आम कारण बदला लेना था। दुश्मनी पुश्त-दर-पुश्त चलती है और ‘अपराध का बदला अपराध’ वाली रीत निरंतर चलती रहती है। माफ कर देना और दया का गुण नगण्य था। मुझे एक मामला याद आ रहा है, जब लगभग एक 20 वर्षीय युवा ने थाने पहुंचकर अपना गुनाह कुबूल किया। मैंने इसके पीछे कारण पूछा तो उसका जवाब था कि जब पैदा होने वाला था तो उसके पिता को मृतक ने मार डाला था और बड़े होने तक उसकी मां की एक ही मांग थी– अपने बाप का बदला लेना। यह बात उसके मन में गहरे पैठ गई और पहला मौका मिलते ही उसने करतूत कर डाली– आपकी जानकारी के लिए, यह है मालवा।
फिर एक अन्य बड़ी समस्या थी, नहरों में कट लगाकर पानी खींच लेना, जिससे विभिन्न पक्षों के बीच लड़ाई और हत्या तक की नौबत बनती। दोआबा के बरक्स, वहां सिंचाई मुख्यतः नहरों के मार्फत होती है और क्षेत्रवार पानी छोड़े जाने का दिन और समय मुकर्रर होता है। बहुत दफा किसी का नंबर रात को आता, लेकिन जल धारा में ऊपर वाले लोग ज्यादा पानी खींचने के वास्ते अपनी वैध बारी आने से पहले नहरी तट में कट लगा पानी मोड़ लेते, इससे निचली तरफ के लोगों को जल से महरूम होना पड़ता। यह कारक लड़ाइयों और हत्याओं में तब्दील होता। अपराध-डायरी में ‘नहर-कट’ के मामलों के लिए बाकायदा अलहदा से प्रकोष्ठ बना होता।
इस विषय पर मुझे तत्कालीन डीआईजी चौधरी राम सिंह ने स्पष्ट और विस्तृत आदेश दे रखे थे। इन जैसे बहुत अनुभवी वरिष्ठ अफसरों से सीखने की प्रक्रिया सतत थी और यहां मुझे एक वाकया याद आ रहा है। दिवाली से दो दिन पहले, फिरोज़पुर रेंज के डीआईजी (दिवंगत सीके साहनी जो बाद में पंजाब के पुलिस महानिदेशक बने) ने मुझसे पूछा कि दिवाली शांतिपूर्ण रहे, इसको लेकर मेरी कार्ययोजना क्या है। उन्होंने सलाह दी कि दिवाली वाले दिन सुबह से ही काम पर लगो और जिले के सबसे दूरस्थ थाना बोहा, जोकि बठिंडा शहर से लगभग 200 किलोमीटर दूर है, वहां जाओ। मुझे वहां यह सुनिश्चित करने के लिए छापा मारना था कि क्या गश्ती दल भेजे गए या नहीं। जाहिर था जैसे ही मैं पहले थाने पहुंचा, उन्होंने आगे वालों को आगाह कर दिया, नतीजन कहीं भी कोताही नहीं पाई गयी। लेकिन इस सारी मशक्कत का प्रयोजन भी यही था कि सब चौकस होकर काम पर लगें और ड्यूटी निभाएं।
रास्ते के लिए मैं अपने साथ सैंडविच लेकर चला था इसलिए कहीं रुकना नहीं पड़ा। धूल भरी सिंगल लेन सड़कों पर सैकड़ों किलोमीटर का सफर तय कर जब मैं देर शाम को वापस पहुंचा तो मेरे लिए डीआईजी साहब का दिन का आखिरी निर्देश बाट जोह रहा था कि यह जांच करूं कि कहीं संतरी ने दिवाली की ‘मिठाई’ तो स्वीकार नहीं की। मुझे जवाब में न मिलने पर तसल्ली हुई। अगले दिन, मुझे पता चला कि दिवाली पर हुई हत्याओं की संख्या पिछले साल के मुकाबले इस बार 80 फीसदी कम रही।
ऐसे बहुत से किस्से सुनाने को हैं, सभी वास्तविक, यह समय व्यावसायिक पहलू, बोली का प्रारूप, हाव-भाव और जिंदगी जीने के अलग अंदाज के बारे में जानने-सीखने में काफी अनुभव भरा रहा। दोआबा और माझा के मुकाबले मालवा के अधिकांश लोग प्रशासनिक अधिकारियों के प्रति आदरपूर्ण भाव रखते थे और कभी भी काम की खातिर घर पर नहीं आए। अपवाद हर कहीं होते हैं और ऐसा ही एक करारा किस्सा काफी ताकतवर विधायक और एक अन्य राजनेता का है, जो खुद को मुख्यमंत्री का नज़दीकी मानते थे। मेरे कार्यकाल के आरंभ में एक सुबह, जब मैं शिकायतकर्ताओं की सुनवाई कर रहा था, वे धड़धड़ाते हुए दफ्तर में आन घुसे। बिना जाने कि कौन हैं, मैंने उनसे खाली होने तक बाहर इंतजार करने की प्रार्थना की, उनके चेहरे पर हैरानी और झटका साफ झलका और अपना परिचय दिया। मैंने फिर से अपनी इल्तजा दोहराई और वे बाहर चले गए। मैंने अपने दफ्तर अर्दली को तलब किया और निर्देश दिए कि आईंदा ऐसी स्थिति कभी न बने। उनका जवाब था कि वे सदा इसी ढंग से आते हैं। मैं तभी जान गया था कि ऐसा करके मैंने अपने लिए अधीर दुश्मन पैदा कर लिए हैं। लगभग दो साल बाद यह दो ‘भलेमानस’ आखिरकार मेरी बदली पटियाला बतौर एसएसपी करवाने में सफल हुए। यहां यह भी खुलासा करता चलूं कि मेरी नियुक्ति बठिंडा क्यों हुई थी। मुख्यमंत्री के इन दो ‘मुंहलगों’ ने स्थानीय प्रशासन को उच्चतम स्तर पर बांध रखा था और उनकी जानकारी के बिना अपने दबदबे से काम करवाते थे। मुख्यमंत्री चूंकि बहुत चतुर राजनेता थे सो उन्होंने गुणा-भाग करके कि मैं इन दोनों को घास नहीं डालने वाला, खासतौर पर मुझे वहां भेजा था और पहले दिन हुआ भी यही। किसी एसएचओ की बदली, मामले की जांच टीम बदलने, हथियार के लाइसेंस दिलवाने और पुलिस थानों में अपनी मनमर्जी चलवाने की उनकी सारी अर्जियां, जो वास्तव में बेजा मांग हुआ करती थीं, मैं खारिज करता गया। इसलिए वे मेरी शिकायत लेकर चंडीगढ़ भागते। यह श्रेय मुख्यमंत्री को जाता है कि वे कभी उनकी बातों में नहीं आए और मुझे लगता है कि उन दोनों ने उच्च दर्जे के राजनेता से मिला यह राजनीतिक सबक सीखा होगा। जब मेरे लिए नए आदेश आए तो हमने अपना सामान बांधा और पटियाला की ओर निकल लिए, जहां से आगे मेरा तबादला चंडीगढ़ सचिवालय हुआ– इसकी कहानी फिर कभी।
लेखक मणिपुर के राज्यपाल, संघ लोक सेवा आयोग अध्यक्ष एवं जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।